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(आशु सक्सेना) उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अभी एक साल दूर है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को अभी से इस चुनाव की चिंता सालने लगी है। दरअसल उत्तर प्रदेश चुनाव में हार जीत पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की प्रतिष्ठा का सवाल है। लोकसभा चुनाव में इस प्रदेश में शानदार प्रदर्शन की बदौलत ही भाजपा पहली बार बहुमत से केंद्र की सत्ता पर काबिज है। लोकसभा चुनाव में पार्टी की जीत का श्रेय अमित शाह को मिला था। शाह उस चुनाव में प्रदेश के प्रभारी महासचिव थे। जाहिर है अब पार्टी की बागड़ौर संभालने के बाद निश्चित ही विधानसभा चुनाव में लोकसभा जैसा शानदार प्रदर्शन दोहराना उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है। बहरहाल पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश की चुनावी रणनीति को अंजाम देना शुरू कर दिया है। रविवार को उन्होंने दिल्ली में उत्तर प्रदेश के पार्टी नेताओं के कौर ग्रुप के साथ बैठक की। इस बैठक में प्रदेश की चुनाव रणनीति पर विस्तार से चर्चा की गई। फिलहाल अमित शाह के सामने प्रदेश मे पार्टी के उपयुक्त प्रदेश अध्यक्ष की तलाश की चुनौती है।

वर्तमान पार्टी अध्यक्ष लक्ष्मी कांत वाजपेयी का कार्यकाल दिसंबर में समाप्त हो चुका है। इसके अलावा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए उपयुक्त पार्टी उम्मीदवार ढंुढने की चुनौती से भी जूझ रहे हैं। दरअसल, लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के राजनीतिक परिदृश्य में काफी अंतर है। लोकसभा चुनाव भाजपा ने उस वक्त के अपने स्टार प्रचारक और प्रधानमत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा था। वह मोदी लहर का दौर था। यही वजह थी कि प्रदेश में भाजपा को उम्मीद से ज्यादा कामयाबी मिली थी। प्रदेश में भाजपा और अपनादल गठबंधन को 80 में से 73 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। भाजपा ने 77 उम्मीदवार खड़े किये थे, उनमें से 71 जीते थे। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में लगातार गिरावट आई है। जिसकी जीवंत मिसाल दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव नतीजे हैं। इन दोनों ही राज्यों में भाजपा ने विधानसभा चुनाव भी मोदी के नाम पर लड़ा और प्रधानमंत्री मोदी ने भी चुनाव प्रचार में कोई कमी नही छोड़ी। इसके बावजूद दोनों ही राज्यों में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश में दूसरी बड़ी चुनौती भाजपा केे सामने अपने घटक दल की है। अपनादल अब दो फाड़ हो चुका है। इसके अलावा विधानसभा चुनाव के लिए 403 उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। विधानसभा चुनाव में यू ंतो स्थानीय मुद्दों पर हार जीत का फैसला होता है। लेकिन मंहगाई का खामियाजा केंद्र में काबिज पार्टी को उठाना पड़ता है। यह हकीकत लोकसभा और उसके बाद हुए कांग्रेस शासित राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजें बयां करते हैं। इस वक्त प्रदेश में भाजपा के 71 सांसद हैं। विधानसभा चुनाव के वक्त उनका तीन साल का कार्यकाल पूरा हो चुका होगा। लिहाजा स्थानीय स्तर पर सांसद के कामकाज पर भी जनादेश निर्भर करेगा। भाजपा की कोशिश है कि प्रदेश एक बार फिर दलित कार्ड खेला जाए। लेकिन विधानसभा चुनाव में दलितों को बसपा प्रमुख मायावती के आकर्षण से विमुख करना बेहद मुश्किल है। भाजपा की चिंता यह भी है कि अगर बसपा प्रमुख मायावती ने इस बार भी सवर्णों को तरजीह दी, तब भाजपा को अपने परंपरागत वोट बैंक को रोक पाना भी मुश्किल होगा। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के मद्देनजर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के अलावा प्रमुख प्रतिपक्ष बसपा, भाजपा, कांग्रेस के अलावा अन्य कई राजनीतिक ताकतें भी चुनावी समर में नजर आयेंगी। दिलचस्प पहलू यह है कि भाजपा के अलावा अन्य सभी राजनीतिक पार्टियां धर्म निरपेक्षता की दावेदारी करेंगी। लिहाजा धर्म निरपेक्ष मतों का विभाजन भाजपा की जीत में अहम भूमिका अदा कर सकता है। लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों से इस संभावना पर भी सवालिया निशान लग गया है।

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