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(सुरेन्द्र सुकुमार): कभी कभी हम भाई साहब से लड़ बैठते थे लड़ाई भी क्या बस छोटी-छोटी बातों पर और हम उनसे बोलना बंद कर देते थे। उनके घर भी नहीं जाते थे, कुछ दिनों बाद वो अपनी स्कूटी से ख़ुद ही घर आ जाते थे और कहते, अब तक गुस्सा है? अरे भाई बात ख़त्म हो गई लाओ एक पैग बनाओ और हम लोग पीने बैठ जाते, फिर वही पुराना ढर्रा... पैसे से अत्यधिक जुड़े होने के तो अजीब से उदाहरण हैं। जैसे उनका फोन आता, ‘सुरेन्द्र मुरादाबाद चल रहे हो क्या?‘ हम कहते, 'हाँ'... 'हमारे साथ टैक्सी से चलो?'... 'ठीक है चले चलेंगे'... ‘पर टैक्सी का किराया शेयर करना पड़ेगा?‘ 'नहीं भाई साहब, हम तो बस से ही ठीक हैं।' 'अच्छा बस का किराया तो दोगे?'...'वो दे देंगे।'

ऐसे ही एक बार मुरादाबाद जाते समय हुआ मुरादाबाद गए कवि सम्मेलन संपन्न हो गया। हमने यह सोच कर पैसे नहीं दिए कि घर चल कर दे देंगे पर उन्हें चैन नहीं पड़ रहा था। सुबह वापस आने पर दोपहर एक ढाबे पर खाना खाने के लिए रुके। खाने को आर्डर देकर बोले, 'सुरेन्द्र वो देखो सामने शराब की दुकान है, एक अद्धा ले आओ'... जैसे ही हम अद्धा लेकर आते, अद्धा हाथ में पकड़ कर बच्चों की तरह चहक गए।

'बस का किराया मिल गया, बस का किराया मिल गया', आस-पास के तमाम कार्यक्रमों के लिए ऐसा ही होता था।

भाई साहब ने वर्षों पहले ही बस से यात्रा करना छोड़ दिया था क्योंकि उनको बार-बार पेशाब जाने की बीमारी हो गई थी। बाद में जब मुलायम सिंह जी ने उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया था। तब उन्हें लालबत्ती की सरकारी गाड़ी मिली थी। बावजूद इसके उन्होंने बस का किराया लेना नहीं छोड़ा। एक बार तो श्री रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी भी कवि सम्मेलन में थे। तो उन्होंने कहा कि 'हमें भी अपने साथ ले चलो।' हमने कहा, 'उनसे पूछ कर बताते हैं। हमने पूछा तो बोले, 'बस के किराए की बात कर लो' और बस के किराए की बात पर तय होकर उन्हें भी ले आए।

भाई साहब कभी भी फाइव स्टार होटल में नहीं ठहरते थे। हमेशा मध्यम दर्ज़े के होटल में ही ठहरते थे। इसका मुख्य कारण होता था कि वो बीड़ी सिगरेट पीकर ऐश ट्रे के अलावा भी कहीं भी फैंक देते थे। हमने नीरज जी भाई साहब को प्रौढ़ावस्था में ही देखा था, जब उनका अच्छे कपड़े पहनने का शौक़ जा चुका था। पर सुना था कि अपनी युवावस्था में भाई साहब पहनने ओढ़ने के बहुत शौकीन थे। पर बाद में उनका यह शौक़ भी विदा हो गया था।

जाड़ों में कट्सवूल का एक मैरून रंग का कुर्ता और तहमद। अधिक सर्दी हुई, तो एक जर्सी पहन लेते थे और इसी एक ड्रेस में कई कई कवि सम्मेलन कर लिया करते थे। जीवट इतना कि बयान नहीं किया जा सकता है। एक बार तो सिकन्दराराऊ कवि सम्मेलन में दिसम्बर की कड़ाके की सर्दी थी। तब चार बजे कवि सम्मेलन समाप्त होने पर बोले, 'चलो अलीगढ़ चलते हैं।'
हमने पूछा, 'काहे से?', बोले, 'स्कूटी से'... हमने कहा, 'न बाबा मर जाएंगे, हम तो बस से जाएंगे।‘ और वो उसी समय स्कूटी से अलीगढ़ के लिए रवाना हो गए। ये था उनका जीवट।

कवि सम्मेलन के लिए भी एक ही तारीख़ के लिए कई-कई आयोजकों को स्वीकृति दे देते थे। जब हम कहते कि ऐसा क्यों करते हैं? तो कहते कि 'अगर मान लो कोई कवि सम्मेलन निरस्त हो जाए, तो अपना नुकसान तो नहीं होगा।' एन टाइम पर जहाँ सुविधा होती, वहाँ चले जाते थे। अपना नुकसान किसी भी हालत में नहीं होने देते थे। (क्रमशः)

नोटः सुरेन्द्र सुकुमार 80 के दशक के पूर्वार्ध के उन युवा क्रांतिकारी साहित्यकारों में हैं, जो उस दौर की पत्रिकाओं में सुर्खियां बटोरते थे। ‘सारिका‘ पत्रिका में कहानियों और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता था। "जनादेश" साहित्यकारों से जुड़े उनके संस्मरणों की श्रंखला शुरू कर रहा है। गीतों के चक्रवर्ती सम्राट गोपालदास नीरज से जुड़े संस्मरणों से इस श्रंखला की शुरूआत कर रहे हैं।

 

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