नई दिल्ली: लखनऊ में सीएए विरोधी प्रदर्शकारियों के पोस्टरों पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार से कहा कि फिलहाल ऐसा कोई कानून नहीं है जो आपकी इस कार्रवाई का समर्थन करता हो। साथ ही कोर्ट ने कहा कि यह बेहद महत्वपूर्ण मामला है। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार से पूछा कि क्या उसके पास ऐसे पोस्टर लगाने की शक्ति है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से दलील दी कि निजता के अधिकार के कई आयाम हैं। तुषार मेहता ने कहा कि विरोध प्रदर्शन के दौरान बंदूक चलाने वाला और हिंसा में कथित रूप से शामिल होने वाला, निजता के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।
बहस के बाद अदालत ने मामले को विस्तृत सुनवाई के लिए तीन जजों की पीठ के पास भेज दिया है। हालांकि हाईकोर्ट के फैसले पर रोक नहीं लगाई है। इस मामले में अदालत में पेश हुए वकील ने कहा कि यूपी सरकार के पास इस तरह की होर्डिंग लगाने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। यह राज्य सरकार का एक प्रतिशोधात्मक दृष्टिकोण है। आरोपी मोहम्मद शोएब का पक्ष रख रहे वरिष्ठ वकील कोलिन गोंजाल्विस ने बहस शुरू करते हुए कहा कि उन्हें डर है कि कोई उनके घर आकर उनकी हत्या कर देगा।
वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने बाल यौन शोषण और हत्यारों के मामलों का उदाहरण देते हुए कहा, हमारे देश में ऐसी नीति कब से लागू हो गई कि हम लोगों के नाम सार्वजनिक करके उनकी मानहानि कर रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो सड़क पर चल रहे उस शख्स की भीड़ हत्या कर सकती है।
पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी की तरफ से अदालत में वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी पक्ष रखा। उन्होंने कहा, यह 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं जो आईजी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं।
शीर्ष अदालत ने पाया कि यूपी सरकार ने होर्डिंग्स पर कथित आगजनी करने वालों का ब्योरा देने के लिए यह (कठोर) कदम उठाया था। अदालत ने कहा कि वह राज्य की बैचेनी को समझ सकता है लेकिन फैसले को वापस लेने के लिए उसके पास कोई कानून नहीं है।
आपको बता दें कि इलाहाबाद के चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि लखनऊ के जिलाधिकारी और पुलिस कमिश्नर 16 मार्च तक होर्डिंस हटवाएं। साथ ही इसकी जानकारी रजिस्ट्रार को दें। हाईकोर्ट ने दोनों अधिकारियों को हलफनामा भी दाखिल करने का आदेश दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सीएए प्रदर्शन के दौरान कथित हिंसा के आरोपियों का पोस्टर हटाने का आदेश दिया है। लखनऊ के अलग-अलग चौराहों पर वसूली के लिए 57 कथित प्रदर्शनकारियों के 100 पोस्टर लगाए गए हैं। हाईकोर्ट के आदेश को उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की। एडवोकेट जनरल राघवेंद्र सिंह ने कहा कि सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला
हाईकोर्ट की विशेष खंडपीठ ने 14 पेज के फैसले में राज्य सरकार की कार्रवाई को संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत निजता के अधिकार (मौलिक अधिकार) के विपरीत करार दिया था। अदालत ने कहा था कि मौलिक अधिकारों को छीना नहीं जा सकता है। ऐसा कोई भी कानून नहीं है जो उन आरोपियों की निजी सूचनाओं को पोस्टर-बैनर लगाकर सार्वजनिक करने की अनुमति देता है, जिनसे क्षतिपूर्ति ली जानी है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि सामान्यतया न्यायपालिका में आने पर ही अदालत को हस्तक्षेप का अधिकार होता है। लेकिन जहां अधिकारियों की लापरवाही से मूल अधिकारों का उल्लंघन किया गया हो, अदालत किसी के आने का इंतजार नहीं कर सकती। निजता के अधिकार के हनन पर अदालत का हस्तक्षेप करने का अधिकार है। साथ ही प्रदेश सरकार से 16 मार्च तक पोस्टर हटाने के संबंध में की गई कार्रवाई पर रिपोर्ट देने के आदेश दिए थे।
इस आदेश के बाद प्रदेश सरकार ने उच्चस्तरीय मंथन किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के सभी पहलुओं पर मंथन और विधिक राय के लिए लखनऊ के लोकभवन में उच्चस्तरीय बैठक हुई। तमाम तकनीकी पहलुओं पर मंथन के बाद तय किया गया कि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की शरण ली जाएगी। लिहाजा, बुधवार को प्रदेश सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल कर दी गई है।