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(आशु सक्सेना) पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों से केंद्र की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी को संजीवनी मिली है। लेकिन इन चुनाव नतीजों से यह भी साफ हो गया है कि भाजपा के सामने जहां क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां सबसे बड़ी चुनौती हैं, वहीं मत प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस भी चुनौती बनी हुई है। दिल्ली और बिहार में शर्मनाक हार के बाद कांग्रेस शासित असम में बहुमत हासिल करके भाजपा को विधानसभा चुनाव में हार के सिलसिले को रोकने में कामयाबी मिली है। लेकिन पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में पार्टी की पूरी ताकत झौंकने के बावजूद भाजपा को अपेक्षाकृत सफलता नही मिली है। इन दोनों ही राज्यों में क्षेत्रीय दलों का दबदबा बरकरार रहा। भाजपा की अगली चुनौती उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपने जनाधार को बचाने की हैं। इस सूबे में भाजपा का मुकाबला सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और प्रमुख विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी से है। लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के चलते उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीट में से भाजपा और उसके सहयोगी अपना दल ने 73 सीट जीती थीं। अगले साल के शुरू में संभावित विधानसभा चुनाव में मोदी का जादू चलेगा, इसकी संभावना फिलहाल नजर नही आ रही है। दरअसल असम विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को श्रेय नही दिया जा सकता। इस सूबे में कांग्रेस के खिलाफ 15 साल के शासन की सत्ता विरोधी लहर और भाजपा का सूबे में जनाधार वाले क्षेत्रीय दल असम गण परिषद और बोडो पीपुल्स फंट के साथ चुनावी गठबंधन ने अहम भूमिका अदा की। चुनाव नतीजों के बाद मत प्रतिशत के लिहाज से भाजपा को सफल नही माना जा सकता।

15 साल के शासन के बावजूद मत प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस सबसे बड़े राजनीतिक दल के तौर पर बरकरार रही। कांग्रेस को पार्टी के दिग्गज नेता हिमंत विश्वशर्मा के भाजपा में शामिल होने के बावजूद कांग्रेस को 31 फीसदी मत मिले, जबकि क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन के बावजूद भाजपा 29.5 फीसदी मत हासिल कर सकी। वहीं मुसलिम मतों को प्रभावित करने वाली क्षेत्रीय पार्टी एआईयूडीएफ ने 13 फीसदी मत हासिल किये। कांग्रेस और एआईयूडीएफ अपने बूते पर चुनाव लड़े और अलग अलग चुनाव लड़ने के बावजूद दोनों 44 फीसदी मत हासिल करने में सफल रहे। वहीं राजग (भाजपा को 29.5फीसदी, असम गण परिषद को 8 फीसदी और बोडो पीपुल्स फंट को 3.9 फीसदी) को 41.4 फीसदी ही मत मिले। लिहाजा भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत दावा अतिश्योक्ति ही लगता है। बहरहाल भाजपा ृको अगली परीक्षा उत्तर प्रदेश में देनी है। इस सूबे के दो विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुए थे। उप चुनाव में बसपा ने शिरक्त नही की थी। लिहाजा मुकाबला सत्तारूढ़ सपा और भाजपा के बीच था। दोनों ही सीट सपा ने जीती। लेकिन सपा और भाजपा के बीच मत प्रतिशत में काफी अंतर है। सपा ने जहां 50 फीसदी मत पाये वहीं भाजपा को 41.5 फीसदी ही मत मिले। इन नतीजों को सूबे के आम चुनाव से पहले केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा की गिरती हुई साख के तौर पर निश्चित ही देखा जा सकता है। इन दोनों ही विधानसभा क्षेत्र की लोकसभा सीट पर भाजपा का कब्जा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव दरअसल 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल होगा। इस सूबे में हांलाकि मुख्य मुकाबला तो समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भाजपा के बीच ही माना जा रहा है। लेकिन कांग्रेस, जनतादल यूनाइटेड और औबेसी भी पूरी ताकत से चुनावी जंग में शामिल होने का संकेत दे चुके है। लिहाजा चुनाव बेहद दिलचस्प होने की उम्मीद है। सवाल यह है कि इस चुनाव में बाजी कौन मारेगा। अगले साल होने वाले चुनाव में मोदी सरकार को सूबे के मतदाताओं को अपने कामकाज का हिसाब देना है। सबसे बड़ी दिक्कत भाजपा के सामने यह है कि उसके सांसदों के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। प्रमुख विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी चार बार सूबे की सत्ता पर काबिज रह चुकी है। बसपा प्रमुख मायावती तीन बार भाजपा के सहयोग से सत्ता पर काबिज हुईं और 2007 में वह पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रहीं और उन्होंने पांच साल सरकार चलाई। चार बार सत्ता सुख भोगने वाली मायावती इन दिनों चुनाव प्रचार के दौरान यह कह रही हैं कि मुर्ति लगवाने का उनका काम पूरा हो चुका है, इस बार सत्ता पर काबिज होने पर वह सूबे के विकास पर ध्यान केंद्रीत करेंगी। मायावती के इस बयान से साफ है कि सूबे के चुनाव में तमाम मुद्दों के बावजूद विकास भी एक अहम मुद्दा होगा। दरअसल प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सूबे में विकास पर ध्यान केंद्रीत किया और आज लोगों का मानना है कि अखिलेश यादव साफ सुथरी छवि वाले विकास को प्राथमिकता देने वाले नेता है। लोगों में व्यक्तिगत तौर पर अखिलेश यादव के खिलाफ नाराजगी नही है। यही कारण है कि मायावती को विकास का नारा देना पड़ रहा है। वही भाजपा ने अपनी पूरी ताकत उत्तर प्रदेश में झौंक दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी से पिछले दिनों चुनावी बिगुल फूंक चुके हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी वाराणसी से चुनावी समर में कूदने का एलान कर चुके हैं। बहरहाल अगले सात आठ महीने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ जाएंगी। सपा, बसपा और भाजपा समेत अन्य राजनीतिक दल देश के सबसे बडे़ सूबे ताज हासिल करने की पुरजोर कोशिश शुरू कर चुके हैं। इस सूबे के चुनाव नतीजे जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की सही तस्वीर सामने रखेंगे, वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव की पटकथा भी लिख देंगें।

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