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(गिरिजेश वशिष्ठ) हर बार जब कोई जघन्य अपराध होता है हर तरफ से मारो मारो की चीत्कार सुनाई देने लगती है। एक भीड़ जो मौत देकर सारी समस्याएं हल कर देना चाहती है। कठुआ के बाद यही सुना, उससे पहले निर्भया में यही सुना जब भी कोई आपराध होता है मांग उठती है। चौराहे पर लटकाकर मार दो। फांसी कम से कम सजा है। कुछ लोग तो कहते हैं कि सुनवाई कोर्ट अदालत की भी ज़रूरत नहीं है लटका दो। लेकिन कभी सोचा कि आपकी तरह कानूनविद क्यों नहीं सोचते। महिलाओं के मामलें में दुनिया भर में संघर्ष करने वाली नारी समानाधिकार कार्यकर्ता क्यों नहीं ऐसी मांग करते। जाहिर बात है आप में से ज्यादातर ये बात न तो जानते हैं और न जानना चाहते हैं।
दरअसल खून का बदला खून में सभी को हर समस्या का हल दिखाई देता है। लेकिन समस्या का हल इतना आसान नहीं है फांसी चढ़ाने से समस्या बढ़ सकती है। क्या कभी आपने सोचा कि सामाजिक जागृति के बगैर आप जितना अधिक सज़ा सख्त करते जाएंगे पीड़ित महिला की जीवन की दिक्कतें बढ़ती जाएंगी। जैसे ही किसी महिला से बलात्कार होगा। पूरा समाज और परिवेश उस महिला पर दबाव डालना शुरू कर देगा।
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(आशु सक्सेना) जनतादल (यू) अध्यक्ष नीतीश कुमार ने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ सीधा मोर्चा खोल दिया है। इस बात का स्पष्ट संकेत उस वक़्त मिल गया था, जब नीतीश ने मोदी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह का एक तरह से बहिष्कार किया था। नीतीश ने मोदी सरकार- 2 के शपथ ग्रहण समारोह के बाद दिल्ली से पटना लौटकर सबसे पहले भाजपा के इस प्रचार पर हमला किया कि एनडीए की जीत में सिर्फ एक व्यक्ति पीएम मोदी का योग्यदान है। उन्होंने कहा कि बिहार की जीत बिहारवासियों की जीत है। इसे किसी एक व्यक्ति या पार्टी से जोड़कर नही देखा जा सकता।
नीतीश कुमार के रूख से साफ है कि एनडीए में रहते हुए 17 वीं लोकसभा में तमाम विवादास्पद मुद्दों पर उनकी पार्टी के सांसद केंद्र की 'भाजपा नीत एनडीए सरकार' के खिलाफ खड़े नज़र आ सकते हैं। इस युग के समाजवादी नेताओं में नीतीश कुमार अपनी धारा के नेताओं में अग्रणी हैं, जिन्होंने बाबरी विध्वंस के बाद सत्ता की दौड़ में सबसे पहले भाजपा से नाता जोड़ा है। 1996 में नीतीश कुमार की 'समता पार्टी' ने अटल बिहारी बाजपेई की 13 दिन की सरकार का समर्थन किया था।
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(आशु सक्सेना) समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को हरी झंडी दिखा दी है। मुलायम सिंह का कहना है कि भगवा पार्टी को चुनौती देने के लिए इस गठबंधन को मजबूती प्रदान करना वक्त की जरूरत है। उन्होंने कहा कि पार्टी के संगठन को मजबूत करना होगा। सभी को साथ लेकर चलना होगा। उन्होंने कहा युवाओं को अभी से 2022 के चुनाव की तैयारी में जुट जाना होगा। घटक दलों के बीच ज़मीन पर तालमेल नजर आना चाहिए।
दरअसल, समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने बहुजन समाज पार्टी से दोस्ती की आधारशिला 1991 के लोकसभा चुनाव में रखी थी। जो 1993 में सपा-बसपा गठबंधन की शक्ल में सामने आयी थी। इस चुनाव में मुलामय सिंह यादव ने अपने गृह जिले की इटावा संसदीय सीट से बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार कांशीराम का समर्थन किया था। कई चुनाव हारने के बाद इटावा से कांशीराम निर्वाचित हुए थे। उस वक्त पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी 'सजपा' कें बैनरतले मुलायम सिंह यादव लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे। लोकसभा में सजपा के चार सदस्य थे। जबकि 34 विधायक भी जीते थे।
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(आशु सक्सेना) लोकसभा चुनाव का महापर्व संपन्न हो गया। चुनाव नतीजे आ चुके हैं। प्रचंड़ मोदी लहर में एक बार फिर भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई है। भाजपा के इस प्रचंड़ बहुमत में उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की अहम भूमिका रही है। पश्चिम बंगाल में विपक्ष विभाजित था, वहां भाजपा की सफलता को समझा जा सकता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में मत प्रतिशत के लिहाज से दो मजबूत विपक्षी दल सपा-बसपा का गठबंधन भी भाजपा की आंधी को रोकने में क्यों कामयाब नही हुए, यह सबसे बड़ा सवाल है।
यह वह दो पार्टियां हैं, जो पहली बार 1993 में साथ आयीं थीं और दिसंबर 1992 में बाबरी प्रकरण के बावजूद भगवा पार्टी को सूबे में सत्ता पर काबिज होने से रोक दिया था। जबकि उस वक्त भी विपक्ष पूरी तरह से विभाजित था। चुनाव से पहले पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में एकीकृत जनतादल का गठन गाजियाबाद में हुआ था। क्योंकि वीपी सिंह ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मंडल कानून के तहत पिछड़ों को नौकरी नही मिलेगी, तब तक वह दिल्ली नही आएंगे। बहरहाल, बाबरी प्रकरण के बाद 1993 के विधानसभा चुनाव पर दुनिया भर की नज़र थी।
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