(धर्मपाल धनखड़): प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नये संसद भवन का उद्घाटन 28 मई को करेंगे। ये एक ऐतिहासिक आयोजन होगा। 20 विपक्षी पार्टियों ने इस समारोह का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। विपक्ष का कहना है कि संसद भवन का उद्घाटन देश के राष्ट्रपति को करना चाहिए। राष्ट्रपति हमारे संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य का सर्वोच्च पद है। देश की तीनों सेनाओं का मुखिया हैं।
यहां ये बात भी उल्लेखनीय है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है, जितना सत्ता पक्ष। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच बेहतर संतुलन से ही सरकार जनहित के निर्णय लेती है।
संवैधानिक संस्थाओं को दलीय राजनीति से परे रखा जाना चाहिए। इसलिए बेहतर होता कि संसद के नये भवन के उद्घाटन के ऐतिहासिक मौके पर पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों मौजूद रहते! लेकिन इसके लिए परस्पर सहमति भी जरूरी है। जिसका आज के दौर में नितांत अभाव है।
खैर, विपक्ष के बहिष्कार के बावजूद नये संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही करेंगे!
भारतीय लोकतंत्र में तमाम शक्तियां प्रधानमंत्री के पास है और राष्ट्रपति महज रबर स्टैम्प है। एक प्रतीक मात्र है।
गृहमंत्री अमित शाह ने बताया कि नये संसद भवन में उस राजदंड को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्थापित करेंगे, जो अंग्रेजों ने 15 अगस्त, 1947 को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में पंडित जवाहरलाल लाल नेहरू को सौंपा था। और आजादी की जंग लड़ने वाले योद्धाओं ने राजदंड के उस प्रतीक को इलाहाबाद यानी प्रयागराज के संग्रहालय में रखवा दिया था। अमित शाह के मुताबिक सत्ता हस्तांतरण के समय जब ये समस्या आयी थी कि प्रतीक के तौर पर क्या दिया जाये? इस पर स्वतंत्रता सेनानी सी राजगोपालाचार्य ने काफी अध्ययन करने के बाद तमिलनाडु से सेंगोल मंगवाया। सेंगोल चोल राजवंश का राजदंड और संप्रभूता का प्रतीक था। इसी सेंगोल को अंग्रेजी साम्राज्य के अंतिम प्रतिनिधि वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को आजादी के 15 मिनट पहले सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में सौंपा था।
अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के बाद भारत ने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अपनाया। इसके लिए संविधान सभा का गठन किया गया। और 26 जनवरी, 1950 को भारत एक संप्रभू सत्ता संपन्न गणराज्य बना। भारतीय गणतंत्र का सर्वेसर्वा राष्ट्रपति को स्वीकार किया गया। भारतीय संसद के सर्वोच्च नेता भी राष्ट्रपति हैं। संसद के दोनों सदनों का सत्र बुलाने और संसद भंग करने का अधिकार भी उन्हीं को है। बेशक इसमें प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल की सिफारिश जरूरी है। सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति अपनी जगह, लेकिन इन तथ्यों के आलोक में विपक्षी दलों की नये संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति से करवाने की मांग सही प्रतीत होती है।
जब देश ने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अपनाया है, तो उसमें राजदंड के प्रतीक का कोई औचित्य नहीं समझा गया होगा! इसीलिए संभवतः देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिन्हें सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में 'सेंगोल' यानी राजदंड अंग्रेजों ने सौंपा था। उन्होंने संभवत इस राजदंड को राजशाही का प्रतीक मानकर ही राष्ट्रपति भवन या प्रधानमंत्री कार्यालय अथवा संसद में रखवाने की बजाय, उसे संग्रहालय में रखवाना उचित समझा। संसद भारतीय लोकतंत्र का आधार है, उसका भवन चाहे नया हो या पुराना, उसमें राजतंत्र के प्रतीक सेंगोल अर्थात राजदंड की स्थापना को लेकर सवाल उठने लाजिमी है। इस बारे में गृहमंत्री अमितशाह का कहना है कि आजादी के ऐतिहासिक पलों में पवित्र सेंगोल सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बना था। सेंगोल चोल साम्राज्य की एक हजार साल पुरानी ऐतिहासिक परंपरा का पवित्र प्रतीक है। उन्होंने बताया कि तमिलनाडु के प्रसिद्ध थिरुवदुथुराई आधीनम मठ से आये पुरोहित, पवित्र सेंगोल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपेंगे। इसे नये संसद भवन में स्पीकर की कुर्सी के नजदीक स्थापित करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐतिहासिक परंपरा का सम्मान करेंगे।
सेंगोल संस्कृत का शब्द है। जो संकु से बना है। संकु का अर्थ है शंख। हिंदू धर्म में शंख का बहुत महत्व हम सब जानते हैं। प्राचीन काल में राजाओं को सत्ता के प्रतीक के रूप में राजदंड सौंपा जाता था। राजदंड सोने या चांदी की छड़ होती थी, जिसमें कीमती पत्थर जड़े होते थे। राजदंड राजा की संप्रभूता का प्रतीक होता था। लार्ड माउंटबेटन ने जो सेंगोल जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था वह चांदी से बनी एक छड़ है, जिस पर सोने लेप किया गया है। इसके उपरी सिरे पर नंदी की मूर्ति बनी है। उसी सेंगोल को आजादी के प्रतीक के रूप में नये भवन में स्थापित किया जायेगा।
महत्वपूर्ण बात ये है कि गुलामी के चिन्हों को समाप्त करने के नाम पर सड़कों और शहरों आदि के नाम बदलने वाली बीजेपी सरकार, राजशाही के प्रतीक राजदंड, यानी सेंगोल को लोकतंत्र के मंदिर, संसद भवन में स्थापित करके क्या संदेश देना चाहती है?
सरकार का कहना है कि सेंगोल आजादी का प्रतीक है। सत्ता हस्तांतरण महज कुछ दस्तावेजों पर दस्तखत करके हाथ मिलाकर नहीं होता। इसीलिए भारतीय परंपरा के मुताबिक अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरु को सेंगोल सौंपकर सत्ता का हस्तांतरण किया था। अतःआजादी के प्रतीक के रूप में संसद भवन में सेंगोल को स्थापित किया जायेगा। विद्वानों का मानना है कि सेंगोल को ग्रहण करने वाले व्यक्ति को न्यायपूर्ण और निष्पक्ष रूप से शासन करने का ‘आदेश' होता है। यानी राजा को भगवान का प्रतिनिधि और उसके आदेश को भगवान का हुकुम माना जाता है।
इसके विपरीत लोकतंत्र में सरकार चलाने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का चुनाव भी जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही करते हैं। इसी के आधार पर कुछ लोग राजशाही के प्रतीक सेंगोल, जिसे सरकार आजादी का प्रतीक बता रही हैं को संसद भवन में स्थापित करने के विरुद्ध हैं। विरोधियों का कहना है कि सरकार के इस कदम में राजशाही की बू आती है, बेशक वे इसे आजादी की निशानी बता रहे हैं। बहरहाल, दोनों पक्षों के तर्क-वितर्क अपनी जगह हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में एक बात बिल्कुल साफ़ है कि वे कोई भी काम चुनावी लाभ की रणनीति के तहत ही करते हैं। वे हर मौके का राजनीतिक इस्तेमाल करने में माहिर हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है 75 साल से सरकार ने जिस सेंगोल को राजशाही का प्रतीक मानकर म्यूजियम में रख छोड़ा था। संसद भवन में उसकी स्थापना के पीछे भी चुनावी लाभ की रणनीति है। जानकारों का कहना है कि सेंगोल स्थापना के जरिये प्रधानमंत्री धार्मिक परंपरा का गुणगान करते हुए राजनीतिक संदेश देना चाहते हैं। सीधे तौर पर कहें तो ऐसा करके वे तमिलनाडु समेत दक्षिणी राज्यों में बीजेपी की पकड़ मजबूत करना चाहते हैं। साथ ही वे उत्तर और दक्षिण भारत की हिंदू धार्मिक परंपराओं के समन्वय का संदेश भी देंगे। ये संदेश कितना असरकारी होगा, इसका पता अगले साल होने वाले चुनाव के बाद ही चल पायेगा।