(आशु सक्सेना); उत्तराखंड़ प्रकरण से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशासनिक क्षमता पर सवालिया निशान लग गया है। प्रधानमंत्री की यह खामी उस वक्त चर्चा का मुद्दा बनी, जब प्रधानमंत्री तीन देशों की यात्रा के लिए रवाना होने वाले थे। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने से पहले प्रधानमंत्री ने एनडीए की बाजपेयी सरकार के उस घटनाक्रम पर निगहा नही डाली, जिसमें उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार की बर्खास्तगी को इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ ने निरस्त कर दिया था और प्रदेश में यथा स्थिति बहाल रखने का निर्देश दिया था। घटनाक्रम में फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक्त केंद्र की एनडीए सरकार ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी की प्रदेश सरकार को भंग करने की सिफारिश पर मोहर लगाई थी। उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की रोशनी में कहा था कि राज्यपाल के चेहरे पर करारा चांटा पड़ा है। एस. आर. बोम्मई मामले के बाद यह साफ हो गया था कि किसी प्रदेश की निर्वाचित सरकार के बहुमत का फैसला सिर्फ सदन में होगा। राज्यपाल या कहीं अन्य स्थान पर किये गये शक्ति परीक्षण को मान्य नही माना जाएगा। उत्तर प्रदेश में 1998 की कल्याण सिंह सरकार के शक्ति परीक्षण को विवादित करार देते हुए तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने केंद्र सरकार से प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश की ।
जिसे केंद्र की बाजपेयी सरकार ने मंजूरी दे दी। कल्याण सिंह ने राज्यपाल के फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जहां से उन्हें राहत मिली और वह पुनः सत्ता पर काबिज हुए। उत्तर प्रदेश का राजनीतिक घटनाक्रम उत्तराखंड़ की अपेक्षा काफी तेेजी से बदला था। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करने के बाद कांग्रेस के जगदंबिका पाल को सरकार बनाने का न्यौता दिया और उन्हें मुख्यमंत्री पद और गोपनीयता की शपथ भी दिलवा दी। उनके साथ कल्याण सिह सरकार से समर्थन वापस लेने वाले लोकतांत्रिक कांग्रेस के नरेश अग्रवाल ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। अगले ही दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्यपाल की भूमिका को गलत ठहराते हुए कल्याण सिंह सरकार को पुनः सदन में बहुमत साबित करने का निर्देश दिया और कल्याण सिंह ने नाटकीय घटनाक्रम के तहतं लोकतांत्रिक कांग्रेस के नरेश अग्रवाल के पुनः समर्थन के बूते पर सदन में बहुमत साबित कर दिया। यह बात दीगर है कि कल्याण सिंह अपना यह कार्यकाल पूरा नही कर सके। उनको बदल कर भाजपा ने राजनाथ सिंह की ताजपोशी कर दी। नाराज कल्याण सिंह ने 1999 में भाजपा से नाता तोड़ लिया और क्षेत्रीय दल का गठन किया। भाजपा में उनकी वापसी 2004 के लोकसभा चुनाव के वक्त हुई। बहरहाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले जगदंबिका पाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की वजह से प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री की सूची में शामिल नही किये गये हैं। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंड़ारी और उत्तराखड़ के राज्यपाल के. के. पाल के फैसले में काफी समानता है। राज्यपाल ने एक तरफ मुख्यमंत्री हरीश रावत को 28 मार्च को पुनः सदन में बहुमत साबित करने का निर्देश दिया। दूसरी तरफ राज्यपाल के. के. पाल ने राज्य में बिगड़ रही कानून व्यवस्था का हवाला देकर केंद्र सरकार से प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश भी कर दी। फर्क सिर्फ यह है कि उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी का मनोनयन कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में काबिज संयुक्त मोर्चा (यूएफ) सरकार ने किया था। जबकि वर्तमान राज्यपाल के. के पाल का मनोनयन मोदी सरकार ने जनवरी 2015 में किया है। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने सरकार बर्खास्त करने के अपने फैसले को कांग्रेस समर्थित राज्यपाल रोमेश भंड़ारी पर थौप कर राज्यपाल की भूमिका को कठघरे में खड़ा कर दिया था। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने समर्थित राज्यपाल के फैसले को अमलीजामा पहनाने वाले कुशल प्रशासक हैं। लिहाजा मोदी केंद्र सरकार की इस अदूरदर्शिता के लिए अन्य किसी को दोषी नही ठहरा सकते। उत्तराखंड़ हाईकोर्ट ने केंद्र की मोदी सरकार के उत्तराखड़ सरकार को बर्खास्त करने के फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट ने हरीश रावत सरकार को सदन में बहुमत साबित करने का निर्देश दिया है। अदालत के इस फैसले से राज्यपाल और केंद्र सरकार को करारा झटका लगा है। यूॅं राज्यपाल की भूमिका हमेशा से संदिग्ध मानी जाती रही है। यह आरोप केंद्र की मोदी सरकार के मनोनीत राज्यपालों पर लगातार लगाये जा रहे हैं। पिछले दिनों असम के राज्यपाल पीवी आचार्य विवादों में घिरे थे, जब उन्होंने प्रदेश में विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच कहा था कि हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं के लिए है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नायक के खिलाफ प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी कई बार निंदा प्रस्ताव पारित कर चुकी है। राजग के मनोनीत कई अन्य राज्यपाल भी विवादों में आए हैं। ताजा मिसाल उत्तराखंड़ के राज्यपाल के. के. पाल का रावत सरकार को अपदस्त करवाने की घटना है। उत्तराखंड़ मामले में केंद्र सरकार अपनी चूक को किसी दूसरे पर नही थौप सकती। चूंकि राज्यपाल का मनोनयन उनकी ही सरकार ने किया है। लिहाजा अपने राज्यपाल के गलत फैसले पर मोहर लगा ने की जिम्मेदारी मोदी सरकार को ही लेनी होगी। प्रशासनिकतौर पर दक्ष माने जाने वाले मोदी की प्रशासनिक क्षमता पर उत्तराखंड़ प्रकरण के बाद सवालिया निशान लगना लाज़मी है। समय को परखने वाले मोदी से यह चूक ठीक अपनी तीन देशों की विदेश यात्रा से पहले हुई है। जहां अखबारों की सुर्खियों में हिंदुस्तान के उत्तराखंड़ राज्य की राजनीतिक गतिविधियों का भी जि़क्र हो रहा है।