(आशु सक्सेना) जनतादल (यू) के पूर्व अध्यक्ष एवं सांसद शरद यादव ने साझी विरासत बचाओ सम्मेलन का आयोजन करके अपने राजनीतिक जीवन का मास्टर स्ट्रोक लगाया है। जदयू के बागी नेता के तौर शरद यादव ने इस सम्मेलन की बागडोर संभाली। इस सम्मेलन में विपक्षी एकता का मजबूत नज़ारा देखने को मिला। विपक्ष की एक मंच पर मौजूदगी ने साझी विरासत बचाओ सम्मेलन की सफलता ने इसे एक आंदोलन के शुभारंभ की शक्ल दे दी है। इस पूर्व निधारित आयोजन को सत्तापक्ष ने चुनौती के तौर पर स्वीकार्य किया है। सत्तारूढ़ दल भाजपा ने इस सम्मेलन के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए मिशन 350+ की घोषणा की है। बहरहाल, आम चुनाव से पहले साझी विरासत बचाओ सम्मेलन का आयोजन निश्चित ही शरद यादव के राजनीतिक जीवन के आखिरी दौर का एक महत्व पूर्ण फैसला है। अपनी ही पार्टी के बागी नेता के तौर वह साझी विरासत के नारे पर विपक्ष को एक मंच पर लाने में सफल रहे है। दरअसल शरद यादव की संसदीय राजनीति की शुरूआत वेहद धमाकेदार हुई थी। सन् 1974 में जेपी आंदोलन शुरू हो चुका था। मध्यप्रदेश में छात्रनेता के रूप में शरद यादव अपनी पहचान बना चुके थे।
इस दौरान उनके गृह क्षेत्र जबलपुर के सांसद के निधन के बाद लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ। इस चुनाव में शरद यादव जेपी द्वारा घोषित पर संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार के तौर पर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरे और इस चुनाव में विजयी होकर युवा छात्रनेता के तौर पर पहली बार संसद पहुंचे। सन् 1975 आपातकाल के विरोध में शरद यादव ने विपक्षी सांसदों के साथ संसद से सामुहिक इस्तीफे का फैसला किया। आपातकाल के दौरान जेल में रहे। आपातकाल के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में दूसरी बार शरद यादव सांसद चुने गये। देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार के कार्यकाल में शरद यादव की महत्वपूर्ण भूमिका रही। शरद यादव को संसदीय राजनीति में चार दशक से ज्यादा हो गये हैं। निश्चित ही अब उम्र के लिहाज से शरद यादव अपने राजनीति जीवन के आखिरी दौर से गुजर रहे हैं। अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत मध्यप्रदेश से करने वाले शरद यादव उत्तर प्रदेश और बिहार से लोकसभा चुनाव लडकर संसद पहुंचे हैं। तीन बार के राज्यसभा सांसद हैं। फिलहाल बिहार से जदयू के राज्यसभा सांसद हैं। नीतीश कुमार के भाजपा का दामन थामने के बाद शरद यादव ने सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ आक्रामक रूख अख्तियार करके विपक्ष के स्वीकार्य नेता की छवि हासिल कर ली है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार का कार्यकाल पूरा करके चुनाव मैदान में होगी। भाजपा 1996 में पहली बार लोकसभा में सबसे बडा दल बनकर उभरी थी। कांग्रेस की पीवी नरसिंह राव सरकार के खिलाफ आए जनोदश में भाजपा 162 सांसदों वाली सबसे बड़ी पार्टी बनी। सत्तारूढ़ कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के तौर पर 139 सांसदों वाली पार्टी बनी। दोनों ही पार्टियां अपने बूते पर सरकार बनाने में सक्षम नही थीं। इसके बावजूद भाजपा ने सबसे बडा दल होने के नाते सरकार बनाने का दावा किया। अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ। लेकिन भाजपा की यह पहली केंद्र सरकार का 13 दिन के बाद पतन हो गया। तब लोकसभा के 190 सांसदों का गैर कांग्रेस और गैर भाजपा मोर्चा उभर कर सामने आया। जिसे संयुक्त मोर्चा का नाम दिया गया। बाबरी मसजिद बिध्वंस के बाद उभरे राजनीतिक परिदृश्य में यह मोर्चा धर्म निरपेक्षता के नाम पर गठित हुआ था। नतीजतन दूसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता के नाम पर मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन की घोषणा की। इस सरकार का पतन कांग्रेस और भाजपा के एकजुट होने के बाद हुआ था। यह लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा नही कर सकी और देश को एक बार फिर मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा फिर सबसे बड़ी पार्टी बनी। इस चुनाव के बाद 94 सीटों पर सिमटा संयुक्त मोर्चा बिखर गया। मोर्चा संयोजक और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडु ने भाजपा नीत अटल बिहारी बाजपेयी सरकार को समर्थन देने की चिठ्ठी राष्ट्रपति को भेज दी और दूसरी बार भाजपा केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई। इस सरकार का पतन 13 महीने बाद हो गया। इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा फिर 182 सांसदों वाली सबसे बड़ी पार्टी बनी। भाजपा ने क्षेत्रीय दलों के सहयोग से राजग सरकार का कार्यकाल पूरा किया। 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा इंडिया शाइनिंग के नारे पर चुनाव मैदान में कूदी। इस चुनाव में भाजपा नीत सत्तारूढ़ राजग को करारा झटका लगा। लोकसभा में कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए 218 सांसदों का सबसे बड़ा गुट था। वामपंथी मोर्चे को अप्रत्याशित रूप से 59 सीट हासिल हुई। जबकि समाजवादी पार्टी पहली बार 36 सांसदों के साथ लोकसभा में तीसरी ताकत बन कर उभरी। सपा और वामपंथियों की मदद से मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार अस्तित्व में आयी। भाजपा एक बार फिर अपनी विपक्ष की भूमिका में पहुंच चुकी थी। दस साल विपक्ष में रहने के बाद 2014 का चुनाव भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करके लड़ा। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की पहचान कट्टर हिंदु नेता रूप में उभर चुकी थी। इस चुनाव में भाजपा ने अप्रत्याशित सफलता हासिल की। देश के संसदीय इतिहास में पहली बार भाजपा अपने बूते पर पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली पार्टी बनी। अब 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा अपनी सरकार का कार्यकाल दूसरी बार पूरा करके न्यू इंडिया के नारे पर लड़ने जा रही है। सवाल यह मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने के बाद भाजपा के पास उपलब्धियों के नाम पर कहने को ज्यादा कुछ नही है। लिहाजा 2019 का चुनाव भाजपा के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा अपना सर्वश्रेष्ठ कर चुकी है। अधिकांश राज्यों में भाजपा चरम पर है। उत्तर प्रदेश और बिहार की 120 लोकसभा सीट में से 105 पर भाजपा का कब्जा है। गुजराज, राजस्थान, दिल्ली मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड़, हिमाचल प्रदेश, झारखंड़, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में भाजपा ने सुपड़ा साफ किया है। कहने का मतलब यह है कि इन राज्यों में ओर अधिक बेहतर प्रदर्शन की कोई उम्मीद नही है। इन राज्यों में भाजपा के सांसदों की संख्या बढ़ तो नही सकती, लेकिन संख्या कम होने की ज्यादा संभावना है। यही वजह है कि भाजपा दक्षिण के राज्य तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, के अलावा ओडिशा और बंगाल में जोर आजमाईश कर रही है। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में एक बात साफ है कि अगर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होते हुए घटक दलों के सहयोग के बावजूद बहुमत के आंकड़े से पीछे रह गई। तब चुनाव के बाद जो परिदृश्य उभरेगा, उसकी शक्ल कुछ 1996 की लोकसभा जैसी होगी। अगर कांग्रेस संख्या के लिहाज से दूसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद सरकार बनाने की स्थिति में नही हुई, तब उसे एक बार फिर धर्म निरपेक्षता के नाम पर सांसदों के सबसे बड़े समूह वाले किसी संभावित मोर्चे का समर्थन करने को मजबूर होना होगा। इस मोर्चे का नेता कौन होगा, यह बड़ा सवाल है। उस वक्त शरद यादव जैसे स्वीकार्य राजनेता का नाम स्वाभाविक रूप से उभर सकता है। बिहार के बदले हुए राजनीतिक समीकरणों में शरद यादव कीे अपने संसदीय क्षेत्र मधेपुरा से चुनाव लड़कर जीतने की संभावना बढ़ गई है। पिछला चुनाव वह यहां से लालू यादव की पार्टी राजद के उम्मीदवार राजीव रंजन उर्फ पप्पू यादव से हार गये थे। अगला चुनाव वह राजद के समर्थन से लड़ेंगे। लिहाजा ज तने की स्थिति में गैर भाजपा सरकार में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी। संभव है कि संख्या के लिहाज से शरद यादव गैर भाजपा मोर्चे के सर्व सम्मत नेता नही बन सके। तब भी उनकी राजनीति के चरम पर पहुंचने की संभावना खत्म नही होगी। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में एक बात साफ है कि अगर इस बार कोई ऐसा मोर्चा सत्ता पर काबिज हुआ, जिसका नेतृत्व कांग्रेस के पास नही हुआ। इस बार ऐसी सरकार के पतन का कारण कांग्रेस नही बनेगी। लिहाजा उस सरकार के कार्यकाल पूरा करने की संभावना बढ़ जाएगी। ऐसी किसी संभावित सरकार के कार्यकाल में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में एक बार फिर किसी स्वीकार्य राजनेता तलाश होगी। पिछले राष्ट्रपति चुनाव में शरद यादव का नाम विपक्ष के उम्मीदवार के तौर पर चर्चा में था। अगले राष्ट्रपति चुनाव के वक्त शरद यादव इस शीर्ष पद के सबसे प्रबल दावेदार बन सकते हैं। 2022 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के वक्त शरद यादव आजादी की 75 वीं सालगिरह के साथ अपनी भी 75 वीं सालगिरह मना रहे होंगे। उम्र के लिहाज से भी वह देश के इस सर्वोच्च पद के हकदार नज़र आएंगे।