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आशु सक्सेना तीन साल पहले देश में भ्रष्टाचार मुक्त वैकल्पिक राजनीति के संकल्प के साथ अस्तित्व में आयी आम आदमी पार्टी, दिल्ली की सत्ता हासिल करने के बाद ही व्यक्तिगत टकराव की शिकार हो गई है। पिछले दिनों पार्टी में हुई उटापटक के चलते राष्ट्रीय स्तर पर उसके तीव्र विस्तार की संभावनाओं पर सवालिया निशान लग गया है। देश में तेजी से बदले राजनीतिक परिदृश्य में राष्ट्रीय राजनीति से विलुप्त हो चुकी कांग्रेस एकबार फिर अपने खोये हुए जनााधार को वापस हासिल करती नजर आ रही है। केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ आम लोगों की बढती नाराजगी का राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को सबसे ज्यादा राजनीतिक लाभ मिलना लगभग तय है। केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा अपने राजनीतिक जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन एक साल पहले लोकसभा चुनाव में कर चुुकी है। इस दौरान पार्टी के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लगातार घट रही है। वहीं कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी छुट्टी से लौटने बाद नये तेवर में नजर आ रहे हैं।

आपको याद होगा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 में केंद्र और प्रदेश की सत्ता पर काबिज कांग्रेस की हार तय मानी जा रही थी। दिल्ली चुनाव के वक्त 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी। भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी और पार्टी के स्टर प्रचारक नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार अभियान राष्ट्रीय स्तर पर जोरशोर से जारी था। दिल्ली के ताज के लिए भाजपा को प्रवल दावेदार माना जा रहा था। उस वक्त मिनी इंडिया मानी जाने वाली दिल्ली के मतदाताओं ने दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों के विकल्प के तौर पर भ्र्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन से अस्तित्व में आयी आम आदमी पार्टी में विश्वास जाहिर किया था। लेकिन मतदाताओ में नई पार्टी को लेकर असमंजस की स्थिति के चलते उस चुनाव में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल नही हुआ। कांग्रेस के विकल्प का दावा करने वाली भाजपा अकाली दल के साथ चुनावी तालमेल के बावजूद 32 के आंकड़े पर अटक कर रह गई। तमाम चुनावी सर्वे के विपरित आम आदमी पार्टी को 28 निर्वाचन क्षेत्रों में जीत मिली। जबकि 15 साल से दिल्ली की सत्ता पर काबिज कांग्रेस दहाई का आंकड़ा भी नही छू सकी और 8 विधायकों तक सीमट कर रहे गई। दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा सदन में 36 विधायकों का बहुमत साबित करने में असमर्थ थी। 36 विधायकों का यह जादुई आंकड़ा आप और कांग्रेस के साथ आने पर ही संभव था। नतीजतन बेहद नाटकीय ढ़ंग से आप ने कांग्रेस के समर्थन से पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने इंसान का इंसान से हो भाई चारा, यहीं पैगाम हमारा,गीत की धुन पर दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। नई सरकार ने अपनी विश्वसनीयता जाहिर करने के लिए ताबडतोड़ फैसले किये। बिजली और पानी के अपने चुनावी वादे को अमलीजामा पहनाया। केजरीवाल ने जनलोकपाल विधेयक को विधानसभा में पेश करने की कोशिश की, लेकिन कांग्रेस और भाजपा ने विधेयक पेश किये जाने के तरीके पर एतराज किया। जिसके विरोध में 49 वें दिन केजरीवाल ने पद से इस्तीफा दे दिया। केंद्र की यूपीए सरकार ने विधानसभा भंग करने के बजाय सदन को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया। दिल्ली में जोड़तोड़ की नई सरकार के गठन की चर्चाओं के बीच लोकसभा का आम चुनाव हुआ। इस चुनाव में भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिली। पार्टी पहली बार लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रही। इस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भी किस्मत आजमाई और उसने देश भर में 442 उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतरा। लेकिन पार्टी को अपेक्षित सफलता नही मिली। पार्टी दिल्ली की भी सभी सातों सीटों पर हार गई। इस चुनाव में पार्टी का पंजाब में चार सांसदों की जीत के बूते पर लोकसभा में अपनी मौजूदगी दर्ज करना एकमात्र उपलब्धि है। वहीं केंद्र की सत्ता पर एक दशक से काबिज कांग्रेस सदन में नेता प्रतिपक्ष के दावे के लिए अनिवार्य दस फीसदी सदस्यों के आंकड़े को पाने में भी सफल नही हो सकी और पार्टी 44 सांसदों तक सिमट कर रह गई। केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्च में सरकार का गठन किया। उसके बाद भाजपा ने अपने स्टार प्रचारक और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के बूते पर महाराष्ट्र,हरियाणा, जम्मू कश्मीर और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव लडें। हरियाणा को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में भाजपा को नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का लाभ नही मिला। किसी भी प्रदेश में पार्टी अपने बूते पर बहुमत हासिल नही कर सकी। इतना ही नही महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने जिन राजनीतिक दलों का खुलकर विरोध किया, उन्हीं क्षेत्रीय दलों के साथ सरकार बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इन चुनावों में मतदाताओं की कांग्रेस से नाराजगी बदस्तूर जारी रही। जिसका फायदा भाजपा को मिला क्योंकि यह सभी सूबे कांग्रेस शासित थे और भाजपा के अलावा अन्य कोई विकल्प मतदाताओं के पास नही था। लेकिन केंद्र की मोदी सरकार से मतदाताओं की नाराजगी भी साफ झलकने लगी। बहरहाल केंद्र की मोदी सरकार ने दिल्ली में सरकार के गठन को लेकर एक साल तक चली अटकलबाजी के बाद विधानसभा को भंग कर दिया। नतीजतन दिल्ली विधानसभा के लिए मध्यावधि चुनाव की घोषणा हुई। इस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा से मतदाताओं के मोहभंग का ऐतिहासिक नजारा देखने को मिला।जहां कांग्रेस अपना खाता भी नही खोल सकी, वहीं केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा सदन में नेता प्रतिपक्ष के लिए अनिवार्य सदस्यों का आंकड़ा छूने में कामयाब नही हो सकी। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत का जश्न देशभर में देखने को मिला। आप की जीत पर देशव्यापी जश्न से जाहिर था कि पार्टी ने लोकसभा चुनाव में अपनी उपस्थिति से राष्ट्रीय पहचान बना ली है। कयास लगाया जाने लगा कि आप वैकल्पिक राजनीति की दिशा में पार्टी के विस्तार पर ध्यान केंद्रीत करेंगी और देश में कांग्रेस के विकल्प की दिशा में काम करेगी। लेकिन पार्टी की आंतरिक कलह ने उसके विस्तार पर विराम लगा दिया है। यह बात दीगर है किं पार्टी 67 विधायकों की जीत के बूते पर लोकसभा के साथ ही राज्यसभा में भी तीन सदस्य पहुंचाने की स्थिति में है। संभवतः राज्यसभा की दावेदारी ही पार्टी में व्यक्तित्व के टकराव की अहम वजह हो। आप से आम लोगों के भोहभ्रग का सीधा लाभ कांग्रेस को ही मिलना है। केंद्र की सत्ता पर पूर्ण बहुमत से काबिज भाजपा का अगला इम्तिहान बिहार और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव माना जा रहा है। इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस को अपना अस्तित्व बनाए रखने की चुनौती है। इन दोनों ही राज्यों में भाजपा का सीधा मुकाबला तथाकथित समाजवादियों के साथ है। जनतादल परिवार की एकता की मुहिम अगर कामयाव रही तो दोनों सूबों में भाजपा को प्रदेश की सत्ता पर काबिज दलों के साथ चुनावी जंग लडनी है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने सहयोगी दलों के साथ दोनों सूबों की 120 लोकसभा सीटों में से 105 सीटों पर कब्जा किया है। लिहाजा दोनांे ही सूबों में भाजपा की जबावदेही भी कम नही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद यह कहना गलत नही होगा कि बिहार और उत्तर प्रदेश दोनों ही सूबों में भाजपा को कड़े संघर्ष का सामना करना होगा। बहरहाल कांग्रेस और भाजपा के बीच अगला सीधा मुकाबला 2016 के शुरू में होने वाले असम विधानसभा चुनाव में होगा। इस सूबें की सत्ता पर कांग्रेस काबिज है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सूबे की 14 सीट में से 7 पर कब्जा किया है और सबसे ज्यादा 36.50 फीसदी मत हासिल किये हैं। जबकि कांग्रेस को तीन सीटों पर जीत मिली है, उसे चार सीटों का नुकसान हुआ है। कांग्रेस के मत घटकर 29.50 फीसदी रह गये है। पार्टी को सवा चार फीसदी मतों का नुकसान हुआ है। यहां भाजपा को सत्ता का प्रबल दावेदार माना जा रहा है। लेकिन मोदी सरकार की अलोकप्रियता पार्टी के लिए चुनौती भी मानी जा रही है। बहरहाल कांग्रेस उपाध्यक्ष और पार्टी सांसद राहुल गांधी संसद के बजट सत्र पहले चरण में छुट्टी पर रहे और 57 दिन बाद वह नये अंदाज में प्रकट हुए है।ं राहुल गांधी ने केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संसद के भीतर और बाहर आक्रामक रूख अख्तियार किया है। उनहोंने पार्टी की धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखने के लिए केदारनाथ दर्शन के लिए पदयात्रा की। इस यात्रा के माध्यम से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी धर्म निरपेक्ष हिदुओं को पार्टी के पक्ष में गोलबंद करना चाहते हैं। लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनाव नतीजों से यह साफ हो गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के जरिये भाजपा अपनी नैया पार नही लगा सकती। पार्टी को अब सूबों में खुद को मजबूत करना होगा। केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा अगर सूबों में अपने जनाधार को बचाने में सफल नही रही, तो उन सभी राज्यों में कांग्रेस अपने जनाधार को वापस हासिल करने में कामयाब रहेगी, जहां कांग्रेस का सीघा मुकाबला भाजपा से होना है। 11 june 2015

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