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(आशु सक्सेना) उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीज़ों से एक बात साफ हो जाएगी कि आज़ाद भारत में सांप्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता की विचारधारा के बीच लड़े जा रहे इस चुनाव में बहुमत किस वैचारिकता के साथ खड़ा है। सूबे में पांच दौर के मतदान के बाद जो तस्वीर उभर रही है, उसमें एक तथ्य साफ नजर आ रहा है कि वैचारिकतौर पर यह लड़ाई सांप्रदायिकत और धर्म निरपेक्षता के नारे पर लड़ी जा रही है। जहां केंद्र की सत्ता पर बहुमत से आसिन भारतीय जनता पार्टी का चुनाव प्रचार सांप्रदायिक धुव्रीकरण पर केंद्रीत है। वहीं उसके सामने चुनाव मैदान में खड़ी सभी राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र में धर्म निरपेक्षता की रक्षा की दुहाई दे रही हैं। यह बात दीगर है कि मौजूदा परिदृश्य में धर्म निरपेक्ष मतों के बंटवारे की आशंका ज्यादा प्रतीत हो रही है। हांलाकि शुरू के दो चरण बाद चुनावी मुकाबला तीन राजनीतिक ताकतों के बीच सीमित हो गया है। यूु तो यह मुकाबला सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा के बीच माना जा रहा है। लेकिन बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती की मौजूदगी चुनाव का त्रिकोणिय बनाए हुए है। यहां यह ज़िक्र करना मौजू होगा कि बिहार में भाजपा की शिकस्त का अहम कारण धर्म निरपेक्ष मतों का महागठबंधन के पक्ष में धुव्रीकरण था। भाजपा ने इस सूबे में भी बिहार जैसी ही रणनीति अपनाई है। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा ने जातिगत समीकरणों को दुरूस्त करने के लिए जाति विशेष में जनाधार रखने वाले राजनीतिक दलों से गठजोड़ के साथ ही शमशान और कब्रिस्तान का ज़िक्र करके सांप्रदायिक रंग दे दिया है।

असम में मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ चुनाव मैदान में उतरने वाली भाजपा ने बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी मुख्यमंत्री प्रत्याशी की घोषणा नही की है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव अपने स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी की छवि और कुर्मियों में पेंठ रखने वाले अपनादल के साथ गठबंधन करके लड़ा था और इस गठबंधन को 80 में से 73 सीट पर जीत मिली थी। इसके बावजूद भाजपा ने विधानसभा चुनाव में राजभर समुदाय को साथ जोड़ने के लिए एक नये घटक भारतीय समाज पार्टी को भी साथ जोड़ा है। यह बात दीगर है कि अपनादल इस दौरान विभाजित हो चुका है। केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने इस पार्टी को अपनी मां कृष्णा पटेल से छिन लिया है। लिहाजा अपनादल (कृष्ण पटेल गुट) भी चुनाव मैदान में है। बहरहाल प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य ने चुनाव को बेहद दिलचस्प बना दिया है। एक तरफ भाजपा सूबे के जातिगत समीकरणों को दुरूस्त करते हुए हिंदु मतों के धुव्रीकरण की जुगत में है। वहीं सपा कांग्रेस गठबंधन और बसपा धर्म निरपेक्ष मतों की रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। अब सवाल यह है कि इस चुनाव में किस तरफ बहुमत होगा, इसका सही जबाव तो होली की पूर्व संध्या 11 मार्च को ही मिलेगा। लेकिन एक बात साफ है कि धर्म निरपेक्ष मतों की पहली पसंद सपा-कांग्रेस गठबंधन नजर आ रहा है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कांग्रेस को 105 सीट देकर संभवतः अपने कुछ समर्थकों को नाराज़ किया हो, लेकिन वह यह संदेश देने में सफल नजर आ रहे हैं कि उनकी राजनीति दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में धर्म निरपेक्षता पर आधारित है और रहेगी। वहीं ऐसा संदेश जन जन तक संप्रेषित करने में मायावती थोड़ी कमजोर प्रतीत हो रही है। सूबे के हालात कुछ 1996 विधानसभा चुनाव जैसे बन गये है। भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की 13 दिन की सरकार अपदस्त हो चुकी थी। सूबे के 52 सांसद भाजपा के थे। लेकिन केंद्र की सत्ता पर संयुक्त मोर्चा सरकार काबिज थी। उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती का पर्दापण हो चुका था। वह पहली बार भाजपा के सहयोग से सूबे की बागड़ोर संभाल चुकी थी। यह चुनाव सही मायनों में बसपा के लिए चुनौती थी। 1993 में सपा के साथ गठबंधन करके बसपा प्रदेश में एक बड़ी पार्टी बन चुकी थी। मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में बसपा कार्यकर्ता खासकर दलित गोलबंद हुए थे। वहीं इस चुनाव में अटल बिहारी सरकार के पतन के चलते भाजपा के प्रति थोड़ी सहानुभूति लहर थी। जबकि मुकाबले में धर्म निरपेक्ष ताकतें आज से ज्यादा बटी हुईं थीं। कांग्रेस, कांग्रेस तिवारी, समाजवादी पार्टी, केंद्र की सत्ता पर काबिज जनतादल समेत वामपंथी दल चुनाव मैदान थे। इनके अलावा विशुद्ध जातिगत आधार पर बसपा का भी उदय हो चुका था। 1996 में 425 विधानसभा क्षेत्रों के लिए हुए चुनाव में 174 सीट जीत कर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। लेकिन बहुमत के आंकड़े से काफी पीछे रह गई। लिहाजा विधानसभा को निलंबित करके राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। विधानसभा में सपा 110 सदस्यों के साथ दूसरे नंबर पर थी। जबकि बसपा 1993 के जनाधार को बरकरार रखते हुए 67 सीटों के साथ तीसरे नंबर की पार्टी थी। प्रदेश में पांच महीने के राष्ट्रपति शासन के दौरान बसपा और भाजपा की नज़दीकी बढ़ी। दोनों के बीच हुए समझौते के बाद भाजपा के समर्थन से मायावती दूसरी बार सत्ता पर काबिज हो गईं। लेकिन छह महीने के बाद जब मायावती ने भाजपा को सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया। तब भाजपा नेे समर्थन वापस ले लिया और कल्याण सिंह ने भाजपा की सरकार बनाने का दावा पेश किया। कल्याण सिंह ने 21 सितंबर 97 को सरकार की कमान संभाल ली। उसके बाद प्रदेश में करीब चार साल चली राजनीतिक अस्थिरता के बीच भाजपा ने तीन मुख्यमंत्री बदले। कल्याण सिंह के हटने के बाद नबंवर 99 में राम प्रकाश गुप्ता ने प्रदेश की बागड़ोर संभाली और चुनावी साल में राजनाथ सिंह को भाजपा का चेहरा बनाकर पेश किया गया। दिलचस्प पहलू यह है कि इस वक्त तक केंद्र की सत्ता पर अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा तीसरी बार केंद्र की सत्ता पर काबिज थी। इसके बावजूद 2002 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर किसी दल को बहुमत नही मिला। इस चुनाव में केंद्र की सत्ता पर काबिज होने और सूबे से सबसे ज्यादा सांसद होने के बावजूद भाजपा को जबरदस्त झटका लगा। विभाजित उत्तर प्रदेश के पहले आम चुनाव में 403 सदस्यों की विधानसभा में भाजपा 88 सीट तक सिमट कर तीसरे नंबर पर पहुंच चुकी थी। जबकि 143 सीट के साथ सपा सूबे में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। कांग्रेस 25 सीट जीतने में सफल रही थी। इस चुनाव में अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल ने भाजपा केे खिलाफ बेहतर प्रदर्शन किया था और रालोद को 14 सीट पर जीत मिली थी। विधानसभा में किसी भी दल के पास बहुमत नही था, लिहाजा सूबे को एक बार फिर 52 दिन के लिए राष्ट्रपति शासन देखना पड़ा। इस दौरान भाजपा और बसपा तीसरी बार फिर नजदीक आये और मायावती एक बार फिर भाजपा की मदद से सूबेदारी हासिल करने में सफल रहीं। लेकिन यह रिश्ता चार महीने नही टिक सका और 29 अगस्त 2002 को मायावती सरकार का पतन हो गया। इसी दिन धर्म निरपेक्षता नारे पर मुलायम सिंह यादव ने रालोद के साथ सरकार का गठन किया। कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चली मुलायम सिंह सरकार ने विधानसभा का कार्यकाल पूरा किया। अगले चुनाव में बसपा ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति के चलते पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफलता हासिल की और मायावती ने अपनी बहुमत की सरकार का कार्यकाल पूरा किया। अगले 2012 के चुनाव में सूबे के मतदाताओं ने सपा को पूर्ण बहुमत दिया और अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा की सरकार आज भी सत्ता पर काबिज है। दिलचस्प पहलू यह है कि इस दौरान विधानसभा में भाजपा तीसरे नंबर का ही दल है। जबकि लोकसभा में भाजपा के 71 सांसद हैं और सूबे में उसके घटक अपनादल के दो सांसद मिला कर संख्या 73 हैं। इतना ही नहीं इस वक़्त भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता पर काबिज है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता में सूबे का महत्वपूर्ण योगदान है। सूबे का सांसद होने के नाते विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीब तीन साल के कामकाज पर जनता का फैसला माना जायेगा। बहरहाल सपा मुखिया अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके धर्म निरपेक्ष मतों को एकजुट होने का संदेश दिया है। जबकि भाजपा केंद्र सरकार की उपलब्धियों के मुद्दे पर रक्षात्मक है। भाजपा के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने के बजाय सपा-कांग्रेस गठबंधन को निशाना बना रहे हैं। साथ ही उनकी कोशिश है कि हिंदु मतों के धुव्रीकरण और धर्म निरपेक्ष मतों के बिखराव का लाभ उनको मिले। अब तक के चुनाव को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी सांप्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता के बीच सीधी लकीर खिंची नजर आ रही है। धर्म निरपेक्ष मतों का बहुमत मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पक्ष में नजर आ रहा है। वहीं उनका मुकाबला भाजपा से माना जा रहा है।जबकि मायावती की भूमिका को धर्म निरपेक्ष मतों में बिखराव तक सीमित माना जा रहा है।

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