(आशु सक्सेना) बिहार विधानसभा चुनाव में हार से भयभीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीसरे चरण के मतदान से पहले अचानक विकास का जाप छोड़कर चुनाव को सांप्रदायिक बनाना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि महागठबंधन के नेता नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव दलितों और पिछड़ों के आरक्षण में से पांच फीसदी की कटौेती करके अल्पसंख्यकों यानि मुसलमानों को देने का षड़यंत्र करने का प्रयास करेंगे। दिलचस्प पहलू यह है कि महागठबंधन की किसी पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में ऐसा कोई वादा नही किया है। फिर नरेंद्र मोदी की आधार पर इसको चुनावी मुद्दा बना रहे है। दरअसल दिल्ली विधानसभा चुनाव में शर्मनाक हार झेलने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार का चुनाव किसी भी हालात में जीतना चाहते हैं। बिहार में विकास का नारा देकर वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को शिकस्त नही दे सकते, यह एहसास मोदी को हो गया है।
बिहार में नीतीश कुमार को विकास पुरूष के नाम से जाना जाता है और चुनाव के दौरान ही यह बात भाजपा सांसद शत्रुघन सिंहा सार्वजनिक रूप से कह चुके है। लिहाजा विकास की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी चुनावी रणनीति बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। मोदी को इस बात का एहसास बखुबी हो गया है कि बिहार का चुनाव वह सिर्फ सांप्रदायिक आधार पर ही जीत सकते है। बिहार का इतिहास है कि यहां का चुनाव जातिगत आधार पर ही तय होता है। लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद भाजपा को अपने धूर विरोधी रामविलास पासवान और भूपेंद्र कुशवाह को साथ जोड़ना पड़ा था। नतीजा भाजपा के पक्ष में आया और प्रदेश में राजग को 40 में से 32 सीट हासिल हुई। विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर आधारित होता है, लिहाजा भाजपा को इस चुनाव के लिए एक और नया साथी पूर्व मुख्यमंत्री और दलित नेता जतिन माझी को साथ जोड़ना पड़ा। जबकि दूसरी तरफ महागठबंधन लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा के उपचुनावों में लगातार जीत दर्ज करके प्रदेश के मूड को प्रदर्शित करने में सफल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह भी एहसास है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावांे में कांग्रेस की पराजय का सबसे बड़ा कारण मंहगाई का मुद्दा था। यही वजह थी कि लोकसभा चुनाव में तमाम नारों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय नारा था, बहुत हुई मंहगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार। इस मामले में मोदी सरकार पूरी तरह विफल रही है। आज लोगों को देश की आजादी के बाद सबसे ज्यादा मंहगाई की मार महसूस हो रही है। लिहाजा बिहार में प्रधानमंत्री चुनावी भाषण में विकास और मंहगाई पर अपने उदगार व्यक्त करने में असमर्थ हैं। अब उनके सामने एक ही विकल्प है कि वह सांप्रदायिक आधार पर मतों को विभाजित करवा कर जीत हासिल करें। यहां यह जि़क्र करना प्रासांगिक होगा कि नरेंद्र मोदी जब 2012 मे गुजरात विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे, तब आम राय थी कि वह यह चुनाव हार रहे है। उस चुनाव में उन्होंने जो हथकंडे आजमाए थे, उन सभी का प्रयोग वह अब बिहार में भी कर रहे हैं। उन्होंने चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने के लिए अहमद पटेल को कांग्रेस का भावी मुख्यमंत्री घोषित किया था और खुद को भावी प्रधानमंत्री। इसके बावजूद चुनाव में उनको पिछले चुनाव से दो सीट कम हासिल हुई थीं। लोकसभा चुनाव में मोदी ने पिछड़ा, नीच जात, चाय वाला सभी हथकंडे़ आजमाए। उस वक्त आरएसएस पूरी तरह मोदी के लिए समर्पित था। जो कि बिहार चुनाव के वक्त उस अंदाज में मोदी के साथ नजर नही आ रहा है। आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा का मुद्दा उछाल कर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मोदी के लिए नई समस्या खड़ी कर दी है। देश के बदले हुए राजनीतिक परिवेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए एकमात्र विकल्प चुनाव को सांप्रदायिक रंग देना ही बचा था। लिहाजा उन्होंने अपनी इस झूठी प्रतिष्ठा के लिए प्रधानमंत्री जैसे पद की प्रतिष्ठा को दाव पर लगा दिया। धर्म निरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री को एक सूबे का चुनाव जीतने के लिए सांप्रदायों के बीच नफरत का बीज बोना पड़ गया ।