(सुरेन्द्र सुकुमार) प्रातःवंदन मित्रो ! जब एक बार हम अपने गाँव कौड़ियागंज में ही थे, तो भारत सरकार ने उनको पद्मश्री से नवाज़ा हम अपनी बेटी के साथ बधाई देने आए, तो बहुत खुश हुए पर बोले, ये पद्मश्री से क्या फायदा राष्ट्रपति के हस्ताक्षर युक्त एक कागज़ मात्र है? इसे ड्रॉइंग रूम में टाँग लो बस, अरे कुछ धनराशि होती तो कुछ बात भी बनती। भाई साहब का बचपन बेहद अभावों में बीता था, इसलिए वो पैसे से बहुत जुड़े थे। बहरहाल, जब हम घर वापस आए, तो हमारी बेटी पूर्वा ने हमसे कहा कि 'पापा हमने ताऊ जी के ऊपर एक कविता लिखी है।' हमने कहा, "सुनाओ" तो सुनाई... 'नीरज जी हैं ताऊ हमारे, सारे जग से न्यारे न्यारे, पद्मश्री पाकर भी बिल्कुल बच्चे लगते हैं, इसीलिए वो हमको सबसे अच्छे लगते हैं।' भाई साहब बच्चों को बहुत प्यार करते थे।
जब हम अलीगढ़ आए, तो रघुवीर सहाय इंटर कॉलेज के मैनेजर श्री अशोक सक्सेना हमारे पास आए और बोले, ‘कायस्थ होने के नाते कायस्थ समाज आपका अभिनन्दन करना चाहता है। इस अवसर पर एक भव्य कवि सम्मेलन भी करना चाहते हैं। आप लिस्ट बना लीजिए हम उनको बुला लेंगे।‘
हमने कहा कि ‘आप नीरज जी का अभिनन्दन करिए, वो भी तो कायस्थ समाज से हैं?‘ वो बोले, ‘नहीं वो अपने को कायस्थ ही कहाँ मानते हैं और फिर वो पैसे से बहुत जुड़े हुए हैं।‘
हमने उन्हें किसी तरह से मना लिया, फिर हम लोग नीरज जी के घर गए उन्हें बताया, तो बोले, ‘ये सब छोड़ो अभिनन्दन पत्र तो मेरे बाथरूम में पड़े रहते हैं, आप तो यह बताओ कि पैसे कितने दोगे ?‘
अशोक भाई साहब ने कहा कि इतने बड़े बड़े कवि आ रहे हैं इन्होंने किसी ने भी पैसे की बात नहीं की है और आप हैं कि लोकल होते हुए भी पैसे के बात कर रहे हैं। तो बोले, ‘जिन कवियों की बात आप कर रहे हैं, इनमें से एक भी नहीं आएगा।‘
हमने कहा कि ‘भाई साहब सब आएंगे असल में ये हमारे मित्र हैं ये कवि सम्मेलन में नहीं हमारा घर देखने आ रहे हैं।‘ और हुआ भी यही सब कवि आए नीरज जी का अभिनन्दन किया गया पर उसके साथ धोखे से हमारा भी अभिनन्दन कर दिया गया। बेहद कम धनराशि में शानदार कवि सम्मेलन सम्पन्न हुआ।
कवि मित्र हमारे ही घर पर रुके। इन कवियों में श्री गोविंद व्यास, नूतन कपूर, प्रमोद तिवारी, अंसार कम्बरी, शतदल आदि थे।
जब हम लोग अलीगढ़ में होते हैं, तो शाम को उनका फोन आता था कि ‘सुरेन्द्र क्या कर रहे हो? आ जाओ पपलू खेलेंगे और हाँ अपने मित्र अंधौलीवाल को भी ले आना?‘
डॉक्टर सीके आँधीवाल हमारे मित्र हैं, जो हमारे ही मुहल्ले में रहते हैं। हमने ही नीरज जी से उनकी मुलाकात कराई थी, पर भाई साहब कभी भी उनका नाम याद नहीं कर पाए, वो हमेशा उन्हें आँधीवाल के स्थान पर अंधौलीवाल ही कहते रहे। असल में भाई साहब की एक खास आदत थी कि उनसे कोई कितनी ही बार मिल ले, वो उसको तब तक नहीं पहचानते थे, जब तक कि उनका कोई काम उनसे न पड़ता हो।
भाई साहब की एक और खास आदत थी कि न तो किसी का पैसा अपने ऊपर रखते थे और न ही अपना पैसा किसी के ऊपर छोड़ते थे। हम जाते तो एक हम एक आँधीवाल एक मित्तल साहब चार लोग जमा हो जाते। ताश बंटने लगते पपलू में जोकर का बहुत ही महत्व होता है, उसे माल कहते हैं। खैर कुछ देर बाद हम कहते कि ‘भाई साहब हम तो चल रहे हैं।‘ तो तत्काल कहते ‘ऐसे कैसे जीत के जाने देंगे।‘
हम कहते कि ‘भाई साहब हमारा तो पीने का टाइम हो गया है।‘
तो बोलते ठीक है ऐसा करते हैं कि एक पैग दे देते हैं, फिर इसके बाद नहीं देंगे।‘
इस बीच बीड़ी के क़श लगते रहते थे। भाई साहब छोटा पहलवान की बीड़ी पीते थे और हम पाँच सौ दो की। भाई साहब सिगरेट केवल संयोजक की ही पीते थे।
हम वो पैग लेकर फिर खेलने बैठ जाते, कुछ देर बाद हम फिर कहते कि ‘हम तो चल रहे हैं। ‘अच्छा सुनो एक पैग और दे देता हूँ, उसके बाद नहीं।‘ हम बैठ जाते फिर थोड़ी देर बाद हम उठ जाते और कहते कि ‘भाई साहब अब हमसे नहीं रुका जाएगा घर पहुँचते पहुँचते सारा नशा हिरन हो जाएगा अब हम तो और पिएंगे ।‘
फिर कहते कि ‘चलो ठीक है लो और लेलो, जितना तुम्हारा मन हो।‘ क्योंकि वो भी तो हमारे साथ साथ ले रहे होते थे, सो वो भी सुरूर में आ जाते थे। फिर जम के पीते और काफ़ी समय तक खेल कर पूरा पूरा हिसाब साफ करके हम घर पर आते थे।‘ ....क्रमशः
नोटः सुरेन्द्र सुकुमार 80 के दशक का पूर्वार्ध के उन युवा क्रांतिकारी साहित्यकारों में हैं, जो उस दौर की पत्रिकाओं में सुर्खियां बटोरते थे। ‘सारिका‘ पत्रिका में कहानियों और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता था। ‘जनादेश‘ साहित्यकारों से जुड़े उनके संस्मरणों की श्रंखला शुरू कर रहा है। गीतों के चक्रवर्ती सम्राट गोपालदास नीरज से जुड़े संस्मरणों से इस श्रंखला की शुरूआत कर रहे हैं।