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(आशु सक्सेना) समाजवादी पार्टी में बिखराव का फायदा किसको होगा, इसका फैसला तो 11 मार्च को चुनाव नतीजों के बाद ही तय होगा। लेकिन एक बात साफ है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने उन आलोचकों को करारा जबाव दिया है, जो यह आरोप लगाते थे कि उत्तर प्रदेश की सत्ता रिमोंट से चलाई जा रही है। यूँ तो पिछले छह महीने से लगातार अखिलेश यह संकेत दे रहे थे कि प्रदेश की बागड़ोर उनके हाथ में है और वह ऐसे किसी भी व्यक्ति को सत्ता में भागीदारी नही देंगे, जो उनके विकास कार्यों में बाधक नजर आ रहा है। एक सरकारी समारोह में उन्होंने कहा था कि कुछ लोग कहते हैं कि प्रदेश के तीन चार पांच मुख्यमंत्री हैं, अगर इन हालात में इतना काम हुआ है, तो कल्पना कीजिए कि जब एक ही मुख्यमंत्री होगा, तब कितना काम होगा। उनके इस बयान से साफ हो गया था कि वह अगला विधानसभा चुनाव अपनी स्वतंत्र छवि और मौजूदा सरकार को बदनाम करने वाले लोगों के साथ नही लडेंगे। इस बात पर कोई विवाद नही है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कार्यकाल में विकास कार्यों में तेजी आई है और अखिलेश को लोग विकास पुरूष के तौर पर स्वीकार करने लगे हैं। दिलचस्प पहलू यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहां सपा का जनाधार नही माना जाता है, वहां के लोगों का भी यह मानना है कि अखिलेश यादव प्रदेश का विकास करना चाहते हैं, लेकिन उनको कुछ लोग काम नही करने दे रहे हैं। इन लोगों का मानना है कि अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव उनकी राह में सबसे बडी रूकावट हैं। अब अगर पिछले दिनों के राजनीतिक घटनाक्रम पर नज़र डालें तो अखिलेश यादव ने सबसे पहले अपने चाचा को निशाना बनाया, लेकिन पिता मुलायम सिंह के कहने पर उन्हें फिर मंत्रिमंडल में वापस ले लिया।

लेकिन तेजी से घुमें राजनीतिक घटनाक्रम में इस दौरान छह साल बाद पार्टी में लौटे अमर सिंह भी प्रवेश कर गये और मुलायम सिंह ने अचानक अपने बेटे अखिलेश यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर यह दायित्व शिवपाल को सौंप दिया। यहां से पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई तेज हो गई और अखिलेश यादव ने शिवपाल और अमर सिंह के खिलाफ खुलकर मोर्चा संभाल लिया। यहां यह ज़िक्र करना जरूरी है कि जब 2007 के विधानसभा चुनाव में पार्टी सत्ता में रहते हुए 100 सीट से नीचे आ गई थी, तब अखिलेश यादव ने प्रदेश में सघन जनसंपर्क अभियान चलाकर उस पार्टी को 224 तक पहुंचाया और इस दौरान अमर सिंह को भी पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था। बहरहाल अब संघर्ष 2017 विधानसभा चुनाव में जनता के बीच जाने का है। इस संघर्ष में कौन विजयी होगा यह तो फिलहाल नही कहा जा सकता, लेकिन एक बात साफ है कि अखिलेश यादव ने एक स्वतंत्र नेता की छवि स्थापित कर ली है। दिलचस्प पहलू यह है कि मामला चुनाव आयोग में जाने के बाद मुलायम सिंह यादव ने जहां आयोग में तकनीकी आधार पर अखिलेश यादव की दावेदारी को खारिज किया है, वहीं अचानक पहली बार अखिलेश यादव को प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री भी स्वीकार किया है। अब सवाल यह उठता है कि क्या अखिलेश पिता के इस प्रस्ताव को स्वीकार करके पार्टी के पुराने ठर्रे को स्वीकार करते हैं या फिर अपनी स्वतंत्र छवि को स्थापित करते हैं। जबकि अखिलेश यादव ने पार्टी की पुरानी जातिवादी छवि को तोड़ते हुए खुद को जन सामान्य का नेता स्थापित कर लिया है। अखिलेश यादव ने जहां प्रदेश के विकास के साथ साथ रोजगार के लिए भी काम किया है, वहीं उन्होंने सामाजिक स्तर पर सांप्रदायिक सद्भाव की दिशा में भी काम करने का प्रयास किया है। उसमें बिना किसी जातिगत भेदभाव के बुर्जुगों को तीर्थयात्रा करवाना हो या फिर अयोध्या में रामलीला पार्क की स्थापना। मुस्लिम संप्रदाय के लिए हर संभव राहत पहुंचाने की कोशिश और सिख और इसाई समाज को भी साथ रखने के प्रयास हो। इसके अलावा अखिलेश यादव ने किसानों को सिंचाई के लिए पानी और बिजली का भी ख्याल रखा। इतना ही नही उन्होंने प्रदेश के सबसे पिछडे़ इलाके बुंदेलखंड के लोगों को संपन्न करने के लिए भी काम किया। अखिलेश ने उस क्षेत्र कर महिलाओं को हस्तकरघा में पारंगत करवाने के लिए सरकार के खर्च पर मध्यप्रदेश के झाबुआ भेजा और उनको लखनऊ में जगह देकर उनको स्वरोजगार देने का काम भी किया है। इन हालात में सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव पितामोह में अपने कदम वापस खिंचलेंगे या फिर विधानसभा चुनाव में हारजीत की चिंता किये बगैर भविष्य की ओर कदम बढ़ाएंगे। प्रदेश विधानसभा चुनाव में यह पहला मौका है, जब विकास एक मुद्दा है। भाजपा अभी तक अपना कोई विकास पुरूष प्रस्तुत नही कर सकी है। लिहाजा इस प्रदेश में भी मुकाबला गुजरात से देश के विकास पुरूष बने नरेंद्र मोदी और अखिलेश यादव के बीच है। गुजरात जो मोदी के 12 साल के शासन के बाद आज भी सौराष्ट्र के पिछडे़ होने का गवाह है और उत्तर प्रदेश जहां अखिलेश ने सबसे पिछडें़ इलाके बुंदेलखंड के विकास के लिए पांच साल में एक नया इतिहास रचा है।

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