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(आशु सक्सेना) पिछले चुनाव की तरह 17वीं लोकसभा के चुनाव में भी नरेंद्र दामोदर मोदी ही केंद्रीय बिंदु बने हुए हैं। फर्क यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इस बार मोदी प्रधानमंत्री हैं। मोदी अपने दूसरे कार्यकाल के लिए जनादेश मांग रहे हैं। वहीं खंड़ित विपक्ष मोदी की विदाई के लिए जी जान से जुटा हुआ है। चुनाव से पहले राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष एकजुट नज़र नही आ रहा है। लेकिन राज्यों के स्तर पर भाजपा विरोधी दलों के मजबूत गठबंधन मोदी की दोबारा ताजपोशी में बांधा ज़रूर पैदा कर रहे हैं।

देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा अपने बूते पर 272 का जादुई आंकड़ा हासिल करती नज़र नही आ रही है। वहीं इस चुनाव में पीएम मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को भी जबरदस्त झटका लगने वाला है। 16 वीं लोकसभा के चुनाव में 44 सांसदों तक सिमटने वाली कांग्रेस की संख्या में हिजाफा होना भी लगभग तय है। अब सवाल यह है कि 17वीं लोकसभा के चुनाव नतीजों के बाद सरकार का गठन कैसे होगा और उस सरकार का नेतृत्व कौन करेगा।

दरअसल, 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान सूबे के मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी के भावी प्रधानमंत्री की चर्चा शुरू हुई थी। सूबे का यह चुनाव भाजपा खासकर सीएम मोदी के लिए बड़ी चुनौती था। मोदी तीसरी बार मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। मोदी ने 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री की कमान संभाली थी। 2002 में गोधरा कांड़ के बाद उन्होंने सूबे के पहले विधानसभा चुनाव का सामना किया था। इस चुनाव में भाजपा ने जबरदस्त जीत हासिल की। 182 सीट वाली विधानसभा में भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में 127 सीट जीतीं।

मोदी ने अगला चुनाव गुजरात के विकास मॉडल पर लड़ा था। पर इस चुनाव में मोदी को झटका लगा और वह घटकर 117 सीट पर आ गये थे। लिहाजा 2012 का चुनाव में मोदी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल था। सीएम मोदी को अहसास था कि खालिस सांप्रदायिक धुव्रीकरण और विकास मॉडल पर चुनावी वैतरणी पार करना संभव नही है। लिहाजा मोदी के रणनीतिकारों ने भावी प्रधानमंत्री मोदी का नारा हवा में उछाल दिया। उस वक्त लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने राज्य में चुनाव प्रचार के दौरान पत्रकारों के एक सवाल के जबाव में मोदी को अच्छा प्रशासक बताते हुए पीएम पद के लिए बेहतर पसंद बताकर इसे चुनावी मुद्दा बना दिया। चुनाव नतीजे तीसरी बार भी मोदी के पक्ष में गये। लेकिन इस बार भी मोदी जीत के आंकड़े को घटने से नही रोक सके। इस चुनाव में भी भाजपा को दो सीट का नुकसान हुआ था।

बहरहाल, इस चुनाव से मोदी का नाम भावी प्रधानमंत्री तौर पर चर्चा में आया। गोधरा कांड़ के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहे मोदी की छवि एक कट्टर हिंदुवादी नेता के रूप में बन चुकी थी। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा में नेतृत्व को लेकर असमंजस की स्थिति थी। ऐसे में मोदी की हिंदुवादी नेता की छवि ने पार्टी में उन्हें केंद्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका सौंपने पर गहन चिंतन शुरू हो गया। अंतत: 2013 में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने मोदी को अधिकृत रूप से पार्टी का पीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया।

प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी ने अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर की। मोदी चुनावी रैलियों में 60 साल बनाम 60 महीने का ज़िक्र करते हुए कांग्रेस के 60 साल के कुशासन और भ्रष्टाचार पर हमलावर होते थे। साथ ही पाकिस्तान से एक सैनिक के सिर की बदले दस सिर लाने की बात कह कर चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने में कामयाब रहते थे। अन्ना आंदोलन के बाद देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल था। कथित टूजी घोटाले चर्चा में थे। मोदी की जनसभाओं में अपार जनसमूह उमड़ रहा था। मोदी जादू 2014 के लोकसभा चुनाव में परिलक्षितं हुआ। देश में संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में कोई गैर कांग्रेसी राजनीतिक पार्टी पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रही। निश्चित तौर पर भाजपा की जीत का श्रेय मोदी को मिलना था।

भाजपा ने चौथी बार मोदी के नेतृत्व में केंद्रीय सत्ता की बागड़ोर संभाली। अपने बूते पर बहुमत के बावजूद भाजपा ने एनडीए के घटक दलों को सरकार में शामिल किया। लेकिन पिछले पांच साल में भाजपा के पुराने घटक दलों के साथ रिश्ते बेहतर नही रहे हैं। भाजपा के सबसे पुराने घटक शिवसेना इस दौरान सरकार में रहते हुए मोदी की आलोचक है। वहीं चंद्रबाबू नायडु की तेलगुदेशम पार्टी और असम गण परिषद जैसे क्षेत्रीय दल मोदी विरोध के चलते एनड़ीए से नाता तोड़ चुके हैं।

बहरहाल यहां यह ज़िक्र करना ज़रूरी है कि 2014 में पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद भाजपा का पहला गठबंधन धर्म का इम्तिहान महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में था। इस चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर भाजपा और शिवसेना का गठबंधन टूट गया। पीएम मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान सत्तारूढ़ कांग्रेस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ ही अपने घटक दल शिवसेना को भी जमकर निशाना बनाया। मोदी ने शिवसेना को हफ़्ताबासूल पार्टी बताते हुए मतदाताओं से इसे सबक सिखाने की अपील की थी। उसके बाद नाटकीय घटनाक्रम के चलते दोनों पार्टियां केंद्र और राज्य में सत्तासुख भोग रही हैं। लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता के मद्देनज़र दोनों दलों को मजबूरी में साथ आना पड़ा है।

महाराष्ट्र में कांग्रेस राकांपा गठबंधन तय हो चुका है। लिहाजा यहां भाजपा और शिवसेना साथ आये बगैर इस गठबंधन का मुकाबला करने की स्थिति में नही है। हालात की नज़ाकत को भांपते हुए भाजपा ने पिछले चुनाव की अपेक्षा शिवसेना को एक सीट ज्यादा देने और विधानसभा में बाराबर सीटों पर चुनाव लड़ने का करार कर लिया है। महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीट में से 23 भाजपा और 18 पर शिवसेना का कब्जा है। यहां भाजपा 25 और शिवसेना 23 सीट पर चुनाव लड़ने पर सहमत हुए हैं।

महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी भाजपा को अपने घटक दलों के सामने झुकना पड़ा है। बिहार की 40 लोकसभा सीट में से 22 सीट भाजपा के पास हैं। एनडीए में नीतीश कुमार की वापसी के बाद इस सूबे में भाजपा अब 17 सीट पर चुनाव लड़ रही है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में एनडीए के घटक दलों के बीच सीट बंटवारे की कवायद पूरी नही हो सकी है। इस सूबे की 80 लोकसभा सीट में से 71 भाजपा ने जीती थी। तीन उपचुनाव हारने के बाद यह संख्या 68 हो गई है। इस राज्य में भी घटक दलों के लिए भाजपा को घाटे का सौदा करना पड़ सकता है।

भाजपा की चुनावी रणनीति से यह साफ है कि वह यह मान कर चल रही है कि मोदी जादू के बूते इस बार चुनाव जीतना संभव नही है। लिहाजा घटक दलों का साथ जरूरी है। भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम अन्य बनाने की कोशिश की है। राष्ट्रवाद को पार्टी मुद्दा बनाने में सफल रही है। पुलवामा की आतंकी घटना में 40 जवानों की मौत के बाद पाक के बालाकोट में आतंकी शिवरों पर वायुसेना के हमले के बाद राष्ट्रवाद का मुद्दा गरमा गया है। पार्टी की कोशिश है कि राष्ट्रवाद के नाम पर सांप्रदायिक ध्रुव्रीकरण का लाभ पार्टी को मिल सके।

इसका कितना लाभ पार्टी को मिला, यह तो 23 मई को चुनाव नतीजों के बाद तय होगा। फिलहाल राज्य स्तर पर बन रहे भाजपा विरोधी गठबंधन से यह बात साफ है कि भाजपा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजराज, महाराष्ट्र और कर्नाटक की में पहले जैसा प्रदर्शन नही कर सके। इन आठ राज्यों की 333 सीट में से भाजपा के पास 222 सीट हैं। इन राज्यों में भाजपा को करारा झटका लगने की संभावना है। इन राज्यों में होने वाले घाटे की भरपाई करना भाजपा के लिए चिंता का विषय है।

2017 में गुजराज विधानसभा चुनाव नतीज़ों से यह साफ हो गया था कि पीएम मोदी की लोकप्रियता में जबरदस्त गिरावट आयी है। पीएम मोदी के अपने गृह राज्य में जीत के लिए डेरा डालने के बावजूद भाजपा 100 का आंकड़ा नहीं छू सकी थी। उसके बाद कांग्रेस शासित कर्नाटक और फिर छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा की हार मोदी की लोकप्रियता में आयी गिरावट का स्पष्ट संकेत है। ऐसे में मोदी के चेहरे और राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा के पूर्ण बहुमत हासिल करने की संभावना ना के बराबर नज़र आ रही है।

17 वीं लोकसभा त्रिशंकु रहने की स्थिति में दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा को बहुमत के आंकड़े के लिए क्षेत्रीय दलों पर निर्भर होना होगा। ऐसे हालात में कोई भी राजनीतिक दल बिना सहयोगी दलों की सहमति के अपना पीएम उम्मीदवार तय नही कर सकता। संभव है कि इस बार भी भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरे। लेकिन मोदी के नाम पर बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल करने में उसे दिक्कत आ सकती है। वहीं कांग्रेस के बहुमत से दूर रहने की स्थिति में भाजपा विरोधी सभी विपक्षी दलों का उसे समर्थन हासिल होगा, इस पर भी सवालिया निशान है।

ऐसे में फिलहाल यह कहा जा सकता है कि अगला पीएम चुनाव नतीजों के बाद ही तय होगा। कर्नाटक में गैर भाजपा सरकार के गठन की तर्ज पर केंद्र में 1996 की तरह एक बार फिर गैर कांग्रेस गैर भाजपा दलों के किसी संभावित मोर्चे की सरकार कांग्रेस के समर्थन से अस्तित्व में आये। इस सरकार की स्थिरता कांग्रेस के रूख पर तय करेगी। कांग्रेस ने अगर इस बार भी सत्ता मोह में फिर किसी गैर भाजपा सरकार से समर्थन वापस लेकर देश पर मध्यावधि चुनाव थौपा, तो कांग्रेस का पतन और भाजपा की सत्ता में वापसी सुनिश्चित हो जाएगी।

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