(अनिल शुक्ल) रंगशिल्पी बंसी कौल की असामयिक विदाई अकेले हिंदी रंगकर्म के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय डिज़ाइन कला के लिए भी गहरे सदमे का सबब है। वह जैसे शानदार रंग निर्देशक थे, वैसे ही अद्भुत कला निर्देशक भी। बी वी कारंथ के बाद वह इब्राहिम अल्काज़ी के दूसरे ऐसे शिष्य थे जिन्होंने अपने गुरु के हिंदी रंगकर्म की पाश्चात्य पेंचबंदी को तोड़ कर हिंदी रंगकर्म को उसकी मिट्टी से रचने की पहल की।
कश्मीर में जन्मे और वहाँ पढ़ने-लिखने के बाद सिनेमा पोस्टर के पेंटर के तौर पर अपना कलागत जीवन शुरू करने वाले बंसी विशाल दरख़्तों से लबरेज़ कुदरती सीनरी के चित्रांकन में महारथ हासिल करते-करते कैसे 'नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा' में दाखिला पा गए, इसे सोच कर वह ख़ुद भी हैरान होते रहे हैं। 'स्कूल' में 3 साल की पढ़ाई और 'स्टेज क्राफ्ट' में विशेषज्ञता हासिल करने के बाद जब वह वहाँ से निकले तो बी वी कारंथ की तर्ज़ पर उन्होंने भी हिंदी रंग पट्टी को अपनी कर्मभूमि बनाया। उन्हीं की तरह वह भी शुरुआती दौर में अवध की सरज़मीं पर कूदे। आगे चलकर कारंथ ने भोपाल और मालवा को मध्यांतर कर्म के रूप में चुना तो बंसी के लिए यही उर्वरा धरती उनका मध्यांतर रही।
परंपरागत नाटक और लोक नाट्य कलाएँ उनके 'लर्निंग स्किल' को हमेशा चेताती रहीं। यूपी की नौटंकी से लेकर मालवा के माच का उन्होंने न सिर्फ़ गहन अध्ययन किया, बल्कि उनके लोक तत्वों को अपनी आधुनिक रंग प्रस्तुतियों में शामिल भी किया। कुश्ती, एक्रोबैट और कबड्डी सरीके परंपरागत भारतीय खेल उनके 'भड़कीले' और 'चकाचौंध' पैदा करने वाले नाटकों के हिस्सेदार बनते चले गए। उन्होंने सर्कस और उसके जोकर को भी अपनी रंग परम्परा का ज़रूरी भागीदार बनाया।
70 का दशक हिंदी पट्टी में आधुनिक नाटकों के प्रसार का स्वर्णिम युग था। रंग परिकल्पनाकार होने के साथ-साथ बंसी कौल एक शानदार रंग शिक्षक भी थे। यूपी और एमपी के छोटे-छोटे शहरों में घूम-घूम कर नौजवान बंसी ने 'थियेटर वर्कशॉप' के बेहिसाब तम्बू गाड़े। ये 'वर्कशॉप' वस्तुतः ऐसे 'लेबर रूम' साबित हुए जिन्होंने न सिर्फ़ नए-नकोरे असंख्य अभिनेताओं को प्रसव दिया बल्कि वो अनगिनत ऐसे नौजवान निर्देशकों की जन्मभूमि बन कर उभरे जो आने वाले दशकों में अपने-अपने अंचल में रंगकर्म की ज्योत जलाते रहे। उनके ऐसे शिष्यों में एक मैं भी हूँ।
बंसी कौल से मेरी पहली मुलाक़ात जुलाई सन 1976 में हुई। 'भारतेन्दु नाट्य केंद्र' (अब भारतेन्दु नाट्य अकादमी) द्वारा आगरा में आयोजित 3 माह की एक 'थिएटर वर्कशॉप' के डायरेक्टर के बतौर वह आवेदनकर्ता के रूप में मेरा इंटरव्यू ले रहे थे। ख़ासे ऊँच-नीच सवालों की बाड़ कूदते-फ़ांदते आख़िरकार मैं दाखिला के योग्य मान लिया गया। मैं उन दिनों स्नातक कक्षाओं का छात्र था। कोई 35 प्रशिक्षणार्थियों के साथ शुरू हुई इस कार्यशाला में शुरुआत में बंसी कौल हम सबको बड़े सख़्त निर्देशक लगे। कुछ दिनों के भीतर ही प्रशिक्षण लेने वाले वर्कशॉप के उन एक तिहाई लड़के-लड़कियों के साथ उनके रिश्ते बड़े सहज हो गए जिन्हें वह गंभीर मानने लग गए थे। सौभाग्य से मैं भी इन्हीं 'गंभीर' में शामिल था।
इंदिरा गाँधी का आपातकाल अपने चरम पर था। बंसी को इससे बड़ी चिढ़ थी। आगे चलकर उनके साथ मेरी यारी विकसित होने की शायद यही मूल वजह बनी। लोकतंत्र की इस प्रकार हत्या किए जाने के हम दोनों सख़्त विरोधी थे।
वर्कशॉप अपराह्न से प्रारम्भ होती लेकिन हम लोग अक्सर सुबह ही मिलते। कभी मैं उनके ठिकाने पर पहुँच जाता, कभी वह मेरे घर आ धमकते। फिर हम पैदल-पैदल आगरा को नापते। कभी इस कोने से उस कोने तक तो कभी उस कोने से इस कोने तक।
रंगमंच को लेकर उन दिनों मेरे अबोध मन के भीतर असंख्य सवाल उमड़ते-घुमड़ते रहते थे। बंसी कौल के पास उनमें से ज़्यादातर के जवाब होते। मेरी राजनीतिक चेतना और संवेदना उन्हें बड़ा सुक़ून देती। रंगमंच के अलावा हमारे बीच सियासत पर ढेरों चर्चा होती। उनका मानना था कि बिना सामाजिक-राजनीतिक संचेतना के थिएटर नहीं किया जा सकता। उम्र के 11 साल के फ़र्क़ को बंसी कभी मुझे महसूस न होने देते। उनकी लगातार टोकाटाकी का नतीजा था कि मेरा सम्बोधन 'बंसी कौल सर' से खिसकते-खिसकते 'बंसी सर' और अंततः 'बंसी' पर आया और यही आजीवन बना रहा।
'आला अफ़सर'
सन 1977 में आपातकाल निबटने और इंदिरा गांधी तथा उनके पुत्र संजय गांधी 'का सूर्यास्त हो जाने के बाद उत्तर भारत का दर्शक बंसी के 'आला अफ़सर' से रूबरू हुआ। हिंदी रंगकर्म पटल पर 'आला अफ़सर' एक ऐसी नई हवा के झोंके की मानिंद था जिसने देश भर के रंग पल्लवों को झकझोर कर रख दिया। महान रूसी नाटककार निकोलाई गोगोल के विश्व प्रसिद्ध नाटक 'इंस्पेक्टर जनरल' के इस नाट्य रूपांतरण को सुप्रसिद्ध नाटककार मुद्राराक्षस ने रचा था। लखनऊ के अभिनेताओं को लेकर तैयार की गयी इस प्रस्तुति को बंसी कौल ने उस नौटंकी फॉर्मेट में ढाला जिसका 2 साल से वह गहन अध्ययन कर रहे थे। उत्तर भारत में नौटंकी के 2 'स्कूल' माने जाते हैं। उनका प्रोडक्शन 'कानपुर शैली' की नौटंकी से प्रभावित था।
ऐसे दौर में जबकि नौटंकी अपने अस्त हो जाने की आख़िरी साँसें ले रही थी, आधुनिक रंगकर्म में उसके इस पुनर्सृजन ने जैसे इसमें प्राण फूँकने का काम किया। इसकी रिहर्सल में प्रायः हिंदी साहित्य के पुरोधा अमृतलाल नागर भी आकर बैठ जाते।
नागर जी के पास नौटंकी का विशद ज्ञान था और बंसी उनके इस ज्ञान का जम कर लाभ उठा रहे थे। 'आला अफ़सर' की प्रस्तुतियों को सारे देश के दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। अख़बारों ने इसकी समीक्षा के सन्दर्भ में नौटंकी के लुप्तप्राय होते चले जाने के सवाल को गहराई से उठाया। नतीजा यह हुआ कि 'संगीत नाटक अकादमी' सहित 'उप्र. संगीत नाटक अकादमी' और अन्य प्रदेश की नाट्य अकादमियों में सुगबुगाहट हुई और नौटंकी पुनरुद्धार के प्रयास शुरू हुए।
आगे चलकर 'पद्मश्री' से लेकर 'संगीत नाटक अकादमी' सहित दूसरे दर्जनों पुरस्कारों से नवाज़े गए बंसी कौल ने जिस काल में 'एनएसडी' में शिक्षा प्राप्त की तब वहाँ 'स्कूल' परिसर में नौटंकी, स्वांग, भगत, माच, नाचा, भवानी भवई, तमाशा और जात्रा जैसी लोक नाट्य कलाओं का उल्लेख महज़ ऐतिहासिक सन्दर्भों के लिए ही होता था, प्रैक्टिस में ये सब बेमानी थे।
दिल्ली के अभिजात्य दर्शकों और बुद्धिजीवियों में इब्राहिम अल्काज़ी की अपनी नाट्य प्रस्तुतियों की धूम थी। वह इन सब 'लोक-फ़ोक' से बहुत दूर हिंदी के 'अभिजात्य' रंगकर्म निर्माण में मशगूल थे। बेशक उनके निर्देशन में तैयार हिंदी के कई नाटक 'कालजयी' माने जाते हैं लेकिन उनका मूल ढाँचा शहरी रंगमंच का प्रतिरूप था जिसका प्राण स्वरूप पश्चिम का 'अर्बन' थिएटर था।
अल्काज़ी साहब को हिंदी लोक नाट्य की न तो समझ थी और न उन्होंने उसे समझने की कोई कोशिश ही की। लोक कलाकारों और लोक नाट्य निर्देशकों की कौन कहे उन्होंने तो हबीब तनवीर जैसे किसी ऐसे निर्देशक को भी 'एनएसडी' के अंत:स्थल तक नहीं फटकने दिया जो हिंदी लोक नाट्य विधाओं को आधार बनाकर आधुनिक रंगकर्म पर निरंतर काम कर रहे थे। इतना ही नहीं, वह यह भी समझने को तैयार नहीं थे कि भारत 'एकता में अनेकता' वाला देश है जहाँ एकरूप थियेटर करना नामुमकिन है। गुरु की सोच से इतर सोच रखने वाले बंसी कौल ने इस विविध रूप थिएटर को जानने, सीखने और करने की ठानी और यही वजह है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर संस्कृति और हर भाषा के रंगकर्म के साथ दो-दो हाथ करने निकल पड़े।
बंसी कौल ने अपने उस्ताद की उस तथाकथित 'शास्त्रीय' रंगशृंखला की दीवारों को भरभरा कर गिराया और एक ही साँस में हिंदी मुहावरे की प्राण प्रतिष्ठा वाले रंगकर्म का दामन पकड़ लिया।
यूँ बंसी कौल कुछ समय के लिए एनएसडी की फैकल्टी में प्राध्यापक रहे और कुछ समय के लिए श्रीराम आर्ट एन्ड कल्चरल सेंटर के निदेशक के पद पर रहे लेकिन इन 'नौकरियों' को वह अपने ‘ठहराव के दिन’ मानते हैं। डिज़ाइनिंग उनका मूल भाव थी। उन्होंने सरकार की ओर से 'भारत महोत्सव' सरीखे देश और दुनिया में दर्जनों महोत्सवों को डिज़ाइन किया। 'कॉमनवेल्थ गेम्स' और 'दक्षिण एशियाई खेलों' जैसे अंतरराष्ट्रीय खेल महोत्सवों के अनेक 'ओपनिंग और क्लोज़िंग' अनुष्ठानों के वह चीफ़ डिज़ायनर और चीफ़ कोरियोग्राफ़र थे। नतीजा यह था कि वह 'फ़ेस्टिवल' के सबसे तुन्नमखान 'शो डायरेक्टर' साबित हुए। वह कहते रहे कि नियमित रंगकर्म करते रहने के लिए इंसान को नाटक के अलावा दूसरा काम भी आना चाहिए क्योंकि भारतीय रंगकर्म आजीविका का साधन नहीं बन सकता।
बंसी कौल ने अंततः ड्रामा स्कूल से निकलने के 11 साल बाद भोपाल में जमने का फ़ैसला करते हैं। यहाँ 1984 में उन्होंने 'रंग विदूषक' नाट्य संस्था की स्थापना की। जैसे कि संस्था के नाम से ज़ाहिर है, उन्होंने लोक और परंपरागत तत्वों को अपने भविष्य के रंगकर्म का आधार बनाया।
ऐसे दौर में जबकि हिंदी रंगकर्म का आकार निरंतर संकुचित होता जा रहा है और ज़रूरत उसके भीतर लोक नाट्य के नए-नए तत्वों और विचारों के समावेश की है, तब बंसी कौल का चले जाना एक वटवृक्ष के ढह जाने के समान है। यह सचमुच देश के रंगकर्म की भयानक क्षति है।
साभार सत्य हिंदी