(आशु सक्सेना) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के 100 वें वर्ष की ओर अग्रसर है। आरएसएस की स्थापना विजयदशमी के दिन 1925 में हुई थी। सही मायनों में इस संगठन का अंकुर 1920 में रोपा गया था, जो 1925 में एक पौधें की शक्ल में सामने आया था। अगर पिछले 100 साल के इतिहास पर नज़र डालें, तों ब्रिटिश भारत में हिंदु मुसलिम दंगों की शुरूआत 1920 में 'खिलाफत आंदोलन' के बाद व्यापक स्तर पर फैलना इतिहास के पन्नों में दर्ज है। दरअसल, यूं कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार पर एक लंबी लकीर खिंच चुकी थी। जिसका परिणाम 'भारत का धार्मिक आधार' पर विभाजित होकर अस्तित्व में आना था। विभाजन के वक्त भारत और पाकिस्तान अस्तित्व में आये। इन सौ सालों में अब यह तीन देश बन चुके हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के 95 वें साल पूरे होने पर नागपुर के रेशमीबाग में संघ के विजयदशमी उत्सव में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि संघ अपने इस नजरिये पर अडिग है “भारत एक हिंदू राष्ट्र” है। विजयदशमी के मौके पर अपने संबोधन में सरसंघचालक ने कहा कि राष्ट्र के वैभव और शांति के लिये काम कर रहे सभी भारतीय “हिंदू” हैं।
संघ प्रमुख के बयान को अगर देश की राजनीति के परिपेक्ष्य में देखें, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के 95वें साल जश्न के मौके पर आरएसएस और मोदी सरकार ने स्पष्ट संकेत दिया है कि 2024 का चुनाव “भारत-हिंदुस्तान, हिंदू राष्ट्र है” के मुद्दे पर लड़ा जाएगा।
इस बार भी विजयदशमी पर संघ मुख्यालय में आयोजित उत्सव में परंपरा के मुताबिक संघ प्रमुख ने ‘शस्त्र पूजा’ की। इस मौके पर एचसीएल के संस्थापक शिव नाडर मुख्य अतिथि थे। कार्यक्रम में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी, जनरल (सेवानिवृत्त) वी के सिंह और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस भी मौजूद थे। उधर, विजयदशमी पर लड़ाकू विमान राफेल की खरीद को मोदी सरकार ने इस ‘शस्त्र पूजा’ की परंपरा निर्वहन से जोड़कर साफ संकेत दिया है कि वह संघ की परंपरा का खुला समर्थन करती है।
बहरहाल, संघ के आज़ादी से पहले के इतिहास पर लिखने का यह मौका नही है। लिहाजा ब्रिटिश भारत से आज़ाद भारत बनने के बाद के सफर पर एक नज़र डालते हैं। 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्ति मिली। देश निर्माण की बागड़ोर भारत के लोगों पर आ गई। भारत में पहली सरकार का गठन हुआ। इस सरकार के कार्यकाल में एक लोकतांत्रिक देश स्थापना का संविधान लिखा गया। संविधान सभा की बहस पारदर्शी थी। 1950 में इस सरकार ने इस संविधान को अंगीकार किया। आज़ाद भारत में निर्वाचन प्रक्रिया की शुरूआत 1952 हुई।
दिलचस्प पहलू यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध करने वाले संघ ने चुनावी राजनीति में अपना दखल पेश किया। संघ से संबद्ध भारतीय जनसंघ ने इस पहले चुनाव में शिरकत की। जनसंघ ने यह चुनाव अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर लड़ा था। जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संविधान के अनुच्छेद 370 का विरोध करते हुए ही परमिट के बगैर जम्मू कश्मीर में प्रवेश करने की कोशिश की थी और राज्य में गिरफ्तार किया गया था। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरूआत अनुच्छेद 370 के अधिकांश प्रावधानों के खत्म करने के साथ हुई है।
यह बात दीगर है कि 70 साल पहले के राजनैतिक हालात में यह आज की तरह इतना आसान नही था। यहां यह कहने में कुछ गलत नही होगा कि 70 साल बाद लिए गये फैसले के बाद के हालात बताते है कि उस वक्त 'प्रजा' के विरोध को भारत की कोई सरकार शांतिपूर्ण तरीके से नही सुलझा सकती थी। बहरहाल, 1952 के पहले चुनाव में भारतीय जनसंघ ने 3 सीट जीतीं थीं। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा या दूसरे शब्दों में संघ ने यह संख्या 303 तक पहुंचा दी है।
निश्चित ही आज़ाद भारत में संघ की यात्रा पर नज़र डालें, तो हिंदू राष्ट्र ही अब एजेंड़े में बाकी नज़र आ रहा है। बहरहाल, केंद्र की मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के बाद पहली 'विजयदशमी' पर संघ प्रमुख का भाषण और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की शस्त्र पूजा के बाद राजनीतिक परिदृश्य बहुत साफ है कि 'हिंदू राष्ट्र' की स्थापना के साथ आरएसएस अपना 100 वां साल बनाना चाहेगा।
आज़ादी के बाद संघ के राजनीतिक इतिहास पर नज़र डालें, तो संघ को पहली सफलता 1967 के लोकसभा चुनाव में मिली थी। इस चुनाव में भारतीय जनसंघ ने 35 सीट जीतीं। पार्टी अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय ने गौरक्षा के मुद्दे को जोरशोर से उठाया था। संघ की सबसे बड़ी सफलता 1977 मानी जा सकती है। उसने संघ की स्थापना के 50वें साल में देश की पहली गैर कांग्रेस सरकार में शिरकत करने का गौरव हासिल किया था। देश की पहली गैर कांग्रेस सरकार के पतन के कारणों पर कभी बाद में बात करेंगे। फिलहाल संघ के एजेंड़े और उसकी कामयाबी की बात हो रही है।
दरअसल, 1977 में भारतीय जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के बाद जनसंघ का अस्तित्व खत्म हो चुका था। लिहाजा संघ के संरक्षण में 1980 में भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आयी। भाजपा 1980 और 1984 के लोकसभा चुनाव में देश के राजनीतिक घटनाक्रम के चलते ज्यादा कामयाब नही हो सकी। 1989 का लोकसभा चुनाव भाजपा के उदय में रामवाण साबित हुआ। बोफोर्स भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़े गये लोकसभा चुनाव में 'जनतादल' ने अहम भूमिका निभाई थी। जद का नेतृत्व कर रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस विरोधी गठबंधन को एक नई दिशा दी।
इस चुनाव में वीपी सिंह ने वामपंथी और दक्षिण पंथी दोनों विचारधाराओं के साथ हाथ मिलाया। उन्होंने लोकसभा चुनाव में भाजपा और वामपंथी दलों के साथ चुनावी तालमेल किया। यह बात दीगर है कि वीपी सिंह ने चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के साथ मंच साझा नही किया। इस चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा हुआ था। भाजपा पहली बार 88 सांसदों का आंकड़ा हासिल करने में सफल हुई थी। भाजपा के 88 और वामपंथियों के 55 सांसदों के समर्थन से 142 सांसदों की पार्टी जनतादल के नेता वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री बनें। उन्होंने 'राष्ट्रीय मोर्चा' सरकार का गठन किया।
राममंदिर मुद्दे पर वीपी सिंह सरकार का पतन हुआ था। देश में दूसरी बार हुए मध्यावधि चुनाव के बाद 'राम मंदिर' मुद्दे पर भाजपा को खासी सफलता मिली। पार्टी ने 1991 के लोकसभा चुनाव में सौ का आंकड़ा पार करके 120 सांसदों की पार्टी हो गई। लोकसभा में पहली बार नेता प्रतिपक्ष का पद भाजपा ने हासिल किया। अटल बिहारी बाजपेयी नेता प्रतिपक्ष बने। कांग्रेस की अल्पमत सरकार ने पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में अपना कार्यकाल पूरा किया।
1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पहली बार 162 सांसदो वाली सबसे बड़ी पार्टी बनी। चुनाव के बाद अटल बिहारी बाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। यह सरकार 13 दिन बाद गिर गई। उसके बाद देश को दो मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। 1998 में अटल बिहारी बाजपेयी की 13 महिने की सरकार के पतन के बाद हुए मध्यावधि चुनाव के बाद अभी तक देश को मध्यावधि चुनाव का सामना नही करना पड़ा है।
पार्टी ने अपने पहले चुनावी वादे 370 के अधिकांश प्रावधानों को खत्म करके पूरा कर दिया है। राममंदिर निर्माण का मामला भी अब अपने अंतिम पड़ाव पर नज़र आ रहा है। सुप्रीम कोर्ट दिपावली से पहले इस विवाद पर सुनवाई को पूरा करके फैसला सुरक्षित रखना चाहता है। शीर्ष अदालत ने 17 अक्टूबर तक सभी पक्षकारों से बहस पूरी करने की बात कही है। सीजेआई 17 नवंबर का सेवानिवृत होने वाले हैं। वह उससे पहले इस मामले में फैसला सुना देना चाहते हैं।
लिहाजा अब संघ के सामने एकमात्र एजेंड़ा हिंदू राष्ट्र की स्थापना है। देश के राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र डालें तो 'राष्ट्रीयता' के मुद्दे पर संघ और भाजपा दोनों सफल हुए हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव 'राष्ट्रीयता' के मुद्दे पर लड़ा गया। इस चुनाव में 'राष्ट्रीयता' के मुद्दे पर सभी हिंदूओं की गोलबंदी नज़र आयी। उसमें संवर्ण, पिछड़े और दलित सभी शामिल हैं। दरअसल, यह 'राष्ट्रवाद' संघ के हिंदू मुसलिम एजेंड़े अनुरूप था। दूसरे शब्दों में हमारे सबसे बड़े शत्रु देश पाकिस्तान के खिलाफ था। लिहाजा सभी वर्ण के हिंदूओं की भागीदारी सुनिश्चित होना लाजमी था।
संघ का अगला लक्ष्य 'राष्ट्रीयता' से 'हिंदू राष्ट्र' की ओर जाना है। अब सवाल यह है कि इस लक्ष्य को हासिल करने में क्या संघ के सामने दिक्कत आयेंगी। हिंदू वर्ण व्यवस्था क्या एक बार फिर हिंदूओं में विखराव को अंजाम तो नही देगा? ब्रिटिश भारत में हिंदू वर्ण व्यवस्था को लेकर पहली बार सबसे बड़ी दिक्कत 1932 में सामने आयी। दलितों ने पूना पेक्ट के साथ कुछ अधिकार हासिल किये थे। जिसके तहत 1935 में दलितों को आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने का अधिकार हासिल हुआ था। जो आज भी बतस्तूर कायम है।
इस साल विजयदशमी के दिन संघ की स्थापना के 95वें साल के जश्न के मौके पर संघ प्रमुख ने कहा, “संघ की अपने राष्ट्र की पहचान के बारे में, हम सबकी सामूहिक पहचान के बारे में, हमारे देश के स्वभाव की पहचान के बारे में स्पष्ट दृष्टि व घोषणा है, वह सुविचारित व अडिग है, कि भारत हिंदुस्तान, हिंदू राष्ट्र है।” भागवत ने कहा, “जो भारत के हैं, जो भारतीय पूर्वजों के वंशज हैं तथा सभी विविधताओं का स्वीकार, सम्मान व स्वागत करते हुए आपस में मिलजुल कर देश का वैभव तथा मानवता में शांति बढ़ाने का काम करने में जुट जाते हैं। वे सभी भारतीय हिंदू हैं।”
संघ प्रमुख ने इस मौके पर मॉव लिंचिंग पर भी अपने विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि इसके लिए संघ को दोषी नही ठहराना चाहिए। पिछले दिनों देखने में आया है कि गौरक्षा के नाम पर पीट पीट कर हत्या की घटनाओं को अंजाम दिया गया है। लेकिन पीट पीट कर हत्या की प्रवृत्ति सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नही है। कई घटनाओं में इसके शिकार हिंदू भी हुए है।
बहरहाल, जहां तक हिंदूओं में सामाजिक समरसता का सवाल है। तो आज भी दलितों के साथ अन्याय की घटनाऐं आये दिन सामने आती रहती है। कई शिक्षित दलित युवक युवतियां इस सामाजिक बुराई से प्रताडित होकर आत्महत्या कर चुके हैं। ऐसे में संघ की 'हिंदू राष्ट्र' की परिकल्पना परवान चढ़ सकेगी। इस पर संदेह होना लाजमी है। वह भी तक जब केंद्र की मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर लगातार विफल हो रही है और युवा वर्ग खुद को ठगा महसूस कर रहा है।