(आशु सक्सेना) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चहेते अमित शाह को दूसरी बार भारतीय जनता पार्टी की कमान संभलवाकर यह साबित कर दिया कि अभी पार्टी पर उनकी पकड़ बरकरार है। लेकिन बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में अमित शाह की दूसरी पारी कांटों भरी नजर आ रही है। दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में शर्मनाक हार का सामना कर चुके अमित शाह को 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव तक कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में अग्नि परीक्षा से गुजरना है। उनकी पहली परीक्षा असम और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में है। गौरतलब है कि शाह ने उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव के तौर पर लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 80 सीटों में से पार्टी और घटक दल को 73 सीटों पर जीत दिलवाकर करिश्मा कर दिखाया था। उनको इस करिश्में के इनाम के तौर पर पार्टी की कमान सौंपी गई थी। उनके नेतृत्व में पार्टी को छह राज्यों में सरकार बनाने में कामयाबी मिली।
हरियाणा और महाराष्ट्र में पार्टी ने पहली बार सत्ता की कमान संभाली। यह बात दीगर है कि इन राज्यों में पार्टी लोकसभा चुनाव जैसा प्रदर्शन नही कर सकी। बहरहाल दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर लड़ा। मोदी और शाह ने दोनों राज्यों के चुनाव में जातिवाद, सांप्रदायिकत और विकास जैसे सभी राजनीतिक हथकंडों का इस्तेमाल किया। लेकिन दोनों ही राज्यों में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। भाजपा की हार का अहम कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लगातार घटती लोकप्रियता माना जा रहा है। पार्टी के कई शीर्ष नेताओं ने इस हार के लिए खुलेआम मोदी और शाह को जिम्मेदार भी ठहराया। इसके बावजूद मोदी पार्टी की कमान दूसरी बार शाह को दिलवाने में सफल रहे हैं। मोदी और शाह की सबसे अहम परीक्षा असम विधानसभा चुनाव में होनी है। जहां भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है। कांग्रेस पिछले 15 साल से प्रदेश की सत्ता पर काबिज है। लोकसभा चुनाव में मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विरोध के नाम पर भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली और पार्टी पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई। उसके बाद कांग्रेस शासित छह राज्यों में भी भाजपा जीत का परचम फहराने में कामयाब रही। लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 40 में से 27 सीट जीत कर भाजपा के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। चंूकि यह सफलता कांग्रेस को गठबंधन के चलते मिली है, लिहाजा इस श्रेय सिर्फ कांग्रेस को नही दिया जा सकता। असम विधानसभा चुनाव में अगर कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता पर काबिज होने से रोक दिया, तो न सिर्फ मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे की हवा निकल जाएगी, बल्कि कांग्रेस के पुनः जीवित होने का संदेश ंभी जाएगा। इस राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत कर चुके है। जबकि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह काफी पहले से अपनी ताकत झोंके हुए हैं। इस प्रदेश में भी भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त देने के लिए क्षेत्रीय पार्टी बोडोलैंड पीपुल्स फंट बीपीएफ का दामन थामा हैं। वहीं कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की है। जबकि प्रदेश की 34 फीसदी मुसलिम आबादी पर अच्छा खासा असर रखने वाली क्षेत्रीय पार्टी एआईयूडीएफ प्रमुख बदरूद्दीन अजमल चुनाव पूर्व कांग्रेस के साथ गठबंधन की पेशकश कर चुके है। बहरहाल लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 14 सीट में से भाजपा ने 7 सीट पर कब्जा किया था। एआईयूडीएफ के खाते में 3 सीट एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार सफल रहा था। जबकि प्रदेश की सत्ता पर काबिज कांग्रेस 3 सीट पर सिमट कर रह गई थी। लोकसभा चुनाव नतीजों के आधार पर विधानसभा चुनाव में भाजपा का सत्ता पर काबिज होना तय माना जा रहा था। दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों ने असम विधानसभा चुनाव में भांजपा की सुनिश्चित जीत पर सवालिया निशान लगा दिया है। हांलाकि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने असम और पश्चिम बंगाल में पूरी ताकत से चुनाव लड़ने की रणनीति तैयार की है। दरअसल भाजपा के लगातार घटते जनाधार का अहम कारण पार्टी के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घटती लोकप्रियता को माना जा रहा है। आम लोगों का मानना है कि मोदी लोकसभा चुनाव में किये गये वादों पर खरे नही उतरे हैं। लिहाजा जनमानस में उनकी विश्वसनीयत लगातार कम हो रही है। मोदी ने अच्छे दिन का वादा किया था, उसके उलट लोगों को आजाद भारत के सर्वाधिक मंहगाई के दौर से गुजरना पड़ रहा है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार का सबसे अहम पहलू मंहगाई ही थी। लिहाजा असम में भाजपा की जीत में सबसे बड़ी बाधा मंहगाई ही होने वाली है। यह बात दीगर है कि बिहार की तरह असम में भी मोदी और शाह सत्ता हासिल करने पूरी ताकत झौंके हुए हैं। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के वक्त मत प्रतिशत के लिहाज से भाजपा ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया था। लेकिन मोदी और शाह की घटती लोकप्रियता के मद्देनजर लोकसभा चुनाव जैसा प्रदर्शन दोहराना मोदी और शाह के लिए बड़ी चुनौती नजर आ रहा है। इस प्रदेश में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी मोर्चे के बीच ही मुख्य मुकाबला होना है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सबसे बड़ी चुनौती है। प्रभारी महासचिव के तौर पर शाह ने लोकसभा चुनाव में पार्टी को अभूतपूर्व सफलता दिलवाई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लोकसभा में इसी राज्य का प्रतिनिधित्व करते है। सवाल यह है कि तीन साल केंद्र की सत्ता पर काबिज रहने के बाद क्या भाजपा क्या लोकसभा में मिले जनसमर्थन को बरकरार रख सकेगी। जबकि पार्टी के सभी निर्वाचित सांसदों को अपने तीन साल के कामकाज का हिसाब देना होगा।