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(आशु सक्सेना) मोदी सरकार के अगले आम बजट तक 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की पटकथा लिखी जा चुकी होगी। चालू वित्तीय वर्ष को देश में चुनावी पर्व के तौर पर मनाया जा रहा है। जिसकी शुरूआत चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनाव के साथ हो रही है और इसका अंत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव संपन्न होने के साथ होगा। जिन चार राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई है, उनमें असम को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य में भाजपा सत्ता की दावेदार नजर नही आ रही है। लोकसभा चुनाव में भाजपा का असम में अभी तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा था। भाजपा को राज्य की 13 लोकसभा सीटों में से 7 पर जीत मिली। उसे 36.50 फीसदी मत हासिल हुए थे। कांग्रेस शासित इस प्रदेश में भाजपा को प्रबल दावेदार माना जा रहा है। भाजपा ने असम गण परिषद और तीन अन्य क्षेत्रीय दलों के चुनावी तालमेल किया है। जबकि सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पूरी ताकत झौंक दी है। चुनाव की घोषणा से पहले ही प्रधानमंत्री दो चुनावी रैली संबोधित कर चुके हैं। फिलहाल के राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा की जीत सुनिश्चित नजर नही आ रही है।राज्य में मुकाबला कांग्रेस और भाजपा गठबंधन के बीच बराबर का माना जा रहा है। इसकी अहम वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में आई गिरावट को माना जा रहा है।

बहरहाल अगर इस राज्य में भाजपा सरकार बनाने में सफल नही हुई, तब कांग्रेस मुक्त भारत की बात करने वाले मोदी को करारा झटका लगेगा। जिन अन्य राज्यों यानि केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में भाजपा को सत्ता का दावेदार नही माना जा रहा है। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के वक्त भाजपा को 18 फीसदी मत मिले थे और उसे एक सीट जीतने में कामयाबी मिली थी। केरल में भाजपा को 10.30 फीसदी मत मिले थे, जबकि उसका कोई भी उम्मीदवार जीतने में सफल नही हुआ था। तमिलनाडु में भाजपा को 5.50 फीसदी मत हासिल हुए थे और उसको एक सीट भी हासिल हुई थी। लोकसभा चुनाव के वक्त इन सभी राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन पहले से बेहतर रहा था। लिहाजा इन राज्यों में भाजपा के सामने अपने जनाधार को बचाने की चुनौती होगी। दरअसल बिहार के बाद भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती अगले साल के शुरू में होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव होंगे। उत्तर प्रदेश और बिहार में अप्रत्याशित सफलता के बूते पर ही लोकसभा चुनाव में भाजपा पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रही थी। उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीट में से भाजपा और उसके घटक दल को 73 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी प्रदेश की वाराणसी सीट से लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते हैं। लिहाजा प्रदेश विधानसभा चुनाव उनकी प्रतिष्ठा का मुद्दा भी है। पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 232 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी 80 सीट पर सिमट कर रह गई थी। भाजपा 4 सीट के नुकसान के साथ 47 सीट पर सिमट गई थी, जबकि कांग्रेस 6 सीट के फायदे के साथ 28 सीट हासिल कर सकी थी। लोकसभा चुनाव में जहां बसपा का खाता भी नही खुला, वहीं सत्तारूढ़ सपा पांच सीट ही जीत सकी और सपा के समर्थन से कांग्रेस के खाते में दो सीट आयीं। लिहाजा अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रबल दावेदार माना जा रहा है। जबकि प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य इसके उलट नजर आ रहा है। हाल ही में तीन विधानसभा सीट के उपचुनाव में दंगा प्रभावित इलाके में जहां भाजपा एक सीट जीती, वहीं इस क्षेत्र में कांग्रेस की जीत ने साफ संकेत दिया है कि अगले विधानसभा चुनाव में कांगे्रस का प्रदर्शन बेहतर रहेगा। प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर की आशंका व्यक्त की जा रही है। लिहाजा राजनीतिक पंडित प्रमुख विपक्षी दल बसपा को सत्ता के नजदीक मान रहे हैं। बहरहाल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव तक भाजपा के केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए करीब तीन साल हो चुके होंगे। प्रदेश के मतदाता लोकसभा चुनाव में किये गये नरेंद्र मोदी के वायदों के पूरा होने का आंकलन कर रहे होंगे। इस चुनाव में भाजपा के 71 सांसदों के कामकाज का भी आंकलन किया जा रहा होगा। भाजपा ने सांप्रदायिक आधार पर मतों के विभाजन को अंजाम देना शुरू कर दिया है। दादरी प्रकरण और राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उछालना उसी रणनीति का हिस्सा हैं। लेकिन इसका फायदा चुनाव में होगा, इसकी संभावना कम ही नजर आती है। प्रदेश में मुख्य मुकाबला सपा और बसपा के बीच होना है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी नीतीश कुमार की तरह विकास पुरूष की छवि बनाने में कामयाब रहे है। उनके विरोधी भी स्वीकार करते है कि अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में प्रदेश के विकास पर विशेष ध्यान दिया है। लिहाजा अखिलेश सरकार की छवि आम मतदाता में बेहतर ही बनी है। कानून व्यवस्था को लेकर जरूर सवाल खड़ा किया जाता है। लेकिन इसका चुनावी गणित पर बहुत अधिक प्रभाव नही पड़ता। प्रमुख विपक्षी दल बसपा के दलित मतों में सेंध लगाना मुश्किल है, लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह सवर्णाें के मत बसपा के पक्ष में गोलबंद होंगे, इसकी संभावना कम ही है। अगले विधानसभा चुनाव में सवर्ण मत कांग्रेस और भाजपा के इर्द गिर्द ही गोलबंद होते नजर आ रहे हैं। मोदी सरकार चुनावी वादे पूरा करने में सफल नही हुई है। आम आदमी सबसे ज्यादा प्रभावित मंहगाई से होता है। इस मुुद्दे ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया है। लिहाजा यह मुद्दा मोदी सरकार के लिए भी खतरे घंटी बना हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में गिरावट और प्रदेश भाजपा में आपसी खिंचतान भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व परेशान कर रहा है। प्रदेश अध्यक्ष का फैसला भी अभी तक नही किया जा सका है। जबकि मौजूदा प्रदेशाध्यक्ष का कार्यकाल समाप्त हो चुका है। इन हालात में भाजपा को सत्ता की दौड़ में शामिल नही माना जा सकता। अब सवाल यह है कि अगली सरकार का गठन कैसे और कौन करेगा। यह फिलहाल यही कहा जा सकता है कि अगर भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव से बेहतर प्रदर्शन किया, तो बसपा के सत्ता पर काबिज होने की संभावना बढ़ जाएगी। प्रदेश को एक बार फिर भाजपा के समर्थन से बसपा की सरकार मिलेगी। अगर भाजपा के प्रदर्शन पिछले चुनाव से खराब रहा, तो कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर होने की संभावना बढ़ जाएगी और अखिलेश सरकार के लगातार दूसरी बार सत्ता पर काबिज होना लगभग तय हो जाएगा।

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