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(आशु सक्सेना) समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को हरी झंडी दिखा दी है। मुलायम सिंह का कहना है कि भगवा पार्टी को चुनौती देने के लिए इस गठबंधन को मजबूती प्रदान करना वक्त की जरूरत है। उन्होंने कहा कि पार्टी के संगठन को मजबूत करना होगा। सभी को साथ लेकर चलना होगा। उ​न्होंने कहा युवाओं को अभी से 2022 के चुनाव की तैयारी में जुट जाना होगा। घटक दलों के बीच ज़मीन पर तालमेल नजर आना चाहिए।

दरअसल, समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने बहुजन समाज पार्टी से दोस्ती की आधारशिला 1991 के लोकसभा चुनाव में रखी थी। जो 1993 में सपा-बसपा गठबंधन की शक्ल में सामने आयी थी। इस चुनाव में मुलामय सिंह यादव ने अपने गृह जिले की इटावा संसदीय सीट से बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार कांशीराम का समर्थन किया था। कई चुनाव हारने के बाद इटावा से कांशीराम निर्वाचित हुए थे। उस वक्त पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी 'सजपा' कें बैनरतले मुलायम सिंह यादव लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे। लोकसभा में सजपा के चार सदस्य थे। जबकि 34 विधायक भी जीते थे।

1991 में उत्तर प्रदेश में भागवा लहराया था। भाजपा 425 सदस्यों की विधानसभा में 221 विधायकों के पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई थी। 6 दिसंबर 1992 के दिन अयोध्या में बावरी विध्वंस के बाद सूबे की भाजपा की कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त करके के राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।

केंद्र की पीवी नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रपति शासन में 1993 के विधानसभा चुनाव हुए। सूबे के मघ्यवधि चुनाव में 1992 मे गठित समाजवादी पार्टी और 1984 में स्थापित बहुजन समाज पार्टी ने भाजपा को रोकने के लक्ष्य के तहत गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरे। मंदिर आंदोलन के चरम पर सूबे में मंडल समर्थक आपने सामने थे। इस ऐतिहासिक चुनाव में मुलायम सिंह यादव नेता बन कर उभरे। 12 सदस्यों वाली बसपा 67 सीट जीती और सपा ने 109 सीट जीत कर 176 सीटों पर कब्जा किया था।

गठबंधन बहुमत के आंकड़े से पीछे था। लेकिन भाजपा भी बहुमत से बहुत पीछे मात्र 177 सीट पर सिमट गई थी। जनता दल अध्यक्ष विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पार्टी के 27 विधायकों के समर्थन की चिठ्ठी राज्यपाल को सौंप दी थी। वामपंथियों और निर्दल विधायकों के समर्थन से मुलायम सिंह के नेतृत्व मं सपा-बसपा गठबंधन सरकार सूबे की सत्ता पर काबिज हुई। लेकिन यह गठबंधन अपना कार्यकाल पूरा नही कर पाया। लखनऊ के विवादास्पद गेस्ट हाउस कांड़ के बाद दोनों पार्टियों के रास्ते जुदा हो गये। ]

मुलायम सिंह अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा नही कर सके। लेकिन सूबे की राजनीति में एक नया गठबंधन सामने आता है। सूबे में पहली मायावती ने भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन यह गठबंधन अंतर विरोधों के ज्यादा दिन नही चल सका। 1996 मे सूबे ने एक बार फिर मध्यावधि चुनाव का सामना किया। त्रिशंकु विधानसभा में एकबार फिर भाजपा तीन विधायकों के घाटे के साथ 174 सीट जीत कर सबसे बड़ी पार्टी थी। मुलायम सिंह यादव 110 सीट के साथ प्रमुख विपक्षी पार्टी बन कर उभरे। जबकि बसपा 67 सीट के साथ तीसरे स्थान पर बरकरार थी। भाजपा के समर्थन मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी। लेकिन इस बार भी वह ज्यादा दिन तक सत्ता सुख नही भोग सकी। मायावती सरकार के पतन के बाद भाजपा ने जोड़तोड़ से सत्ता हासिल करके इस बार सूबे को मध्यावधि चुनाव से बचा दिया था।

2002 के विधानसभा चुनाव के बाद एक बार फिर त्रिशंकु विधानसभा उभरी। इस चुनाव में भगवा पार्टी को जबरदस्त झटका लगा था। भाजपा मात्र 88 सीट पर सिमट गई थी। लेकिन इस चुनाव में सपा और बसपा दोनों दलों की ताकत बढ़ी थी। सपा 143 सीट के साथ सबसे बड़ा दल बन कर उभरी। बीएसपी 98 सीट जीत कर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। किसी भी दल की सरकार न बनने की स्थिति में विधानसभा को निलंबित कर दिया गया। इस बीच मुलायम सिंह यादव 2003 मे जोड़तोड़ से तीसरी बार सत्ता पर काबिज हुए। यह मुलायम सिंह का सबसे लम्बा कार्यकाल रहा।

2007 के विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव को करारा झटका लगा। इस चुनाव में बसपा अपने बूते पर पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रही। सपा मात्र 97 सीट पर सिमट गया। भाजपा 51 सीट के साथ तीसरे स्थान पर रही। इस दौरान सपा ने सूबे में प्रमुख विपक्ष की भूमिका निभाई थी।

सपा सांसद एवं प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सूबे में साइकिल यात्रा करके गांव गांव तक जनसमर्पक किया। इस चुनाव सांसद अखिलेश यादव पार्टी में जुझारू युवा नेता बनकर उभरे थे। अपने सौम्य अंदाज के चलते उन्होंने सवर्णों में भी पार्टी की पैठ बनाई थी। 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने इतिहास रचा और 224 का आंकड़ा छूआ। वहीं बसपा 80 और भाजपा 47 सीट पर सिमट गये थे। 2017 के विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी ने अपने आक्रामक अंदाज में शमशान और कब्रिस्तान को चुनाव मुद्दा बनाया था। इस चुनाव में भाजपा की आंधी चली और वह 312 सीट जीती। यह चुनाव सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके लड़ा था। इस गठबंधन को मतदाताओं ने बुरी खारिज कर दिया। सपा 47 सीट के साथ नेता प्रतिपक्ष का पद बचाने में सफल रही, वहीं कांग्रेस 7 सीट पर सिमट कर रह गई। सपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में तमाम गिले शिकवे भूल कर बसपा के साथ गठबंधन किया। अखिलेश यादव ने भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन को मजबूत करने के लिए एक कदम पीछे रहने में भी गुरेज नही किया।

समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव की हार बारिकी से पड़ताल शुरू कर दी है। 'आजमगढ़' से सांसद चुने गये सपा अध्यक्ष अखिलेश इन दिनों लखनऊ में जिला, तहसील, ब्लाक और ग्राम प्रधान स्तर के नेताओं से मुलाकात करके उन कारणों का चिंहित कर रहे हैं, जिनके चलते सामाजिक बदलाव के उनके प्रयास को झटका लगा है। अखिलेश सामाजिक न्याय के अपने अखिलेश का मानना है कि समाजवादियों ने सत्ता में रहते हुए विकास की दृष्टि से सूबे को तेज गति प्रदान की है। लिहाजा विकास के मूल्यांकन में समाजवादी सरकार का सवाल है उसमें हमारी सरकार को पूरे नंबर मिलने चाहिए। हमारी सरकार से पहले तो सूबे का विकास पूरी तरह थमा हुआ था, 1989 के बाद तो सूबे में 2012 में पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज होने के समय तक तो विकास पूरी तरह थम चुका था।

इस दौरान सत्ता पर काबिज सरकारें अपना अस्तित्व बचाने की जोड़तोड़ में लगी रही। हां, इस दौरान नेताजी के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार एक बार सत्ता पर काबिज हुई थी, समाजवादियों की उस पारी को भी विकास के लिहाज से पीछे नही आंका जा सकता। उस सरकार ने ग्राम स्तर तक समस्यों के निस्तारण के लिए काम किया था। समाज के हर वर्ग के कल्याण के लिए योजनाएं शुरू की। सूबे में आधारभूत ढ़ांचे को खड़ा करने की दिशा में तेजी से काम किया। संपर्क मार्ग बनाने का काम नेताजी की सरकार के कार्यकाल में ही शुरू हुआ था। दोनों ही समाजवादी सरकारों ने ग्रामीण स्तर तक खुशहाली लाने का काम किया था।

सामाजिक न्याय की लड़ाई की दिशा में 1993 में 'बहुजन' को जोड़ने के जिस आंदोलन की अगुवाई की थी, वह आंदोलन तमाम आपसी मतभेदों को भूलते हुए पुन:जीवित किया गया। फिर चुनावी गणित में यह क्यों नाकामयाब हो गया। वह कौन से कारण रहे, जो इन वर्गों की रोजी रोटी की लड़ाई से ज्यादा अहम हो गये। सामाजिक न्याय की इस लड़ाई में परिवार के तीन लोग शहीद हो गये। बहरहाल अखिलेश ने नये सिरे से प्रदेश और देश में संगठन को मजबूत करने की रणनीति को अंजाम देना शुरू कर दिया है।

दरअसल, सपा के संस्थापक राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंंह यादव सूबे के ऐसे नेता हैं, जिन्होेंने 1989 के चुनावों में सूबे में भगवा पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोला था। बाबरी आंदोलन चरम पर उस वक्त सूबे के मुख्यमंत्री की हैसियत से आंदोलनकारियों पर गोली चलवाई थी। उन्हें 'मुल्ला मुलायम' कहा गया। गोली चलवाने के अपने फैसले को वह आज भी जायज़ ठहराते हैं। उनका मानना है कि सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की किसी भी कोशिश के रोकने के लिए सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।

बहरहाल, केंंद्र में वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के पतन के बाद मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने जनतादल के विभाजन के बाद प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के समाजवादी जनता पार्टी से राजनीति की दूसरी पारी शुरू की। 1992 में उन्होंने समाजवादी पार्टी का गठन किया और 1993 के विधानसभा चुनाव में काशीराम से सीटों का बंटवारा करके चुनाव लड़ा। सपा बसपा गठबंधन सरकार का गठन हुआ और मुलायम सिंह यादव ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। बसपा महासचिव मायावती से व्यक्तित्व के टकराव के चलते गेस्ट हाउस कांड़ बाद इस सरकार का पतन हो गया। बसपा सुप्रीमो काशीराम ने मुलायम सिंह सरकार समर्थन वापसी की चिठ्ठी राज्यपाल को सौंप दी थी।

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