(संजीव आचार्य) तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्तनशीं था, उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था. शुक्रवार की शाम दिल्ली के प्रेस क्लब में इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक और लेखक अरुण शौरी ने जब पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब का ये शेर पढ़ा तो वहाँ मौजूद 500 से ज़्यादा पत्रकारों को मालूम था कि शेर दरअसल किसके लिए पढ़ा गया है। उन्होंने तालियों की गड़गड़ाहट से शेर का स्वागत किया। प्राइवेट टीवी चैनल एनडीटीवी के प्रोमोटरों प्रणय रॉय और राधिका रॉय के घर और दफ़्तरों पर पिछले हफ़्ते सीबीआई के छापों के ख़िलाफ़ दिल्ली के पत्रकारों की ये दुर्लभ बैठक थी और अरुण शौरी के सीधे निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे। हिंदुत्व की राजनीति के वो अकेले बुद्धिजीवी हैं जो खुले मंच पर नरेंद्र मोदी का नाम लेकर उनकी आलोचना करते हैं और मज़ाक उड़ाते हैं। पिछले तीन बरस में पत्रकारों को मोदी के साथ कई बार सेल्फ़ी खींचने की होड़ लगाते देखा गया है, लेकिन दिल्ली में उनकी ओर से विरोध की ये पहली तीखी आवाज़ थी। राम गए, रावण गए, ये भी जाएंगे अपनी बात की शुरुआत में अरुण शौरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद दिया कि "मोदी के कारण इतनी बड़ी संख्या में पुराने दोस्त यहाँ इकट्ठा हुए हैं।" उन्होंने ये बातें प्रधानमंत्री कार्यालय यानी पीएमओ से सिर्फ़ डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर प्रेस क्लब में कहीं।और अगर मोदी की टीम ने इस बैठक का नोटिस नहीं लिया या इसको उसी तरह अपने ठहाके लगाकर हवा में उड़ा दिया जैसा कि वो राहुल गाँधी की राजनीति को हवा में उड़ाते हैं।
तो इसका सिर्फ़ एक ही मतलब है कि ये सरकार धरातल से छह इंच ऊपर तैर रही है। मंच पर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर, एचके दुआ, शेखर गुप्ता, प्रणय रॉय के साथ क़ानूनविद् फली एस नरीमन आदि वो लोग बैठे थे जिनमें से ज़्यादातर ने इंदिरा गाँधी की इमर्जेंसी का दौर देखा था। तब बोलने की आज़ादी ख़त्म कर दी गई थी और प्रेस की आवाज़ दबा दी गई थी। हबीब जालिब का शेर पढ़ने के बाद अरुण शौरी ने मुस्कुराते हुए कहा कि ये पाकिस्तानी शायर का शेर था, पर मैं ख़ुद को बचाने के लिए गुरुग्रंथ साहिब में लिखी बात कहता हूँ: राम गयो, रावण गयो- जा के बहु परिवार। और थोड़ा रुककर उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- "राम गए, रावण गए… ये भी जाएँगे।" अरुण शौरी और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकार 1988 में भी सत्ता का प्रतिकार करने को ठीक इसी जगह पर एकजुट हुए थे जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने मानहानि विधेयक लाकर प्रेस (तब प्राइवेट टीवी चैनल नहीं हुआ करते थे) पर लगाम लगाने की कोशिश की थी। प्रेस बिल के ख़िलाफ़ विरोध जताने के लिए दिल्ली के पत्रकारों ने इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक जुलूस निकाला था जिसमें कई नामी-गिरामी संपादक शामिल हुए थे। सफ़ेद कुर्ता और धोती पहने रामनाथ गोयनका इस जुलूस की सबसे अगली क़तार में चले थे। उन दिनों राजीव गाँधी के मीडिया मैनेजरों ने बड़े जतन से उनकी 'मिस्टर क्लीन' की छवि गढ़ी थी। उनके पास लोकसभा में जैसा बहुमत था वैसा नरेंद्र मोदी के पास आज भी नहीं है। पर राजीव गाँधी को इस सबका कोई फ़ायदा नहीं हुआ। इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सहानुभूति की लहर पर सवार होकर सत्ता में पहुँचे राजीव गाँधी की 'गुडविल' मुट्ठी की रेत की तरह तेज़ी से छीजी जा रही थी। राजीव गाँधी के मंत्री जिस शहर में जाते उनसे सबसे पहले सवाल पूछा जाता कि क्या आप मानहानि विधेयक का समर्थन करते हैं या नहीं? अगर मंत्री गोलमोल जवाब देते या कहते कि हाँ, तो बिना कुछ कहे सभी पत्रकार चुपचाप उठकर प्रेस कांफ़्रेंस से बाहर आ जाते। ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक राजीव गाँधी ने अपनी कैबिनेट की बैठक बुलाकर मानहानि विधेयक को वापिस लेने का ऐलान नहीं कर दिया, हालाँकि इसे लोकसभा में पास किया जा चुका था। शुक्रवार को प्रेस क्लब में अरुण शौरी ने उन पुरानी घटनाओं को याद किया और पत्रकारों से नरेंद्र मोदी के मंत्रियों के लिए भी यही नुस्ख़ा अपनाने को कहा। उन्होंने कहा,"बॉयकॉट कीजिए। उनकी (मंत्रियों की) प्रेस कांफ़्रेंस का बॉयकॉट कीजिए। उन्हें (यानी मंत्रियों को) अपने किसी समारोह या सभा में आमंत्रित मत कीजिए।" शौरी ने मीडिया के साथ नरेंद्र मोदी सरकार के रिश्तों पर बिना लाग लपेट के अपनी बात कही। उन्होंने कहा मोदी सरकार ने कई तरह से मीडिया को चुप कराने या उसे बहलाने की कोशिश की- "पहले विज्ञापन देकर मीडिया का पेट भरा- एक ज़ुलू कहावत है कि कुत्ते के मुँह में हड्डी डाल दो तो वो भौंकना बंद कर देता है। और अब भय फैलाया जा रहा है कि 'मोदी सब कुछ सुन रहे हैं'। 'अमित शाह सीबीआई को कंट्रोल करते हैं'।" अपनी बात के आख़िर में उन्होंने कहा, "भारत में जिस किसी ने प्रेस के ख़िलाफ़ हाथ उठाया है, उसका हाथ जल गया है और उसे अपना हाथ वापिस खींचना पड़ा है।" अरुण शौरी के ऐसे तेवर तब दिखाई पड़ते थे जब वो इमरजंसी और उसके बाद के दिनों में मानवाधिकार आंदोलनों में सक्रिय थे और सरकारें उन्हें चुप कराने की कोशिश करती थीं। अस्सी के दशक में जब इंडियन एक्सप्रेस के संपादक के तौर पर उन्हें हिंदुस्तान का सबसे बड़ा प्रतिष्ठान विरोधी पत्रकार माना जाता था। आम तौर पर एक्टिविज़्म या राजनीतिक विचारधाराओं के विवाद से दूर रहने वाले प्रणय रॉय तक का चेहरा बोलते वक़्त तमतमा उठा और उन्होंने मौजूद पत्रकारों से कहा - "अगर आप इनके सामने रेंगने लगे तो ये आप को छोड़ेंगे नहीं। लेकिन अगर आप डिगे नहीं और इनके सामने तने रहे तो आपको ये परेशान नहीं कर पाएँगे।" इंडिया टुडे ग्रुप के संपादक और मालिक अरुण पुरी ने एक लिखित बयान जारी करके एनडीटीवी का खुलकर समर्थन किया, बुज़ुर्ग हो चले कुलदीप नैयर ने सत्ताधीशों के साथ अपने संघर्षों को याद किया, शेखर गुप्ता, ओम थानवी और कई दूसरे पत्रकारों ने मीडिया हाउस पर सीबीआई के छापे को आने वाले काले दिनों का संकेत बताया, कुलदीप नैयर ने कहा कि मैं सोचता था कि इमर्जेंसी के बाद अब ये और इमर्जेंसी नहीं लगाएँगे मगर इन्होंने फिर से वैसा ही कर दिया। और क़ानूनविद् फली एस नरीमन ने नात्सी विरोधी जर्मन पादरी मार्टिन निमोलर की वो प्रसिद्ध कविता सुनाई: पहले वो कम्युनिस्टों को दबोचने आए, पर मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था। पर तीन बरस में क्या हुआ कि देश के बड़े संपादक मोदी की नाव के चप्पू चलाने की बजाए उनके सामने कमर पर हाथ रखकर खड़े हो गए हैं? एनडीटीवी और नरेंद्र मोदी सरकार के बीच की कड़वाहट कुछ वैसी ही होती जा रही है जैसी इमरजेंसी में और उससे पहले इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप और इंदिरा गाँधी के बीच हो गई थी। इंदिरा गाँधी जब एक्सप्रेस की पत्रकारिता को क़ाबू में करने में नाकाम रहीं तो उन्होंने एक्सप्रेस के मैनेजमेंट को हड़पने की कोशिश की। उनकी हत्या के बाद राजीव गाँधी और एक्सप्रेस के बीच भी वैसी ही कड़वाहट जारी रही। राजीव ने एक्सप्रेस ग्रुप पर और रामनाथ गोयनका के सुंदरनगर गेस्ट हाउस पर सीबीआई, इनकम टैक्स और एनफ़ोर्समेंट डायरेक्टरेट के छापे डलवाए। बाद की घटनाओं ने साबित कर दिया कि इस लड़ाई में न इंदिरा गाँधी जीतीं और न ही राजीव गाँधी। अरुण शौरी ने ठीक कहा कि जब भी सत्ताधीशों ने मीडिया पर हाथ डाला है तो उनका हाथ जला ही है। इंदिरा गाँधी को इमरजेंसी का भुगतान करना पड़ा और रोड रोलर बहुमत के दम पर मीडिया की बाँह मरोड़ने की हिम्मत करना राजीव गाँधी को भी भारी पड़ा। ये कोशिश उनसे पहले बिहार के काँग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने भी की थी और अपनी इसी कोशिश में उन्होंने बिखरे हुए मीडिया को एकजुट करने में मदद की। ठीक यही काम आज भी हो रहा है वरना शेखर गुप्ता, राज चेंगप्पा, अरुण पुरी और यहाँ तक कि ख़ुद प्रणय रॉय कब से सत्ता-प्रतिष्ठान विरोधी पत्रकार हो गए? इन सबका पाँच सौ पत्रकारों की मौजूदगी में कुलदीप नैयर और अरुण शौरी के साथ एक मंच पर बैठना ही ये साबित करता है कि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के नॉन-स्टॉप बोलने वाले तमाम प्रवक्तागणों ने एनडीटीवी को भारत में प्रेस की आज़ादी का प्रतीक बना दिया है। देश में इमरजेंसी न होने के बावजूद बीजेपी सरकार ने एनडीटीवी को अपनी स्क्रीन काली करके विरोध दर्ज करने का मौक़ा दिया और अब सीबीआई के छापे डलवाकर प्रेस और सरकार के बीच एक नए और खुले द्वंद्व का बीज बो दिया है। पिछले तीन बरस में शायद ही किसी राजनीतिक पार्टी के किसी नेता ने मोदी और उनकी सरकार पर इतना सीधा और तीखा हमला बोलने की हिम्मत की हो। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ज़रूर 'घुस कर मारूँगा' की तर्ज़ पर राजनीति की शुरुआत की थी पर पंजाब, गोवा विधानसभा चुनावों और दिल्ली के स्थानीय चुनावों में हार के बाद वो भी चुप्पी साध गए हैं। क्योंकि उन्हें चुनावी राजनीति करनी है और वोटर फ़िलहाल नरेंद्र मोदी के बारे में कोई सवाल सुनने के मूड में नहीं है। पर अरुण शौरी कोई अरविंद केजरीवाल नहीं हैं। उन्हें न कोई चुनाव लड़ना है, न किसी वोट बैंक को मनाए रखने के लिए सोच समझ कर, सधी भाषा में बोलना है। मोदी ने जिस तरह लालकृषण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा को बर्फ़ में लगाया उसी तरह शौरी को भी किनारे कर दिया। संघ परिवार से गर्भनाल का संबंध आडवाणी-जोशी का मुँह बंद रखने पर मजबूर करता है पर शौरी ने निक्कर-टोपी पहनकर संघ की शाखा में कभी ध्वज-प्रणाम नहीं किया। वो अगर अपनी पर उतारू हो गए तो हर फ़ोरम पर बोलने, लिखने और मोदी और उनके मंत्रियों का मखौल उड़ाने से उन्हें कौन रोकेगा? मसलन, मोदी के कैबिनेट मंत्री वेंकैया नायडू के बारे में उन्होंने कहा ही कि वेंकैया को तीसरी जमात की किताब से एक पन्ना लिखने को कहा जाए तो उन्हें नहीं आएगा और उनसे इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिखवाए जाते हैं ! इसी तरह अरुण शौरी अभेद्य से लगने वाले मोदी के उस इमेज कवच को धीरे धीरे कुछ हद तक प्रभावहीन करने की ताक़त रखते हैं जो विज्ञापन और इमेज-मेकिंग कंपनियों ने कई वर्षों की मेहनत से तैयार किया है। अगर मोदी की इमेज के ये कवच-कुंडल एक बार उतर गए तो उन्हें हर मर्ज़ की दवा, हर सवाल का जवाब और हर समस्या का समाधान मांगने वाले लोगों की नज़र बदलते देर नहीं लगेगी. लेकिन अभी वहाँ पहुँचने के लिए प्रेस और मीडिया पर कई छापे और डालने होंगे।
साभार संजीव आचार्य के फेस बुक वाल से