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(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो! नीरज जी भाई साहब ओशो से बहुत ही प्रभावित थे। ओशो को पढ़ते भी थे और उनकी बोलचाल में भी ओशो का ही दर्शन झलकता था। इधर, हम भी ओशो को बहुत ही पसंद करते थे। हमने ओशो का बहुत सारा साहित्य खोज खोज कर पढ़ा था। एक यह भी कारण था, भाई साहब से हमारी नज़दीकी का। पर हमने ओशो के साथ साथ उपनिषद ए रमण महिर्ष ए जे ण् कृष्ण मूर्ति आदि को भी पढ़ा था। एक बार ओशो की एक पुस्तक में हमने पढ़ा कि शिष्य तो अंधा होता है, तो वो गुरू को कैसे पहचान सकता है? गुरू जागृत है, गुरू शिष्य को पहचान लेंगे। जब भी शिष्य की आध्यात्मिक प्यास चरम पर होगी, गुरू या तो शिष्य को अपने पास बुला लेंगे या वो ख़ुद शिष्य के पास पहुंच जाएंगे। बस उस दिन से हमने अपने मन में ये ठान ली कि यदि तुम सच्चे गुरू हो, तो या तो हमारे पास आओ या हमें बुलाओ।

हमने ये बात भाई साहब को भी बता दी थी। एक और बात ओशो की एक और पुस्तक है, 'कहे कबीर दीवाना' इसकी भूमिका बिहार के जनवादी समीक्षक आरसी प्रसाद सिंह ने लिखी है।

(सुरेन्द्र सुकुमार): कभी कभी हम भाई साहब से लड़ बैठते थे लड़ाई भी क्या बस छोटी-छोटी बातों पर और हम उनसे बोलना बंद कर देते थे। उनके घर भी नहीं जाते थे, कुछ दिनों बाद वो अपनी स्कूटी से ख़ुद ही घर आ जाते थे और कहते, अब तक गुस्सा है? अरे भाई बात ख़त्म हो गई लाओ एक पैग बनाओ और हम लोग पीने बैठ जाते, फिर वही पुराना ढर्रा... पैसे से अत्यधिक जुड़े होने के तो अजीब से उदाहरण हैं। जैसे उनका फोन आता, ‘सुरेन्द्र मुरादाबाद चल रहे हो क्या?‘ हम कहते, 'हाँ'... 'हमारे साथ टैक्सी से चलो?'... 'ठीक है चले चलेंगे'... ‘पर टैक्सी का किराया शेयर करना पड़ेगा?‘ 'नहीं भाई साहब, हम तो बस से ही ठीक हैं।' 'अच्छा बस का किराया तो दोगे?'...'वो दे देंगे।'

ऐसे ही एक बार मुरादाबाद जाते समय हुआ मुरादाबाद गए कवि सम्मेलन संपन्न हो गया। हमने यह सोच कर पैसे नहीं दिए कि घर चल कर दे देंगे पर उन्हें चैन नहीं पड़ रहा था। सुबह वापस आने पर दोपहर एक ढाबे पर खाना खाने के लिए रुके। खाने को आर्डर देकर बोले, 'सुरेन्द्र वो देखो सामने शराब की दुकान है, एक अद्धा ले आओ'... जैसे ही हम अद्धा लेकर आते, अद्धा हाथ में पकड़ कर बच्चों की तरह चहक गए।

(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो ! दीपावली पर तो जैसे आनंद ही दोगुना हो जाता था। दीपावली के तीन चार दिन नीरज जी के घर में बहुत चहल पहल रहती थी। शाम को ही सब लोग जमा हो जाते थे। हम, आँधीवाल, शहरयार, मित्तल साहब, सुरेश कुमार, और और नीरज जी के छोटे भाई दामोदर भाई साहब और भाई साहब के एकमात्र पुत्र मिलन प्रभात, जिन्हें घर में सब लोग गूँजन कहते हैं। और कभी कभी सीनियर आईएएस पण्डिता जी लखनऊ से आ जाया करते थे, उन दिनों शराब पर कोई प्रतिबंध नहीं होता था। कितनी भी पियो... मीट बनता था... शाम से ही हम सब लोग फ्लैश खेलने बैठ जाते थे। शहरयार साहब हमेशा ही हारते थे। वो ब्लाइंड बहुत खेलते थे।

पूरी रात फ्लैश होती रहती थी। हम क्योंकि ब्लफ खेलते थे, इसलिए हमेशा जीतते थे। नीरज जी भाई साहब और उनके भाई दामोदर भाई साहब भी थोड़ा बहुत जीतते थे क्योंकि ये लोग बहुत ही संभल कर खेलते थे। जब अच्छे ताश आते थे तभी खेलते थे। रात भर सिगरेट बीड़ी शराब के दौर चलते रहते थे... सुबह अपने अपने घर चले जाते थे। शाम को फिर जमा हो जाते थे।

(सुरेन्द्र सुकुमार) प्रातःवंदन मित्रो ! भाई साहब के अंदर बेचैनी बहुत ज्यादा थी। इसीलिए हमने उनका नाम बेचैनदास चंचल रख दिया था। जैसे कि हम स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं और ट्रेन लेट है.... तो उन्हें चैन नहीं पड़ता था। बार बार कहते ‘सुरेन्द्र जाओ जरा इंक्वायरी पर पूछ कर आओ कि ट्रेन कब तक आ रही है?‘ हम कहते, ‘भाई साहब अभी तो पूछ कर आए हैं।‘ ‘तो क्या हुआ एक बार और पूछ आओ।‘ हम इधर उधर घूम कर आ जाते और बता देते थोड़ी देर बाद फिर कहते जाओ जरा पूछ कर आओ। हम कहते, ‘भाई साहब अभी अभी तो पूछा था।‘ ष्ठीक है मत जाओ मैं ही पूछ कर आता हूँ और ख़ुद चले जाते जब तक ट्रेन नहीं आ जाती तब तक यही क्रम रहता था। ट्रेन में भी जब तक कंडक्टर नहीं आ जाता तब तक बेचैनी अधिकतर कंडक्टर उन्हें जानते ही थे।

एक विशेष बात यह थी शायद आप लोगों को पसंद न आए पर यह सच है कि जो भी महिला भाई साहब के निकट सम्बंध में होती थीं, वो उनका सम्मान क़तई नहीं करती थीं, बल्कि अपमान की सीमा तक पार कर जाती थीं। इसका सही कारण हम आज तक नहीं समझ पाए पर अनुमान लगा कर कह सकते हैं कि वो शायद कुछ ज्यादा ही खुल जाते थे।

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