(धर्मपाल धनखड़): जाट आरक्षण की आग में पूरा प्रदेश धू-धू कर जलता रहा और जिन पर लोगों के जानमाल की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी वे छुपकर बैठे रहे। आंदोलन की आड में पूरे प्रदेश में उपद्रवी खुलेआम सार्वजनिक और निजी सम्पतियों को लूटते और आग में स्वाह करते रहे। इसके चलते 28 लोग अर्धसैनिक बलों, सेना की गोलियों और आपसी संर्घष में अकाल मृत्यु का ग्रास बन गये और बड़ी संख्या में घायल हो गये। करीब बीस हजार करोड़ का नुकसान हो गया और प्रदेश दस साल पीछे चला गया। आगजनी और लूटपाट से फायदा किसी को नहीं हुआ और नुकसान पूरे प्रदेश का हुआ है। सबसे बड़ा नुकसान सामाजिक भाईचारे का हुआ। हफ्ते भर तक ऐसा लगा मानो प्रदेश में सरकार नाम की कोई चीज नहीं हैं। सरकार के हाथपाव फूल गये। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर बार बार केन्द्र से सेना और अर्ध सैनिक बल भेजने की गुहार लगाते नजर आये। जाट मंत्री आंदोलनकारियों की मांग पूरा करवाने के लिए केन्द्र और राज्य सरकार के मंत्रियों और भाजपा नेताओं के साथ बैठकें करने में व्यस्त रहे। प्रदेश के बाकी मंत्रियों, विधायकों और सांसदों को मानों सांप सूंघ गया था।
सब निरपेक्ष भाव से तमाशा देखते रहे या फिर ये मंथन करते रहे कि सारे मामले का ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाये। विपक्ष भी जलती आग में रोटिया सेंकने का काम कर रहा था, और सेंके भी क्यों ना, जब सरकार उन्हें बैठे बैठाये मौका उपलब्ध करवा रही है। केन्द्र सरकार के ठोस आश्वासन के बाद अंततः आठ दिन बाद आंदोलन की आग रूकी और आम आदमी ने राहत की सांस ली। इसके साथ ही राजनेताओं ने घडि़याली आंसू बहाने शुरू कर दिये और अपने अपने वोट बैंक को संभालने की सुध आयी। पक्ष -विपक्ष में खुद को पाक-साफ बताने और दूसरों को दोषी ठहराने की कवायद शुरू हो गयी। प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्य सरकार में मंत्री अनिल विज ने तो यहां तक कह दिया कि पूरी प्रदेश सरकार को दो जाट मंत्रियों, ओमप्रकाश धनखड और कैप्टन अभिमन्यु ने हाइजैक कर लिया था, जबकि आंदोलनकारियों ने रोहतक में कैप्टन अभिमन्यु के घर को लूटपाट के बाद आग के हवाले कर दिया। ओमप्रकाश धनखड़, गीता भुक्कल और सांसद राजकुमार सैनी, धर्मबीर सिंह समेत कई विधायकों और सांसदों के घरों को भी निशाना बनाया गया। सरकार ने निर्दोष मृतकों के परिजनों और आंदोलन के दौरान जिनकी सम्पति को नुकसान पहुंचा है उन्हें मुआवजा देने की घोषणा करके जख्मों पर मरहम लगाने का काम शुरू किया है। हालांकि मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर जब रोहतक में पीडितों के आंसू पोछने पंहुचे तो उन्हें लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा। यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र हुड्डा जब व्यापारियों के धरने पर पहुंचे तो उन्हें ना केवल विरोध का सामना करना पड़ा, बल्कि उन पर जूता भी फेंका गया। लोगों का गुस्सा भड़कना भी वाजिब है। जिस तरह पूरे प्रदेश को हिंसा की आग में झौंक दिया गया ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। अब सवाल यह उठता है कि शांतप्रिय और 36 बिरादरी के भाईचारे के लिए जाने जाने वाले हरियाणा को जातिय ंिहंसा की आग में झौकने के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है। ये जानने के लिए थोड़ा पीछे झाकना होगा। प्रदेश में आंदोलन पहले भी होते रहे हैं, लेकिन कभी इस तरह आग नहीं भड़की। जाट आरक्षण आंदोलन भी काफी लम्बे समय से चल रहा था। कांग्रेस की भूपेन्द्र सिंह हुड्डा सरकार में भी जाटों ने आरक्षण की मांग को लेकर लंबा आदोलन किया। रेल लाइनें और सड़कें रोकी गयी, लेकिन इस तरह लूटपाट आगजनी और हिंसा नहीं हुई। लंबे संर्घष के बाद पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राज्य की हुड्डा सरकार और केन्द्र की यू पी ए सरकार ने जाटों समेत पांच जातियों रोड, बिश्नोई, जट सिख, और त्यागी को आरक्षण भी दिया। चुनावी फायदा लेनेे की हड़बड़ी में सरकार ने कुछ खामिया छोड़ दी, जिसके चलते सर्वोच्च न्यायलय ने जाट आरक्षण को खत्म कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद आरक्षण के तहत विभिन्न नौकरियों में चयनित हुए जाट युवाओं को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। जिस समय सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया, तब केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुआई में एन.डी.ए की सरकार थी। जाट नेता प्रधानमंत्री से मिले और उन्होंने जाटों को आरक्षण देने का आश्वासन दिया। वहीं प्रदेश की भाजपा सरकार ने भी जाटों को आरक्षण देने का वादा किया। लेकिन साल भर का अरसा गुजरने पर भी ना तो केन्द्र और ना ही राज्य सरकार ने आरक्षण देने के लिए कोई ठोस प्रक्रिया शुरू की। उधर, सर्वोच्च न्यायलय के जाट आरक्षण रद्द किये जाने के बाद, जहां कांग्रेस और मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की मंशा पर सवाल उठने लगे वहीं मंडल आयोग के तहत आरक्षण पाने वाली जातियों में अपना हक छीने जाने की आशंका बलवती होने लगी। इसी का फायदा उठाकर कुरूक्षेत्र से भाजपा के सांसद राजकुमार सैनी ने अन्य पिछड़ी जातियों के हकों की रक्षा के नाम पर उन्हें संगठित करना शुरू कर दिया। बात अपने हकों की रक्षा के लिए संगठित होने और अपनी आवाज बुलंद करने तक सीमित रहती तो ठीक था। लेकिन राजकुमार सैनी के मन में शायद ओ बी सी का एकछत्र नेता बनने की महत्वाकांक्षा हावी हो गयी। राजकुमार सैनी और उनकी ओ बी सी ब्रिगेड के छुटभय्ये नेताओं ने जाट समुदाय के बारे में सार्वजनिक तौर पर अभद्र और अमर्यादित टिप्पणियां करनी शुरू कर दी। इन टिप्पणियों से जाट बुरी तरह आहत हो रहे थे। उनमें राजकुमार सैनी और सैनी समुदाय के खिलाफ जबरदस्त रोष पनप रहा था। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने सैनी पर रोक लगाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की। जाट नेताओं के बार बार सरकार और भारतीय जनता पार्टी को चेतावनी देने के बावजूद, सैनी और उनके समर्थकों की अमर्यादित और उकसाने वाली बयानबाजी जारी रही। सतही तौर पर कहा जा सकता है कि भाजपा नेतृत्व ने सैनी की टिप्पणियों को गंभीरता से नहीं लिया। वहीं भाजपा की कार्यशैली और राजनीतिक इतिहास को देखते जानने वाले प्रेक्षकों का मानना है कि पार्टी नेतृत्व ने जानबूझकर सोची समझी रणनीति के तहत सांसद सैनी को जाट समुदाय के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी जारी रखने की छूट दी। विधानसभा चुनाव में भाजपा को जाट बहुल इलाकों में कम सीटंे मिली, इससे पार्टी नेतृत्व का मानना है कि जाट भाजपा के साथ नही है। भाजपा के रणनीतिकार इस निष्कर्ष पर पंहुचे कि जितना सांसद राजकुमार सैनी जाटों के खिलाफ बयानबाजी करेंगे, उतना जाटों में नाराजगी बढ़ेगी। जाट भी ओ बी सी के खिलाफ बोलेंगे और, गैरजाट भाजपा के पक्ष में एकजुट हो जायेंगे। दूसरी ओर जाट समुदाय सर्वोच्च न्यायालय के आरक्षण रद्द किये जाने के बाद भाजपा सरकार से संविधान के दायरे में आरक्षण पाने की उम्मीद कर रहा था, जिसे न्यायालय में चुनौती ना दी जा सके। लेकिन बार बार मांग करने के बावजूद आरक्षण देने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। भाजपा के नेता और मंत्री ये तो कहते रहे कि उनकी पार्टी जाटों को आरक्षण देने के पक्ष में है और राजकमार सैनी के बयानों का पार्टी से कोई सरोकार नहीं है। इससे जाट समुदाय में सैनी और ओ बी सी जातियों के खिलाफ रोष बढ़ रहा था, वहीं गैरजाट समुदाय में भी जाटों और उनके आंदोलन के प्रति तलखी बढ़ रही थी। जाट आरक्षण आंदोलन के जोर पकड़ने की सूचनाएं लगातार सरकार को मिल रही थी। जाट आंदोलनकारी सड़कों पर उतर चुके थे। तब मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने आंदोलन चला रहे विभिन्न गुटों के नेताओं से मुलाकात करके जल्द आरक्षण देने की घोषणा की, जिसे यशपाल मलिक और कुछ खाप नेताओं ने मान लिया। लेकिन हवासिंह सांगवान गुट ने मानने से मना कर दिया और वह रेल पटरी पर धरना देकर बैठ गये। बाद में सरकार ने हवासिंह सांगवान को आंदोलन वापस लेने के लिए मना लिया, लेकिन युवाओं ने जाट नेताओं को नकार दिया और आरक्षण मिलने तक संर्घष जारी रखने के इरादे से आंदोलन की कमान संभाल ली। अब सरकार के सामने मुश्किल यह आयी कि आंदोलन रोकने के लिए किससे बात करें। नेतृत्वविहिन जाटों का आंदोलन शांतिपूर्वक चल रहा था। तमाम मुख्य रास्ते बंद होने से आम आदमी को परेशानी हो रही थी। इस बीच रोहतक में डी सी आफिस के बाहर, आरक्षण के समर्थन में शांतिपूर्वक धरना दे रहे जाट वकीलों पर 35 बिरादरी का बैनर थामे लोगों के एक समूह ने उन पर हमला कर दिया। वकीलों से मारपीट की गयी। इनमें भाजपा कार्यकर्ता शामिल बताये जाते हैं। इस घटना ने आंदोलन की आग में घी का काम किया और अगले दिन से ही रोहतक में आई जी आफिस के सामने जुटे आंदोलनकारियांें और पुलिस में टकराव शुरू हो गया। बी एस एफ की ओर से की गयी फायरिंग में एक युवक की मौत हो गयी। इसके बाद भीड़ ने उग्र तोड़फोड़ और आगजनी शुरू कर दी। इस आग ने ना केवल रोहतक, बल्कि पूरे प्रदेश को अपनी चपेट में ले लिया। पहले रोहतक और भिवानी में कफ्र्यू लगाया गया बाद में छह जिलों में कफ्र्यू लगाना पड़ा। हालात पर काबू पाने के लिए सेना और अर्ध सैनिक बलों को तैनात किया गया। उग्र भीड़ के सामने पुलिस प्रशासन बेबस नजर आया। मुख्यमंत्री ने लोगों से शांति बनाये रखने की अपील की लेकिन जब इसका कोई परिणाम सामने नहीं आया तो जाट मंत्रियों को अपील करनी पड़ी। विपक्षी नेताओं भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और अभयसिंह चैटाला ने शांति की अपील की। राज्य और केन्द्रीय नेताओं की कई बैठकों के बाद, केन्द्र सरकार ने हाई पावर कमेटी गठित कर, जाटों को आरक्षण देने की घोषणा की। कांग्रेस से धोखा खाये आंदोलनकारियों को सरकार के वादों पर यकीन दिलवाने के लिए जाट नेताओं और मंत्रियों को काफी मशक्कत करनी पड़ी। प्रदेश में शांति बहाली की प्रक्रिया के साथ ही राजनीतिक दलों में एक दूसरे पर हिंसा करवाने के आरोप लगाने का सिलसिला शुरू हो गया। इसी कड़ी में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के राजनीतिक सलाहकार प्रो. वीरेन्द्र सिंह की दलाल खाप के एक नेता से टेलिफोन पर बातचीत का टेप टी वी चैनलों पर दिखाया गया। जिसमें प्रो वीरेन्द्र सिंह को सिरसा में आंदोलन शुरू करवाने की बात कह रहे हैं। प्रो वीरेन्द्र सिंह और खाप नेता ने स्वीकार किया है कि आडियों क्लिप में उनकी आवाज है, लेकिन बातचीत को काट पीट कर दिखाया गया है। आंदोलन प्रभावितों को मुआवजे को लेकर भाजपा सरकार के मंत्रियों और विधायकों का टकराव सामने आने लगा है। भाजपा सरकार की पूरी कोशिश है कि आंदोलन के हिंसक होने का ठीकरा विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के सिर फोड़ा जाये। इसके साथ ही भाजपा के जाट नेताओं पर भी आंदोलन को हवा देने के आरोप खुद भाजपा के विधायक और मंत्री मढ़ने लगे हैं। राज्य के पुलिस प्रमुख सरकार और प्रशासन की विफलता को मीडिया के सामने स्वीकार कर चुके हैं। हालांकि सरकार ने आंदोलन की घटनाओं को लेकर निष्पक्ष जांच करवाने और दोषियों को सजा दिलवाने की घोषणा की है। भले विपक्ष ने जाट आंदोलन को हवा दी हो, लेकिन सवाल ये है कि उन्हें ये मौका किसने दिया। साफ है कि प्रदेश सरकार आंदोलनकारियों से निपट पाने में पूरी तरह विफल रही है। इसके पीछे तर्क ये दिया जा रहा है कि अगर सरकार सख्ती बरतती तो आंदोलन और ज्यादा हिंसक हो सकता था। इसीलिए प्रदेश को सेना और अर्धसैनिक बलों के हवाले नहीं किया गया। सरकार की इस आशंका को निराधार नहीं कहा जा सकता। लेकिन देरी से कदम उठाने, विपक्षी नेताओं को आंदोलन को हवा देने का मौका देने और लोगों के जानमाल की सुरक्षा ना कर पाने की जिम्मेदारी से सरकार बच नहीं सकती। आरक्षण की गंेद अभी राज्य और केंद्र सरकार के पाले में है वो इससे किस तरह निपटती है ये तो आने वाला समय ही बतायेगा। शांतिप्रिय हरियाणा को आग की लपटों से झुलसाने वाले इस आंदोलन से प्रदेशवासियों जो क्षति हुई है, उसकी टीस उन्हें बरसों तक झुलसाती रहेगी। जिन लोगों ने अपने प्रियजनों को आंदोलन के चलते खो दिया है और जिनके रोजी रोटी के साधन खाक हो गये हैं, वो शायद ही कभी दोषी राजनीतिकों और आंदोलनकारियों को माफ कर पाये। प्रदेश के 36 बिरादरी के भाईचारे को जो आग लगायी गयी है उसकी आंच में राजनीतिक दल बरसों तक सियासी रोटियां सेंकते रहेंगे। इस आंदोलन से एक बार फिर राजनीति का स्याह चेहरा उजागर हुआ है।