(आशु सक्सेना) पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में चुनावी गठबंधन ने 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तस्वीर पर जमी धूल को साफ कर दिया है। देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में दक्षिण पंथी और वामपंथी विचारधारा के बीच खिंच रही सीधी लकीर ने राजनीतिक गठजोड़ की मजबूरियों को भी उजागर करना शुरू कर दिया है। इस वक्त पश्चिम बंगाल इस राजनीतिक हालात की जीवंत मिसाल है। यहां इस बार जो गठबंधन तैयार हुआ है, उसमें वामपंथी और कांग्रेस एक पाले में खडे़ हैं। जबकि सामने धर्म निरपेक्षता की राजनीति का पक्षधर मध्यमार्गी राजनीतिक दल तृणमूल कांग्रेस है। वहीं सूबे में भाजपा हिंदुत्व के नारे को हवा देकर तेजी से अपने जनाधार को फिलहाल तक बढ़ाने में कामयाब रही है। यूॅं तो कांग्रेस और वामपंथियों के रिश्ते को लेकर आपातकाल के समय से ही विवाद चला आ रहा है। वाममोर्चे के घटक भाकपा ने उस वक्त देश में आपातकाल को सही ठहराया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का समर्थन किया था। यह बात दीगर है कि दो दशक बाद भाकपा ने आपातकाल का समर्थन करने के फैसले को खुद गलत ठहराया था। उसके बाद 1996 में कांग्रेस और वामपंथियों की जुगलबंदी देखने को मिली थी, जब यूनाइटेड फंट (यूएफ) की देवागौड़ा और गुजराल सरकार को कांग्रेस ने समर्थन दिया था।
यह नई राजनीतिक दोस्ती दक्षिणपंथी कही जाने वाली ताकत भाजपा पर अंकुश लगाने की शर्त पर उभरी थी। हांलाकि यूएफ सरकार को दोनों बार कांग्रेस ने ही अपदस्त किया। इसके बावजूद 2004 में भाजपा के खिलाफ गोलबंदी का समर्थन करते हुए वामपंथी मोर्चे ने कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को समर्थन दिया था। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव वामपंथियों को अपने किले में जनाधार बचाने के लिए जमीनी हकीकत के मद्देनजर कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व सीटों का तालमेल करना पड़ा। दरअसल इस बार दोनों ही दलों (कांग्रेस और वामपंथी) को सूबे में अपना अस्तित्व बनाए रखने की मजबूरी नजदीक लाई है। यद्यपि केरल में यहीं दोनों ताकतें मुख्य प्रतिद्वंदी हैं और एक दूसरे के सामने ताल ठौक रही हैं। हालांकि वहां भी भाजपा अपने पैर पसारने की जुगत में है। बहरहाल पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और वामपंथियों के बीच मुख्य मुकाबला है। सूबे की यह दोनों राजनीतिक ताकतें धर्म निरपेक्षता की पक्षधर हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत तृणमूल कांग्रेस ने 2011 में 34 साल बाद वामपंथियों के इस अभेद किले में सैंद लगाई थी। उस चुनाव के वक्त तृणमूल कांग्रेस यूपीए का घटक थी और उसने कांग्रेस के साथ तालमेेल करके चुनाव लड़ा था। इस बार तृणमूल कांग्रेस अपने बूते पर चुनावी समर में है। जबकि मुख्य विपक्षी वामपंथियों ने कांगे्रस का दामन थामा है। लोकसभा चुनाव में भाजपा के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी के जादू ने इस सूबे में भाजपा को अभूतपूर्व सफलता दिलवाई थी। इस चुनाव में भाजपा दस फीसदी मतों के हिजाफे के साथ 18 फीसदी मत हासिल करने में कामयाब हुई। भाजपा ने सूबे की दो सीट भी जीतीं। विधानसभा चुनाव भी भाजपा पूरी ताकत से लड़ रही है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पिछले कई महीनों से सूबे में सक्रिय हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पहले चरण के चुनाव से पहले एक चुनावी सभा को संबोधित कर दिया है। इस सभा में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस और वामपंथियों को पिछले 40 साल सूबे की बर्बादी के लिए जिम्मेदार ठहराया। लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर के चलते भले ही भाजपा को सूबे में 18 फीसदी मत मिले थे। लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा को फैक्टर नही माना जा रहा है। यहां मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी मोर्चे के बीच ही माना जा रहा है। पिछले 2011 के चुनाव में 294 सदस्यों वाली विधानसभा के लिए तृणमूल कांग्रेस के 184 प्रत्याशी जीते थे जबकि उसके घटक कांग्रेस को 42 सीट जीतने में कामयाबी मिली थी। जबकि सत्तारूढ़ वामपंथी मोर्चा 62 सीट पर सिमट कर रह गया था। जबकि आम चुनाव में भाजपा का खाता भी खुला था। लोकसभा चुनाव में तस्वीर बदल गई थी। यह चुनाव तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी मोचा, कांग्रेस और भाजपा अपने अपने बूते पर लड़े थे। सूबे की 42 लोकसभा सीट में से सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने 34 सीट जीतीं। वामपंथी अपने अभेद किले में मात्र दो सीट पर सिमट गये। हां कांग्रेस इस चुनाव में दो सीट के नुकसान के साथ चार सीट जीतने में सफल रही। मोदी फैक्टर ने भाजपा को भी दो सीट दिलवा दी थीं। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाले संभावित राजनीतिक गठजोड़ की तस्वीर काफी हद तक साफ कर देंगे। सूबे अगर वामपंथी अपनी पुरानी खोई हुई ताकत को वापस हासिल करने में सफल रहे, तो भविष्य में कांग्रेस और वामपंथियों की युगलबंदी परवान चढ़ने लगेगी। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा सबसे मजबूत ताकत नजर आ रही है। हांलाकि उसका मत प्रतिशत मात्र 31 फीसदी है। मसलन 69 फीसदी विरोधी मतों के बावजूद भाजपा पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रही। जाहिरानातौर पर भाजपा को यह कामयाबी विरोधी मतों के विभाजन का परिणाम है। लिहाजा 2019 के लोकसभा चुनाव तक यह कोशिश परवान चढ़ चुकी होगी कि धर्म निरपेक्ष मतों के विभाजन को कैसे रोका जाए। उस दिशा में कांगे्रस और वामपंथी ताकतों को अहम भूमिका अदा करनी होगी। जिसकी एक झलक पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में नजर आ रही है। राष्ट्रीय परिदृश्य पर नजर डालें तो साफ नजर आ रहा है कि भाजपा के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में लगातार गिरावट आ रही है। वहीं दूसरी तरफ क्षेत्रीय ताकतें मजबूत हो रही हैं। दिल्ली की सत्ता पर आम आदमी पार्टी ने कब्जा किया, तो बिहार में राजद और जदयू गठबंधन को कामयाबी मिली है। अब चार राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनाव भविष्य के गठबंधन की तस्वीर ओर साफ कर देंगे। असम को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य में भाजपा के सत्ता पर काबिज होने की कोई संभावना नही है। इन राज्यों में भाजपा विरोधी ताकतों के ही मजबूत होने की संभावना है। हैदराबाद केंद्रीय विश्व विद्यालय और जेएनयू की घटनाओं ने एक बार फिर वामपंथी विचारघारा को हवा दी है। पिछले लोकसभा चुनाव में वामपंथी ताकतों को 2014 के लोकसभा चुनाव में जो शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था। भविष्य में उसमें सुधार की संभावना नजर आ रही है। उधर भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर टक्कर देने की ताकत सिर्फ कांग्रेस में हैं। राजनीतिक परिस्थितियों से साफ है कि भविष्य में धर्म निरपेक्ष और सांप्रदायिक ताकतों के बीच सीधी लकीर खिंचना तय है। उस वक्त भाजपा को रोकने के लिए एक बार फिर कांग्रेस और वामपंथियों की जुगलबंदी राजनीतिक मजबूरी होगी।