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(आशु सक्सेना) बिहार विधानसभा चुनाव बेहद दिलचस्प होगा। यह चुनाव सांप्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता के बीच सीधी लकीर खिंच देगा। इस चुनाव में एक बार फिर मतदातों में जातिगत धुर्वीकरण, धर्म निरपेक्ष भारत या हिंदु राष्ट्र की विचारधारा के बीच बंटवारा साफ नजर आयेगा। यूँ तो आजादी के बाद कई बार कांग्रेस के खिलाफ ढेर सारे अन्य दलों की गोलबंदी का इतिहास है। लेकिन 1989 में तख्ता पलट की कोशिश के लिए हुई गोलबंदी पिछली गोलबंदियों से अलग थी। इस गोलबंदी का केंद्र जनतादल था और इसके दो छोर वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों साथ साथ थे। देश में तख्ता पलट की कोशिशों के इतिहास में यह गठबंधन अपने आप में खुद एक इतिहास बन गया। दरअसल इस चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने कभी भी अपनी अलग पहचान के साथ राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का प्रयोग नही किया था। इत्तफाक से इस चुनाव में वामपंथी और दक्षिणपंथी परोक्ष रूप से साथ साथ थे।

लिहाजा मतों का धुव्रीकरण भी उस चुनाव के लक्ष्य के मुताबिक हुआ। नतीजतन कांग्रेस की सत्ता से विदाई हो गई। तख्ता पलट के बाद केंद्र में एक ऐसी सरकार काबिज हुई, जो वामपंथ और दक्षिण पंत की संयुक्त वैसाखी पर खड़ी हुई थी। यूंॅ तो 1989 मे लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान ही सांप्रदायिक और धर्म निरपेक्ष विचारधारा की बहस छिड़ चुकी थी। मिसाल के तौर पर मथुरा में भाजपा की वह चुनावी रैली जिसमें देश के भावी प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने शिरक्त करने से इंकार कर दिया था। बहरहाल जातिगत धुव्रीकरण के लिहाज से यह देश का पहला आम चुनाव था, जब सवर्णो के वर्चस्प वाली दोनांे राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस और भाजपा आमने सामने थी। इतिहास गवाह है कि इस चुनाव के बाद कांग्रेस का डुबा सूरज अभी तक नही निकला है। जबकि उस चुनाव में पहली बार अपनी पहचान के साथ भाजपा ने केंद्र की राजनीति पर दस्तक दी थी और आज पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज है। यहां ये कहना अतिशियोक्ति नही होगा कि इस चुनाव के बादभाजपा ने कभी पीछे मुड़कर नही देखा। 1989 के आम चुनाव में दो सांसदों वाली भाजपा अचानक 88 सांसदों वाली पार्टी बन चुकी थी। राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के पतन के बाद 1991में हुए लोकसभा के आम चुनाव में भाजपा ने देश की राजनीति में पहली बार विपक्षी दल होने का गौरव हासिल किया। बहरहाल पिछले ढ़ाई दशक के राजनीति के मंथन का निचोड़ अक्टुबर नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों के वक़्त ही सामने आएगा। लेकिन फिलहाल यह कहा जा सकता है कि इस बिहार चुनाव के आने तक सांप्रदायिक और धर्म निरपेक्ष विचारधारा के बीच सीधी लकीर नजर आ रही है। इत्तफाक से बिहार विधानसभा चुनाव उस वक्त हो रहे है जब विचारधारा को लेकर चल रहा मंथन अपने आखिरी मुकाम तक पहुंच चुका हंै। फर्क सिर्फ इतना है कि 2015 में कांग्रेस याचक की तरह धर्म निरपेक्ष विचारधारा के साथ खड़ी नजर आ रही है जबकि भाजपा ने अपने उन साथियों को साथ जोड़ा हैै, जो जातियां या वर्ग 1989 के चुनाव के बाद पार्टी से जुड़े हैं। अब देखना यह है कि बिहार विधानसभा चुनाव में जातिगत गठजोड़ जीत दर्ज करता है या फिर धर्म निरपेक्ष विचाारधारा के पक्षधर खेमें को ताज मिलता है। फिलहाल अगर राजनीति के लिहाज बिहार पर नजर डाली जाए, तो यह कहना गलत नही होगा कि आज भी प्रदेश मे धर्म निरपेक्ष खेमें में विखराव है। उसकी अपेक्षा भाजपा का गठबंधन ज्यादा एकजुट नजर आ रहा है। इसकी अहम वजह केंद्र में भाजपा का सत्ता पर काबिज होना है। इसक बावजूद भाजपा ख्ेामें में सत्ता में भागीदारी को लेकर गठबंधन में कुछ लोग मुखर नजर आ रहे है। मजे की बात यह है कि भाजपा के गठबंधन में ज्यादातर उनके वह साथी है, जो खुद को धर्म निरपेक्ष विचारधारा का प्रोद्धा बताते हैं। कहने का मकसद यह है कि राजग गठबंधन में आज भी सांप्रदायिक और धर्म निरपेक्ष विचारधारा की लड़ाई बदस्तूर जारी है। जबकि सामने सिर्फ धर्म निरपेक्षता खड़ी हुई है। बिहार विधानसभा चुनाव विचारधारा के संघर्ष को लेकर चल रही किसी प्रतियोगिता का सेमी फाइनल मैच माना जा सकता है। विचारधारा की इस प्रतियोगिता में बहुमत किस विचारधारा के साथ है, यह चुनाव नतीजों के बाद तय होता है। मिसाल के तौर पर पिछले लोकसभा चुनाव का जि़क्र किया जा सकता है। इस चुनाव में भाजपा को 31 फिसदी मत मिला था और उसकी सीट 282 थी। वहीं दूसरी तरफ उसके खिलाफ 69 फिसद मतदाता खड़े थे। लेकिन यह मतदाता बटे हुए थे। इस लिहाज से दिल्ली विधानसभा चुनाव को विचारधारा की प्रतियोगिता का क्वाटर फाइनल माना जा सकता है। जहां केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के बावजूद भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था। देश में चल रही राजनीति की प्रतियोगिता के क्वाटर फाइनल में सर्वणनों के वर्चस्व वाली दोनों ही पार्टियों को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था। कांग्रेस जहां अपना खाता भी नही खोल सकी वहीं केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा 70 सदस्यो वाली दिल्ली विधानसभा में विपक्ष का दावा ठौंकने लायक सीट भी नही जीत सकी। अगर चुनाव नतीजों का आंकलन किया जाए, तो साफ नजर आएगा कि भाजपा की जीत का कारण धर्म निरपेक्ष मतों का विभाजन था। 70 सदस्यों वाली विधानसभा में तीन सीट जीतने वाली भाजपा में मुसलिम बाहुल्य दो वह सीट गईं जहां बड़ी तादाद मेें धर्म निरपेेक्ष मत विभाजित हो गया। जबकि विश्वास नगर विधानसभा सीट पर कांग्रेस के लोकप्रिय उम्मीदवार को मिले वोट भाजपा की जीत का कारण बनें। इस चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि जो देश का मूड है, वही दिल्ली का मूड भी है ? दिल्ली ने अपना फैसला सुना दिया है, अब बिहार को फैसला सुनाना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार चुनाव को दिल्ली की तरह खुद की प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। उन्होंने बिहार चुनाव को मोदी बनाम नीतीश कुमार बना दिया है। जहां तक विकास के मुद्दे पर चुनाव जीतने की बात है, तो इस प्रतियोगिता में नीतीश कुमार कई क्षेत्रों मे खुद को गुजरात से बेहतर साबित कर चुके है। लिहाजा चुनाव में विकास को जीत का सबसे बड़ा मुद्दा नही माना जा सकता है। निश्चित ही विकासशील देशों की दौड़ में अग्रणी भूमिका निभाने वाले भारत में मानवता को जि़ंदा रखने वाली किसी विचारधारा को अपनाने के वास्ते मंथन चल रहा होगा। बिहार विधानसभा चुनाव इस दिशा में मील का पत्थर साबित होता नजर आ रहा है।

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