(आशु सक्सेना) लोकसभा चुनाव का महापर्व संपन्न हो गया। चुनाव नतीजे आ चुके हैं। प्रचंड़ मोदी लहर में एक बार फिर भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई है। भाजपा के इस प्रचंड़ बहुमत में उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की अहम भूमिका रही है। पश्चिम बंगाल में विपक्ष विभाजित था, वहां भाजपा की सफलता को समझा जा सकता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में मत प्रतिशत के लिहाज से दो मजबूत विपक्षी दल सपा-बसपा का गठबंधन भी भाजपा की आंधी को रोकने में क्यों कामयाब नही हुए, यह सबसे बड़ा सवाल है।
यह वह दो पार्टियां हैं, जो पहली बार 1993 में साथ आयीं थीं और दिसंबर 1992 में बाबरी प्रकरण के बावजूद भगवा पार्टी को सूबे में सत्ता पर काबिज होने से रोक दिया था। जबकि उस वक्त भी विपक्ष पूरी तरह से विभाजित था। चुनाव से पहले पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में एकीकृत जनतादल का गठन गाजियाबाद में हुआ था। क्योंकि वीपी सिंह ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मंडल कानून के तहत पिछड़ों को नौकरी नही मिलेगी, तब तक वह दिल्ली नही आएंगे। बहरहाल, बाबरी प्रकरण के बाद 1993 के विधानसभा चुनाव पर दुनिया भर की नज़र थी।
यह पहला चुनाव था, जब पिछड़ों को आरक्षण के समर्थक दल आमने-सामने थे। एक तरफ सपा-बसपा गठबंधन था, तो दूसरी तरफ एकीकृत जनतादल चुनाव मैदान था। वीपी सिंह और अजित सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश से चुनाव प्रचार शुरू किया था। वहीं सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह और कांशीराम कम संसाधनों में चुनाव प्रचार में जुटे थे। राजनीतिक विश्लेषकों का आंकलन था कि मंड़ल समर्थक ताकतें विभाजित हैं। जिहाजा इसका फायदा भाजपा को मिलेगा।
तर्क यह था कि मंदिर आंदोलन के चरम पर 1991 के विधानसभा चुनाव में भगवा पार्टी पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रही है और दिसंबर 1992 में केंद्र की पीवी नरसिंह राव सरकार ने प्रदेश सरकार को बर्खास्त किया है। लिहाजा भाजपा को सहानभूति मत मिलने की संभावना व्यक्त की गई थी। लेकिन चुनाव नतीजों ने सबको चौंका दिया था। 425 सदस्यों की विधानसभा में भाजपा 177 सीट पर सिमट गई। वहीं सपा बसपा गठबंधन 176 सीट जीतने में सफल रहे। हांलाकि एकीकृत जनतादल 27, वामपंथी दल 4, कांग्रेस 28, उत्तराखंड़ क्रांति दल एक और 8 निर्दलीय चुनाव जीते।
जनतादल और वामपंथी दलों के समर्थन से मुलायम सिंह दूसरी बार सत्ता पर काबिज हुए। लेकिन 1995 में गेस्ट हाउस कांड़ के बाद सपा-बसपा गठबंधन सरकार का पतन हो गया। दरअसल, यही वह क्षण था, जहां से उस आंदोलन का भी क्षरण शुरू हुआ, जिसकी बदौलत यह गठबंधन ना सिर्फ भगवा पार्टी को रोकने में सफल हुआ था, बल्कि सत्ता पर काबिज हुआ था। बसपा प्रमुख कांशीराम की पार्टी डीएस फोर आंदोलन से अस्तित्व में आयी थी। इस पार्टी के साथ ना सिर्फ दलित बल्कि अति पिछड़े भी गोलबंद हुए थे। वहीं सपा की नुमाईंदगी करने वाले मुलायम सिंह यादव को पिछड़ों का सर्वसम्मत नेता माना जाता था। उस वक्त तक मुलायम सिंह पर किसी एक पिछड़ी जाति केे नेता का आरोप चस्पा नही हुआ था। यहीं वजह थी कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े और दलितों ने गोलबंद होकर सपा-बसपा को अपनी पहली पसंद माना था।
लेकिन 2019 का चुनाव आते आते यह अंकगणित पूरी तरह बदल चुकी है। सपा को जहां सिर्फ यादवों की पार्टी माना जाने लगा है, वहीं बसपा सिर्फ जाटवों को पार्टी बनकर रह गई है। दलितों और पिछड़ों का नेतृत्व करने के लिए वीपी सिंह जैसे किसी नेता का भी अभाव है। यही वजह है कि किसी सार्थक विकल्प के अभाव में गैर जाटव दलितों और गैर यादव पिछड़ों को भगवा पार्टी अपने साथ जोड़ने में सफल रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में जो तस्वीर उभरी है, उससे यह साफ है कि सपा और बसपा को इन वर्गों ने पूरी तरह नकार दिया है।
हांलाकि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सपा-बसपा गठबंधन को लोहिया और अंबेडकर के ख्याब को साकार करने की दिशा में अहम कदम करार दिया। उनका कहना है कि लोहिया और अंबेडकर चाहते थे कि दलित और पिछड़ों को एकमंच पर लाया जाए, ताकि इनके सामाजिक उत्थान के संघर्ष को बल मिल सके। सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है, लेकिन हकीकत इससे एकदम विपरित है। पिछले दो चुनाव नतीजों से साफ है कि गैर यादव और गैर जाटव दलित और पिछड़ी जातियां पूरी तरह भाजपा के साथ है।
दरअसल, उत्तर प्रदेश के गैर जाटव और गैर यादव दलित और पिछड़े किसी सामाजिक परिवर्तन के चलते भाजपा के साथ नहीं है। भाजपा को संवर्णों की पार्टी माना जाता है और आज भी प्रदेश में भाजपा पर संवर्णो का ही कब्जा है। फिर इन वर्गों का मत सपा-बसपा गठबंधन के पक्ष में क्यों नहीं गया। इसका अहम कारण सूबे में इन दोनों दलों की सरकारों के दौरान जाटवों और यादवों के अलावा अन्य दलित और पिछड़ों की उपेक्षा माना जाता है। जबकि प्रदेश और देश में सामाजिक संरचना में कोई बदलाव नहीं आया है। ऐसी खबरें आम है कि आज भी दलित समुदाय का दूल्हा घोड़े पर सवार नही हो सकता। गांव में आज भी दलित और पिछड़ों को नीच जाति का मान कर वैसा ही व्यवहार किया जाता है। जैसा की सदियों से प्रचलित है। ऐसे सामाजिक परिवेश में इन वर्गों का भाजपा से जुड़ना निश्चित ही अचंभित करता है।
इतना ही नहीं इस समुदाय के शिक्षित युवकों के सामने भी अंधिकार है। सरकारी नौकरियां है नही और निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान नहीं है। लोकसभा चुनाव में जातीय बंधन टूटने की मुख्य वजह केंद्र सरकार की नीतियां और योजनाएं बताई जा रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जातिगत आधार से हटकर गरीबों को मदद करने करने के लिए कुछ जरूरी योजनाएं शुरू की। प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्जवला योजना में गैस कनेक्शन, सौभाग्य योजना में मुफ्त बिजली कनेक्शन, स्वच्छ भारत मिशन योजना में शौचालय बनाने का पैसा और गरीब किसानों को सालाना 6000 रुपये को मुख्य आधार माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि इस योजना में जातिगत भावना से ऊपर उठकर सभी गरीबों को लाभ देने का काम किया गया।
ज़मीनी हकीकत इसके विपरित है। उज्जवला योजना की हकीकत यह है कि इस योजना के लाभार्थी आर्थिक आभाव के चलते आज भी इसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना पुरानी इंद्रा आवास योजना का परिवर्तित नाम है। लेकिन इनके बावजूद भाजपा को इस चुनाव में इन वर्गों का समर्थन मिला और इन वर्गों के मतों के बूते भाजपा करीब 50 फीसदी मत हासिल करने में सफल रही।
दरअसल, इस लोकसभा चुनाव में सरकारी योजनाओं से कहीं ज्यादा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने अहम भूमिका अदा की है। सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट हवाई हमले ने इस चुनाव में अहम भूमिका अदा की। सपा-बसपा से नाराज़गी और राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा इन वर्गों खासकर युवाओं को अपने साथ जोड़ने में सफल रही है। अब सवाल यह है कि क्या भाजपा आगे भी इन वर्गों को साथ रख सकेगी। जबकि वैचारिक तौर पर भाजपा और संघ इन वर्गों के विरोधी नज़र आते हैं। वह चाहें सामाजिक संरचना हो या फिर आरक्षण पर नज़रिया हो। लिहाजा इन वर्गों का देर सबेर भाजपा से मोहभंग होना तो तय है। पर सवाल यह है कि आखिर वह फिर किस दल के साथ जुड़ेंगे।
जहां तक सपा और बसपा का सवाल है। उसमें मायावती से तो कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि उन्होंने बहुजन आंदोलन को जाटवों तक सीमित कर दिया है। हां, अखिलेश यादव से ज़रूर उम्मीद की जा सकती। अखिलेश यादव ने 2012 के चुनाव से पहले ज़मीनी स्तर पर समाज के हर वर्ग को जोड़ने का सघन अभियान चलाया था और सपा की ऐतिहासिक जीत में अहम भूमिका अदा की थी। आज भी वह लोहिया और अंबेड़कर के सपने को साकार करने की बात कर रहे हैं। देखना यह है कि लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद वह अपनी इस सोच को ज़मीनी स्तर पर लागू करने के लिए क्या रणनीति अख्तियार करते हैं।