(जलीस अहसन) भारत और नेपाल के अनंतकाल से गहरे धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्ते रहे हैं। दोनों ओर के लोगों के बीच रिश्तेदारियां भी खूब हैं। खुली सीमाओं वाले ये दोनों देश आपस में सदियों से मित्रता और सहयोग का एक अनूठा रिश्ता साझा करते हैं। बिना वीज़ा के, सीमाओं के आर-पार लोगों की मुक्त आवाजाही की एक लंबी परंपरा रही है। दोनों देश, पांच भारतीय राज्यों- सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के साथ पूर्व और दक्षिण और पश्चिम में 1850 किलोमीटर की सीमा साझा करते हैं।
इस सबसे बढ़कर, चीन और भारत की लंबी सीमा के बीच में स्थित नेपाल, भारत के प्रति चीन के आक्रामक तेवरों के विरूद्ध एक प्राकृतिक प्रतिरोधक देश की भूमिका भी निभाता रहा है, जो हमारे देश की सुरक्षा के लिहाज़ से बहुत ही ज़्यादा महत्वपूर्ण है। मगर कुछ साल पहले वहां चीन परस्त कम्युनिस्टों द्वारा राजशाही का तख्ता पलट कर सत्ता हथियाने के बाद से हालात बहुत बदल गए हैं। सत्तारूढ़, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की मदद और अपने पैसों के बल पर, चीन वहां तेज़ी से अपने पैर पसारने और भारत विरोधी माहौल बनाने में लगा है।
इस हकीकत के बीच, सवाल मगर यह है कि चीन की बिछाई इस बिसात में भारत क्यों फंस रहा है। वह ऐसे काम क्यों कर रहा है जिससे वहां भारत-विरोधी माहौल को हवा मिले। माओवादियों द्वारा, नेपाल में राजशाही उखाड़ फेंकने पर भी, भारत कई सालों तक उसे पुनः स्थापित करने की कोशिशों में लगा रहा। हालांकि, राजशाही एक शोषणात्मक और स्वछंद तंत्र होता है और आम जनता उसके शोषण का शिकार रहती है।
भारत और आज की सत्तारूढ़ भाजपा ने तब वहां लोकशाही की बजाय राजशाही को तरजीह देने का प्रयास करके तब एक बड़ी गलती की थी, क्योंकि वहां की जनता राजशाही के खिलाफ थी। ऐसा ही मधेसी मामले में हुआ। यह सच है कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से लगे नेपाल के सीमांत इलाकों में बसी उस मधेसी आबादी से, नेपाल ने नया संविधान बनाते समय बहुत ही सौतेला सुलूक किया, जिनके ‘‘रोटी-बेटी‘‘ के रिश्ते आज भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों से बने हुए हैं। लेकिन भारत ने तब विरोध स्वरूप अघोषित नाकेबंदी के ज़रिए वहां पेट्रोल और गैस की किल्लत पैदा करके , नेपाल में लोगों में भारत के प्रति गुस्से को गहराने का काम किया। उस नाकेबंदी से नेपाल के लोगों को आवश्यक सामान की भारी किल्लत का सामना करना पड़ा था।
नेपाल तीन तरफ से भारत और एक ओर से चीन से घिरा है। आवा-जाही तथा व्यापार के लिए सड़क एवं समुंद्र मार्ग तक पंहुच बनाने के लिहाज से पूरी तरह भारत पर निर्भर है। ऐसे में भारत अगर धीरज से काम लेता तो वहां भारत विरोधी माहौल बनने की गुंजाईश कम होती। नेपाल के लोगों की शिकायत यही है कि भारत उनके देश के साथ ‘भाई-भाई‘ की बजाय, ‘धौंसबाज़‘ बड़े भाई की तरह पेश आता है। वह भारत के इस कथित व्यवहार के खिलाफ चीन का कार्ड खेल रहा है, जबकि यह हकीकत सबको मालूम होनी चाहिए कि भाषा, संस्कृति, धर्म और स्वभाव ऐसे चार गहरे कारण हैं जिनके चलते नेपाल के लिए चीन कभी भारत का विकल्प बन ही नहीं सकता।
मधेसी मामले में भारत की नाकेबंदी के कारण नेपाल ने बिमसटेक (भारत, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड) के संयुक्त सैन्य अभ्यास में हिस्सा नहीं लिया। यही नहीं, इसकी जगह उसने चीन सेना के साथ संयुक्त अभ्यास किया। नेपाल के प्रधानमंत्री के पी ओली ने हाल ही में भारत पर यह बचकाना आरोप लगाया है कि उनके देश में कोरोना का वायरस, भारत ने फैलाया है। यही नहीं, कुछ दिन पहले, नेपाल से सटे बिहार के सीतामढ़ी ज़िले के लोगों पर नेपाल पुलिस ने फायरिंग करदी जिसमें एक व्यक्ति मारा गया। नेपाल पुलिस का आरोप था कि ये लोग नेपाल की सीमा में घुस आए थे। कोई सोच नहीं सकता था कि भारत के इस हिमालयी देश के साथ रिश्ते इस हद पर आ जाएंगे।
भारत-नेपाल के बीच विवाद का नया मुद्दा कैलाश मानसरोवर जाने के लिए शुरू किया गया लिपुलेख-धारचूला सड़क निर्माण है। नेपाल ने इस पर सख्त आपत्ति जताते हुए लिपुलेख को अपना क्षेत्र बताया है। यही नहीं उसकी संसद ने एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए एक संविधान संशोधन के जरिए नेपाल के नक्शे में लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी को शामिल कर लिया। इस संविधान संशोधन का नेपाल के सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन किया। कुछ दिन पहले भारत द्वारा जारी नक्शे में लिम्यिाधुरा, लिपुलेख और कालापानी को भारत में दिखाए जाने के बाद नेपाल की संसद ने अपने नक्शे में बदलाव करके इन तीनों क्षेत्रों को अपना हिस्सा दर्शाया है।
भारत ने नेपाल के दावे और नक्शे में बदलाव को ‘‘अपुष्ट‘‘ बता कर खारिज कर दिया है। लिपुलेख-धारचूला सड़क निर्माण का समझौता 2015 में भारत और चीन के बीच हुआ था। नेपाल में पूर्व भारतीय राजदूत जयंत प्रसाद कहते हैं कि यह क्षेत्र हमेशा से भारत का हिस्सा था। साथ ही उनका यह भी कहना है कि भारत और चीन ने लिपुलेख समझौता करते समय नेपाल की चिंताओं को स्पष्ट तौर पर अनदेखा किया था। कम से कम भारत को यह समझौता करते समय नेपाल को भरोसे में लेना चाहिए था। नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री, सुशील कोइराला ने इस समझौते के विरोध में तब अपनी निर्धारित दिल्ली की यात्रा को रद्द कर दिया था। कुछ राजनयिकों का यह भी कहना है कि भारत को नेपाल के साथ इस मुद्दे को तभी सुलझा लेना चाहिए था।
इस विवाद के बीच भारतीय सेना प्रमुख एम.एम. नरावणे ने पिछले शनिवार को चीन का नाम लिए बिना बयान दिया कि इस बात की बहुत संभावना है कि नेपाल ने ‘‘किसी अन्य के उकसावे‘‘ में ऐसा किया है। सेना प्रमुख ने इस राजनीतिक मामले में बयान देने के कुछ दिन बाद ‘भूल सुधार‘ के प्रयास करते हुए कहा कि नेपाल और भारत के रिश्ते बहुत मज़बूत हैं और भविष्य में भी रहेंगे। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी सोमवार को कहा कि लिपुलेख-धारचूला सड़क के निर्माण को लेकर भारत और नेपाल के बीच जो भी मतभेद हैं, उन्हें बातचीत के माध्यम से हल किया जाएगा। उन्होंने कहा कि भारत और नेपाल के संबंध भौगोलिक या राजनीतिक संबंधों से परे हैं, ये आध्यात्मिक संबंध हैं।
भारतीय सेना में एक गोरखा रेजिमेंट है जिसमें नेपाल के 36000 सैनिक भारत की रक्षा में हमेशा मुस्तैद रहते हैं। इसके अलावा तकरीबन 60 लाख नेपाली भारत में रह कर रोज़ी-रोटी कमाते हैं। नेपाल के जाने में माने अर्थशास्त्री डा पोश राज पांडे ने इस पूरे विवाद पर कहा है कि नेपाल पर इसका क्या असर पड़ेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि भारत कैसी प्रतिक्रिया करता है। उन्होंने कहा कि भारत और नेपाल को अपने रिश्तों को नुकसान नहीं पंहुचाने देना चाहिए और जल्द से जल्द वार्ता शुरू करके मामले को सुलझा लेना चाहिए।