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(आशु सक्सेना): उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा इम्तिहान है। प्रधानमंत्री को अपने प्रदेश की जनता को जहां तीन साल के कामकाज का लेखाजोखा देना है। वहीं दूसरी ओर उनके सामने टिकट बंटवारे के बाद प्रदेश भाजपा में मची घमासान के चलते पार्टी के जनाधार को बचाने की चुनौती भी है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रदेश की एक चुनावी सभा में कहा था कि प्रदेश के लोगों ने पार्टी को जीता कर केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर देश की सेवा का मौका दिया है। अब सपा और बसपा की परिवारवाद और जातिवाद की राजनीति को हराकर भाजपा को पूर्ण बहुमत की सरकार देकर विकास में पिछड़ रहे प्रदेश के विकास का मौका दें। उस चुनावी रैली में प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के फैसले को भी जायज ठहराया था। लिहाजा इस चुनाव के नतीजों को मोदी सरकार के कामकाज पर जनता की रायशुमारी माना जायेगा। बहरहाल प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन के बाद मतों के चौतरफा विभाजन की संभावना काफी हद तक कम हुई है। अब प्रदेश में मौटेतौर त्रिकोणीय मुकाबले की तस्वीर उभरी है। प्रदेश में प्रमुख विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी अपने बूते पर चुनाव मैदान में है। वहीं भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ लोकसभा चुनाव में मिली सफलता को बरकरार रखने की रणनीति को अंजाम देने में जुटी है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने सहयोगी अपनादल के साथ गठबंधन करके प्रदेश की 80 सीटों में से 73 सीटों पर कब्जा किया था। भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले अप्रत्याशित सफलता मिली थी।

(आशु सक्सेना) समाजवादी पार्टी में बिखराव का फायदा किसको होगा, इसका फैसला तो 11 मार्च को चुनाव नतीजों के बाद ही तय होगा। लेकिन एक बात साफ है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने उन आलोचकों को करारा जबाव दिया है, जो यह आरोप लगाते थे कि उत्तर प्रदेश की सत्ता रिमोंट से चलाई जा रही है। यूँ तो पिछले छह महीने से लगातार अखिलेश यह संकेत दे रहे थे कि प्रदेश की बागड़ोर उनके हाथ में है और वह ऐसे किसी भी व्यक्ति को सत्ता में भागीदारी नही देंगे, जो उनके विकास कार्यों में बाधक नजर आ रहा है। एक सरकारी समारोह में उन्होंने कहा था कि कुछ लोग कहते हैं कि प्रदेश के तीन चार पांच मुख्यमंत्री हैं, अगर इन हालात में इतना काम हुआ है, तो कल्पना कीजिए कि जब एक ही मुख्यमंत्री होगा, तब कितना काम होगा। उनके इस बयान से साफ हो गया था कि वह अगला विधानसभा चुनाव अपनी स्वतंत्र छवि और मौजूदा सरकार को बदनाम करने वाले लोगों के साथ नही लडेंगे। इस बात पर कोई विवाद नही है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कार्यकाल में विकास कार्यों में तेजी आई है और अखिलेश को लोग विकास पुरूष के तौर पर स्वीकार करने लगे हैं। दिलचस्प पहलू यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहां सपा का जनाधार नही माना जाता है, वहां के लोगों का भी यह मानना है कि अखिलेश यादव प्रदेश का विकास करना चाहते हैं, लेकिन उनको कुछ लोग काम नही करने दे रहे हैं। इन लोगों का मानना है कि अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव उनकी राह में सबसे बडी रूकावट हैं। अब अगर पिछले दिनों के राजनीतिक घटनाक्रम पर नज़र डालें तो अखिलेश यादव ने सबसे पहले अपने चाचा को निशाना बनाया, लेकिन पिता मुलायम सिंह के कहने पर उन्हें फिर मंत्रिमंडल में वापस ले लिया।

(आशु सक्सेना) उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में घमासान मचा हुआ है। 2012 में शुरू हुई चाचा भतीजे की जंग अब खुलकर सामने आ गई है। इस पारिवारिक जंग के संदर्भ में रहीम का एक दोहा सटीक बैठता है। रहीमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुडे़ जुड़े गांठ पड़ जाए। दरअसल चाचा भतीजे के बीच यह गांठ 2012 में उस वक्त पड़ी थी। जब सपा अपने राजनीतिक इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई थी और इस कामयाबी का श्रेय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और सांसद अखिलेश यादव को दिया जा रहा था। विधायक दल की बैठक से पहले चाचा शिवपाल सिंह यादव ने तर्क दिया कि मुख्यमंत्री का पद मुलायम सिंह यादव को संभालना चाहिए। अपने तर्क को वजन देने के लिए उन्होंने कहा कि नेताजी तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं, जबकि मायावती इस पद को चार बार संभाल चुकी हैं। उन्होंने अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने का भी रास्ता दिखाया और कहा कि कुछ समय बाद यह सत्ता नेताजी अखिलेश को सौंप दें और खुद को देश की राजनीति में सक्रिय कर लें। उस वक्त पार्टी महासचिव और सांसद रामगोपाल यादव ने शिवपाल के तर्क को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि बाद में क्यों अभी अखिलेश क्यों नही। पार्टी चौथी बार सत्ता में आई है और पूर्ण बहुमत से आई है। नेताजी को ही इसका श्रेय जाता है। उस वक्त मुलायम सिंह यादव ने हमेशा की तरह रामगोपाल यादव के तर्क को तरजीह दी और ताज अखिलेश यादव के सिर पर रख दिया गया।

(आशु सक्सेना) उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विजयादशमी के मौके पर खुद बनाम अखिलेश यादव बना लिया। प्रधानमंत्री मोदी ने लखनऊ की ऐतिहासिक ऐशबाग रामलीला मैदान पर दशहरा मेले में शामिल होकर आगामी विधान सभा चुनाव का बिगुल फूंका है। मोदी की विजयादशमी के मौके पर लखनऊ यात्रा पर तमाम राजनीतिक दलों ने आलोचना की। यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि चुनाव बिहार में होता तो पीएम रावण जलाने वहां जाते। यह बात दीगर है कि प्रोटोकॉल के दायरे में विजयादशमी पर लखनऊ पहुंचे मोदी का स्वागत मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एयरपोर्ट पर किया। उत्तर प्रदेश की 73 लोकसभा सीट के बूते पर मोदी केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुए है, लिहाजा विधान सभा चुनाव में अपने जनाधार को बरकरार रखना मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौति है। देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के मद्देनज़र फिलहाल मोदी की लोकप्रियता लोकसभा चुनाव जैसी नहीं है । जाहिरातौर पर सूबे के चुनाव में मोदी बनाम अखिलेश के मुकाबले में अखिलेश आगे नज़र आ रहे हैं। मोदी ने गुजरात के विकास मॉडल और मंहगाई के नारे पर केंद्र की सत्ता हासिल की थी। उनके शासन में मंहगाई तेज़ी से बड़ी है। जहाँ तक विकास मॉडल की बात है अखिलेश को भी लोग उत्तर प्रदेश का विकास पुरुष मानने लगे हैं। लिहाजा मोदी अब ये विधान सभा चुनाव विकास के नारे पर नहीं जीत सकते। नतीजतन मोदी ने चुनाव को साम्प्रदायिक रंग देना शुरू कर दिया है। विजयादशमी पर लखनऊ में मोदी ने सिर्फ पाकिस्तान को निशाना बनाया। उन्होंने पड़ोसी देश चीन पर एक शब्द भी नहीं बोला। जबकि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में देश के लिए चीन पाकिस्तान से बड़ी समस्या नज़र आ रहा है।

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