(धर्मपाल धनखड़): जीवन और प्रकृति के प्रति संवेदनशील हमारा भारतीय समाज विकास की लय पर कदम-ताल करते हुए न जाने कब और कैसे 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाते रहने वाले समाज में तब्दील हो गया। ये समाजशास्त्रियों के लिए गहन अध्ययन का विषय है। वास्तविकता ये है कि हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों पर चलने का ढोंग करते-करते मंथरा के फालोवर होते चले गये। इसके साथ ही हमारी 'कथनी और करनी' बिल्कुल विपरीत हो गयी। इसीलिए हम जिसे खत्म करना चाहते हैं, उसके लिए जोर-शोर से 'बचाओ-बचाओ' का उद्घोष करने लगते है।
बरसों पहले वनों को बचाने के लिए खूब आवाज उठायी गयी, लेकिन हम उन्हें निरंतर खत्म करते जा रहे हैं। वन्य जीव-जंतुओं को बचाने का नारा दिया तो आज अनेक प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कुछ भविष्य में लुप्त हो जायेंगी। पहाड़ बचाने के स्लोगन के साथ हम निरंतर उन्हें काटते-तोड़ते जा रहे हैं। नदियों को पवित्र, पूज्य और जीवनदायिनी बताकर, उन्हें बचाने की मुहिम छेड़ी, तो ना केवल उनके रास्ते में विकास के रोड़े अटकाए, बल्कि मल-मूत्र डालकर उन्हें गंदा करने में जी-जान से जुटे हैं।
जल और जल स्रोत बचाने की गुहार लगाई तो पानी की बर्बादी और ज्यादा बेदर्दी से करने लगे। साथ ही जल सहेजने वाले कुएं, बावड़ी, कुंड, टांके, जोहड़ और तालाबों को मूल से ही खत्म कर दिया। जंगल और जमीन बचाने को जो आदिवासी समाज लड़ रहा था, तंत्र ने उन्हें ही हिंसक नक्सलवादी बना दिया। कन्या को पूजा, महिला को देवी का दर्जा दिया और उसके प्रति अत्याचार बढ़ते गये। लड़कियों को बचाने का नारा दिया, तो जहां पहले पैदा होने पर मारते थे। अब जन्म से पहले कोख में ही मारने लगे। संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए भी हम खूब हल्ला मचाते हैं और लगातार दोनों को ही कमजोर कर रहे हैं।
पिछले कुछ बरसों से गाय बचाने का जबरदस्त हल्ला है। गाय के पोष्टिक दूध से ज्यादा हमारे लिए उसका मल-मूत्र ज्यादा गुणकारी हो गया। इसलिए गाय का आर्थिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व बढ़ गया। लेकिन धार्मिक और आर्थिक महत्व एक दूसरे के विपरीत और विरोधी हो गये। धार्मिक महत्व इतना ज्यादा हो गया कि गौरक्षा के लिए हम 'माब लींचिंग' करके आदमी की जान लेने से भी पीछे नहीं हटते। वहीं दूसरी तरफ डालर कमाने के लिए गोमांस निर्यात करते हैं। पिछले पांच साल से गोमांस निर्यात में हम विश्व के सिरमौर बने हुए हैं। उस पर तुर्रा ये कि बीफ निर्यात करने वाली ज्यादातर बड़ी कंपनियों के सेठ अन्यन गौभक्त हिंदू ही हैं। और वे सबसे मोटा चंदा 'गोरक्षा आंदोलन' को हवा देने वाली राजनीतिक पार्टी को ही देते हैं।
आजकल गाय का धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक से भी ज्यादा महत्व राजनीतिक है। जहां दुनिया भर में गाय को दूध और मांस के लिए पाला जाता है, वहीं भारत में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत वोट के लिए है। गाय को सीधे वोट देने का अधिकार तो नहीं है, लेकिन वह वोट दिलवाने में बड़ी सहायक है। वर्तमान सरकार को बनवाने में गौमाता का भी अतुलनीय योगदान है। गाय को बचाने के लिए धर्म, समाज, राजनीति और सरकार पूरी ताकत से लगे हैं। ऐसे में न्यायपालिका 'गौ-बचाओ' के पवित्र यज्ञ में आहुति डालने में कैसे पीछे रह सकती है। हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने और गाय को जीने का अधिकार देने की मांग (आदेश नहीं दिया) की है। जितनी गाय हैं उनसे ज्यादा बचाने वाले हैं। जैसे हिंदुस्तान में गाय जितना दूध देती है, उससे ज्यादा तो एक राष्ट्रवादी स्वामी गाय का घी बेच देते हैं। इतने सब के बावजूद कूड़े के ढेर में चारा तलाशने को विवश गौधन का राम ही रखवाला है। हम हिंदुस्तानियों ने गाय की बेकद्री करने तथा उसे खत्म करने में कोई कोर-कसर नहीं रखी है।
गाय बचाने के लिए सबसे ज्यादा जोरदार आवाज उठा रहे शहरी पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग में तो गाय बचाने का बूता नहीं ही है। ये बात सब भली-भांति जानते हैं। इसलिए वह शोर मचाकर गौभक्ति का उन्माद पैदा कर रहे हैं। सियासत से हटकर देखा जाये तो पुराने समय में भी कृषि और किसानी के लिए ही गाय का महत्व था। और आज भी गाय का कोई असली रक्षक हो सकता है तो वह केवल किसान ही हो सकता है। लेकिन किसान खुद राजनीति और कार्पोरेट के शिकंजे से अपनी जमीन और खेती को बचाने की जंग लड़ रहा है। तीन नये कृषि कानूनों की मार से अपने अस्तित्व को बचाने की जंग लड़ रहे किसान को गोरक्षा का हल्ला मचा रहे लोग और राजनीतिक दल ही देशद्रोही, पाक और चीन का एजेंट तथा खालिस्तानी कहकर, बेइज्जत करने में लगे हैं। यह सब भी उसी फौज और पुलिस के संरक्षण में रहकर, जिनमें सबसे ज्यादा इन्हीं किसानों के बेटे-बेटियां हैं। ये बिल्कुल वैसी ही प्रक्रिया है जैसी कार्पोरेट से जंगल और जमीन बचाने के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों को सरकारी जोर-जबरदस्ती और जुल्मो-सितम ने हथियारबंद नक्सली बना दिया।
आज सबसे ज्यादा जरूरी है हमारे समाज, राजनीतिक दलों और सरकार को दोहरे मानदंड और फर्जी मुद्दों को त्यागकर वास्तविक धरातल पर जीवन रक्षक परियोजनाएं शुरू करने की। सब जानते हैं कि प्रकृति से अत्यधिक छेड़छाड़ विनाश को आमंत्रण देना है। मानव सभ्यता के विकास की कीमत हम प्रकृति के विनाश के रूप में चुका रहे हैं। ऐसे में जरूरत है प्रकृति के अनुकूल विकास योजनाएं बनाने की। इसके लिए सर्वप्रथम लालची देसी और मल्टीनैशनल कंपनियों के इशारों पर नाचती सत्ता को सही राह पर लाना होगा। तभी हम अपने देश, धरती और जीवन को बचा सकते हैं। मानव जीवन बचेगा तो धर्म और संस्कृति भी बचेगी। अन्यथा तो गर्त में जाना आवश्यं भावी है।