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(आशु सक्सेना) देश में करीब तीन दशक बाद किसी एक राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल करने में कामयाबी मिली है। राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन राजनीति हवा के मुताबिक बदलते रहते हैं। लेकिन पिछले तीन दशक में देश में गठबंधन धर्म पर चर्चा राजनीतिक मजबूरी बन गई है। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में यद्यपि अपने बूते पर बहुमत हासिल कर लिया था। लेकिन गठबंधन धर्म का निर्बाह करते हुए अपने सभी घटक दलों को सरकार में हिस्सेदारी दी। इसके बावजूद राजग के घटक दलों ने भाजपा के व्यवहार पर आपत्ति दर्ज करते हुए यह हिदायत दी है कि राजग नेतृत्व वाजपेयी युग जैसे गठबंधन धर्म का अनुपालन करे। केंद्र की सत्ता पर काबिज राजग के घटक दलों की भाजपा के व्यवहार पर सवालिया निशान लगाना पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघरे मे खड़ा करना हैं।

सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व पर घटक दलों ने सवाल क्यों दागा, जबकि अधिकांश घटक भाजपा के पुराने साथी है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के वक्त खुद को धर्म निरपेक्ष कहने वाले दलों ने भी भाजपा के साथ बिना किसी विवाद के भागीदारी की। जबकि नरेंद्र मोदी के बागड़ोर संभालने के बाद ना सिर्फ राजग के कई महत्वपूर्ण दलों ने भाजपा से नाता तोड़ दिया, बल्कि शिवसेना जैसे वैचारिक समानता रखने वाले घटक भी राजग नेतृत्व के खिलाफ सार्वजनिक टिप्पणी करते रहते हैं। राजग में भाजपा के व्यवहार को लेकर विरोध का स्वर उठना स्वाभाविक है। इस हकीकत को नजरअंदाज नही किया जा सकता कि 2014 के लोकसभा चुनाव के नायक नरेंद्र मोदी थे। लिहाजा घटक दलों को मिली कामयाबी में मोदी की लोकप्रियता ने अहम् भूमिका अदा की थी। लिहाजा भाजपा खासकर नरेंद्र मोदी के रूख में बदलाव स्वाभाविक था। 26 मई 2014 को सत्ता पर काबिज होने के बाद पार्टी को मिले बहुमत का अहम मोदी के सिर चढ़कर बोल रहा था। लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव मोदी ने अकेले लड़ने का फैसला किया। हरियाणा में राजग ने हरियाणा जनहित पार्टी और इंडियन नेशनल लोकदल जैसे अपने पुराने घटक दलों को खो दिया। वहीं महाराष्ट में शिवसेना को भाजपा के खिलाफ खड़ा कर दिया। मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान शिवसेना को निशाना बनाया। यह बात दीगर है कि चुनाव के बाद मोदी को बहुमत की अंकगणित के चलते शिवसेना से हाथ मिलाना पड़ा और केंद्र और महाराष्ट दोनों ही सरकारों में हिस्सेदारी देनी पड़ी। विधानसभा चुनाव के वक्त दोनों दलों के बीच शुरू हुआ विवाद अभी भी थमा नही है। शिवसेना वक्त बेवक्त भाजपा पर निशाना साधने से नही चूकती है। बहरहाल मोदी के बदले हुए रूख से गठबंधन धर्म का वाजपेयी युग और मोदी युग में फर्क साफ नजर आने लगा था। वाजपेयी युग में घटक दल लगातार बढे़ थे, वहीं मोदी युग में जहां राजग के कई पुराने साथी साथ छोड़ गये, वहीं गठबंधन में शामिल घटक सार्वजनिक तौर पर भाजपा की आलोचना करने में कोई कौर कसर नही छोड़ रहे हैं। बिहार में पार्टी की हार के लिए भी घटक दलों और पार्टी के नेताओं ने मोदी और शाह को सर्वजनिक तौर पर जिम्मेदार ठहराया। वाजपेयी युग के बाद राजग से नाता तोड़ने वाले घटक दलों की संख्या में लगातार हिजाफा हो रहा है। बीजू जनतादल, जनतादल युनाइटेड, द्रमुक, नेशनल कांफ्रेंस जैसी ताकतवर क्षेत्रीय ताकतों ने राजग से किनारा कर लिया। राजग के जिन पुराने घटकों ने मोदी युग में पुनःं वापसी की है, वह वहीं राजनीतिक दल हैं, जो 2009 के लोकसभा चुनाव में अपनी जमीन खो चुके थे। उन दलों को मोदी लहर में खुद को मजबूत करने का मौका मिला है। लोकजनशक्ति पार्टी अध्यक्ष रामविलास पासवान 2009 के चुनाव में खुद चुनाव हार गये थे। लोकसभा में उनकी पार्टी का अस्तित्व खत्म हो गया था। तेलगूदेशम पार्टी की भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति थी। मोदी युग में दिलचस्प पहलू यह देखने को मिला कि विधानसभा चुनाव में मोदी ने जिन दलों के खिलाफ प्रचार लड़ा। चुनाव के बाद सत्ता की खातिर उन्हीं दलों के साथ समझौता किया। महाराष्ट्र में शिवसेना और जम्मू कश्मीर में पीडीपी इसकी मिसाल हैं। राजग से घटक दलों की बेरूखी का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि जम्मू कश्मीर में सरकार गठन को लेकर अभी तक असमंजस की स्थिति बरकरार है। सवाल यह है कि राजग से मोहभंग का यह सिलसिला अगर कायम रहा, तो 2019 के लोकसभा चुनाव में राजग को अपने घटक ढ ुंढने मुश्किल हो जाएंगे। दरअसल, पिछले तीन दशक में देशवासियों ने केंद्र की सत्ता पर तीन गठबंधनांे को काबिज देखा। 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा रामो और वाममोर्चा वामो गठबंधन ने विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में केंद्र में सरकार का गठन किया। यह देश की राजनीति का अद्भूत गठबंधन था। इस सरकार को वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों की ताकतों ने बाहर से समर्थन किया। यह बात दीगर है कि राममंदिर मुद्दे पर जब भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस लिया, तब 11 महीने की इस सरकार का पतन हो गया। उसके बाद कांग्रेस के समर्थन से चार महीने चंद्रशेखर सरकार केंद्र में काबिज रही। नतीजतन कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद देश को दूसरी बार मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। अगले चुनाव में लोकसभा त्रिशंकु थी। चुनाव के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के चलते कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और पी.वी. नरसिंम्हा राव ने केंद्र में अल्पमत सरकार का गठन किया और तमाम विवादों के बावजूद अपना कार्यकाल पूरा किया। दरअसल गठबंधन युग की सही मायने में शुरूआत 1996 में हुई। 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत हासिल नही हुआ था। लेकिन 160 सीट के साथ भाजपा सबसे बडे़ दल के रूप में उभरी। सबसे बड़ा दल होने के नाते भाजपा ने सरकार बनाने का दावा पेश किया और निवर्तमान राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का न्यौता दे दिया। तमाम हथकंड़ो के बावजूद भाजपा बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल नही कर सकी। 13 दिन की वाजपेयी सरकार के पतन के बाद एच.डी.देवेगौंडा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार का गठन हुआ। इस मोर्चे में वामपंथी दल शामिल थे। कांग्रेस के समर्थन से केंद्र की सत्ता पर काबिज संयुक्त मोर्चा सरकार अपना कार्यकाल पूरा नही कर सकी। नतीजतन देश को एक और मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा एक बार फिर सबसे बड़ा दल बनी। इस बार भाजपा 181 सीट जीती थी। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी को समर्थन देने वाले दलों की लाइन लग गई। संयुक्त मोर्चा के संयोजक और तेलगूदेशम पार्टी प्रमुख चंद्रबाबू नायडु समेत तमाम दल वाजपेयी के नेतृत्व में गोलबंद हुए और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार अस्तित्व में आई। घटक दलों के बीच मतभेदों के चलते राजग की पहली सरकार लोकसभा में एक मत से पराजित हो गई। मध्यावधि चुनाव के बाद भाजपा की सीटों की संख्या तो नही बढ़ी, लेकिन घटक दलोें की संख्या में काफी हिजाफा हुआ। अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में 24 राजनीतिक दल राजग के घटक थे। लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में राजग की हार के बाद घटक दलों के नाता तोड़ने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए ने भी दो गठबंधन सरकारों का कार्यकाल पूरा किया। पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व को गठबंधन धर्म के लिहाज से बेहतर माना जा रहा है। मनमोहन सिंह ने अपनी दोनों गठबंधन सरकारों का कार्यकाल पूरा किया है। 2014 के चुनाव में शर्मनाक हार का सामना करने वाली कांग्रेस को नये राजनीतिक साथी खासकर नीतीश कुमार मिलें है। वहीं राजग अपने पूराने घटकों की आलोचना झेल रहा है। राजग के स्टार प्रचारक मोदी का जादू दिनों दिन कम हो रहा है। दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव नतीजे इस हकीकत को बयां कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमित शाह की दूसरी बार ताजपोशी करवाकर पार्टी पर फिलहाल पकड़ का संदेश दे दिया है। लेकिन भाजपा के भीतर और उसके सहयोगी संगठनों को यह चिंता सता रही है कि अगले लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल करना मुश्किल प्रतीत हो रहा है। ऐसे में घटक दलों का मोहभंग राजग को भारी पड़ सकता है। लिहाजा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को इस हकीकत से रूबरू होना होगा कि गठबंधन धर्म को वाजपेयी युग की तरह निभाने पर ही सत्ता में वापसी संभव है।

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