(आशु सक्सेना) जनतादल (यू) अध्यक्ष नीतीश कुमार ने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ सीधा मोर्चा खोल दिया है। इस बात का स्पष्ट संकेत उस वक़्त मिल गया था, जब नीतीश ने मोदी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह का एक तरह से बहिष्कार किया था। नीतीश ने मोदी सरकार- 2 के शपथ ग्रहण समारोह के बाद दिल्ली से पटना लौटकर सबसे पहले भाजपा के इस प्रचार पर हमला किया कि एनडीए की जीत में सिर्फ एक व्यक्ति पीएम मोदी का योग्यदान है। उन्होंने कहा कि बिहार की जीत बिहारवासियों की जीत है। इसे किसी एक व्यक्ति या पार्टी से जोड़कर नही देखा जा सकता।
नीतीश कुमार के रूख से साफ है कि एनडीए में रहते हुए 17 वीं लोकसभा में तमाम विवादास्पद मुद्दों पर उनकी पार्टी के सांसद केंद्र की 'भाजपा नीत एनडीए सरकार' के खिलाफ खड़े नज़र आ सकते हैं। इस युग के समाजवादी नेताओं में नीतीश कुमार अपनी धारा के नेताओं में अग्रणी हैं, जिन्होंने बाबरी विध्वंस के बाद सत्ता की दौड़ में सबसे पहले भाजपा से नाता जोड़ा है। 1996 में नीतीश कुमार की 'समता पार्टी' ने अटल बिहारी बाजपेई की 13 दिन की सरकार का समर्थन किया था।
भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी के दौरान नीतीश के रूख में उस वक्त तल्खी नज़र आयी, जब भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया। यूं नीतीश कुमार ने एनडीए में रहते हुए मोदी विरोध को कई बार सार्वजनिक किया। उन्होंने बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भेजी गई आर्थिक मदद को यह कर वापस कर चुके थे कि ऐसी मदद की बिहार सरकार को दरकार नही है।
बहरहाल, मोदी विरोध के चलते नीतीश एक बार फिर सूबे में अपने धूर विरोधी लालू यादव के साथ दोस्ती की एक पारी खेल चुके हैं। उनका मौजूदा कार्यकाल सूबे में एनडीए के खिलाफ महागठबंधन की जीत के साथ शुरू हुआ था। जिसका अंत भाजपा के साथ गठबंधन की शक्ल में हो रहा है। नीतीश कुमार ने केंद्रीय मंत्रिमंड़ल में सांकेतिक प्रतिनिधित्व के भाजपा के प्रस्ताव को ठुकरा कर यह संकेत दे दिया है कि विधानसभा चुनाव में वह भाजपा से गठबंधन तोड़ सकते हैं।
दरअसल, बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा के साथ राजनीतिक रिश्तों को लेकर समाजवादियों में चल रहे मंथन के बीच नीतीश कुमार उन पहले व्यक्तियों में से हैं, जिन्होंने भाजपा का दामन थामा था। नीतीश कुमार ने 1996 में जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व वाली 'समता पार्टी' सांसद के तौर पर भाजपा के साथ चलने का रास्ता चुना था। अटल बिहारी वाजपेई की पहली 13 दिन की सरकार के साथ उनकी 'समता पार्टी' मजबूती से खड़ी नज़र आयी थी।
नीतीश के भाजपा से इन रिश्तों में पहली बार दरार तब नज़र आयी थी, जब 2013 में भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी को अपने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था।
मोदी विरोध की पराकाष्ठा सूबे की राजनीति में उस वक्त नज़र आयीं थी, जब नीतीश ने पिछले विधानसभा चुनाव में अपने धूर विरोधी लालू यादव से दोस्ती का हाथ बढ़ाया। जिस लालू विरोध की राजनीति से नीतीश भी एक छत्रप बनकर उभरे थे, उसे भूल कर पिछले विधानसभा चुनाव में मोदी विरोध का परचम लहराते हुए अपने धूर विरोधी लालू से हाथ मिलाया और भाजपा जबरदस्त पटकनी दी।
बिहार की राजनीति में नीतीश एक ब्रांड बन चुके हैं। यह बात हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव नतीज़ों के बाद साफ हो चुकी है। बिहार उन राज्यों में अकेला है, जहां भाजपा को राजनीतिक मजबूरी में सबसे ज्यादा समझौता करना पड़ा था। 2014 की मोदी लहर में इस सूबे की 32 सीटों पर एनडीए का कब्जा था। इनमें भाजपा की 22 सीट थी। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को साथ रखने के लिए जदयू के लिए अपनी जीती हुई पांच सीट भी छोड़ीं थी। लोकसभा चुनाव तक भाजपा ने जदयू को बराबरी का दर्जा दिया, लेकिन जब मंत्रिमंड़ल में सांकेतिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया, उसे नीतीश ने खारिज करते हुए अनुपातिक बंटवारे की बात कही। एनडीए में रहते हुए नीतीश कुमार का 'मोदी विरोध' को एक राजनीति मोड़ मिल गया है। अगले पांच साल वह एनडीए में रहते हुए विरोधी दल की भूमिका भी निभाते रहेंगे।
दरअसल, समाजवादियों के विखराव का ताजा दौर 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद शुरू हुआ। 1988 में समाजवादियों के एक मंच पर आने के बाद जनतादल अस्तित्व में आया था। वीपी सिंह के नेतृत्व में जनतादल ने 1989 का लोकसभा चुनाव भाजपा और वामपंथी मोर्चे के साथ गठबंधन करके लड़ा था। उस चुनाव में दो सीट वाली भाजपा ने 88 सीट पर छलांग लगाई, जबकि जनतादल 143 सीट जीतकर प्रमुख विपक्ष बन कर उभरा। चुनाव पूर्व गठबंधन में वामपंथी मोर्चा भी अपनी सीट बढाने में सफल रहा। वामपंथी मोर्चा के 55 सांसद लोकसभा पहुंचे थे।
वीपी सिंह सरकार के साथ ही समाजवादियों का विखराब शुरू हो गया था। लेकिन 1989 के लोकसभा चुनाव के लिए समाजवादी एकता के नाम पर एकजुट हुए समाजवादियों के जनतादल के विखराब में 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद तेजी आयी। सबसे पहले अजित सिंह ने जनतादल से नाता तोड़ा कर 20 सांसदों के समर्थन से जनतादल अ को लोकसभा में एक अलग पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया। इसके बाद लोकसभा में जनतादल के सबसे बड़े विभाजन की शुरूआत उस वक्त हुई, जब संसदीय दल के नेता का चुनाव मतदान से हुआ। दिग्गज समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस को शरद यादव ने हराया था। संसदीय दल के नेता के चुनाव में रामबिलास पासवान ने जार्ज फर्नांडिस का समर्थन किया था।
यहीं से जनतादल के खंड खंड होने की दास्तान शुरू हुई। जनतादल के 14 सांसदों ने जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में आस्था व्यक्त करते हुए जनतादल संसदीय का नेता चुना। इस गुट में बिहार के 12 सांसदों के अलावा उत्तर प्रदेश से हरिकेवल प्रसाद और उड़ीसा से रवि रे शामिल थे। जनतादल के विधिवत विभाजन की घोषणा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष रवि रे के निवास 4 जनपथ मार्ग पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में की गई थी। बिहार में जनतादल के अब तीन गुट है। समता पार्टी के बाद लालू यादव का राष्ट्रीय जनतादल और रामबिलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और जनतादल यू अस्तित्व में आये। नीतीश कुमार ने समाजवादियों के एकता अभियान के तहत समता पार्टी का शरद यादव के जदयू में विलय कर दिया। आज जदयू की कमान नीतीश के हाथ में है।