वसंत उत्सव का प्रतीक है। फूल खिलते हैं, पक्षी गीत गाते हैं, सब हरा हो जाता है, सब भरा हो जाता है। जैसे बाहर वसंत है, ऐसे ही भीतर भी वसंत घटता है और जैसे बाहर पतझड़ है, ऐसे ही भीतर भी पतझड़ है। इतना ही फर्क है कि बाहर का पतझड़ और वसंत तो एक नियति के क्रम से चलते हैं। भीतर का पतझड़ और वसंत नियतिबद्ध नहीं हैं। तुम स्वतंत्र हो, चाहे पतझड़ हो जाओ, चाहे वसंत। लेकिन दुर्भाग्य है कि अधिक पतझड़ होना पसंद करते हैं। पतझड़ का कुछ लाभ होगा, जरूर पतझड़ से कुछ मिलता होगा, अन्यथा इतने लोग भूल न करते! पतझड़ का एक लाभ है- बस एक ही लाभ है, शेष सब लाभ उससे ही पैदा होते मालूम होते हैं- पतझड़ है तो अहंकार बच सकता है। दुख में अहंकार बचता है, दुख अहंकार का भोजन है। इसलिए लोग दुखी होना पसंद करते हैं। पतझड़ में अहंकार टिक सकता है। न पत्ते हैं, न फूल हैं, न पक्षी हैं, न गीत हैं, सूखा-साखा वृक्ष खड़ा है, पर टिक सकता है। और वसंत आया नहीं कि गए तुम!
वसंत आता ही तब है, जब तुम चले जाओ। तुम मिटो तो फूल खिलते हैं। और कुछ चढ़ाना नहीं है परमात्मा के चरणों में। हम चढ़ाएंगे भी क्या? और हमारे पास है भी क्या? अपने को ही चढ़ा सकते हैं। इस अहंकार को ही चढ़ा दो। जैसे ही अहंकार जाता है, उसके साथ ही आश्चर्यजनक रूप से सारी चिंताएं, सारी व्यथाएं, सारी विपदाएं, सारे संताप चले जाते हैं। वही ऊर्जा जो संताप बनती थी, वसंत बन जाती है। ऊर्जा तो एक ही है, जो चाहो बना लो। जिसने पतझड़ में जीने का निर्णय लिया है, उसे मैं संसारी कहता हूं और जिसने वसंत में जीने का निर्णय लिया है, उसे मैं संन्यासी कहता हूं। वसंत को ध्यान रखना। परमात्मा के नाम पर भी पतझड़ पकड़े लोग बैठे हैं। परमात्मा के नाम पर भी लोग उदास होकर बैठे हैं, उनके नाम पर बहुत गुरु-गंभीर होकर बैठे हैं। तुम हंसना ही भूल गए हो। तुम नाचना भूल गए हो। तुम न गाते हो, तुम न नाचते हो, न तुम हंसते हो, तुम्हारा वसंत से कैसे संबंध हो! कुछ तो वसंत जैसा होना पड़ेगा, क्योंकि समान से ही समान का संबंध हो सकता है। और यही साधना है कि तुम थोड़े-से वसंत जैसे होने लगो। एक तो नृत्य है, उत्सव है, परमात्मा को पाने के पहले। उससे पात्रता निर्मित होती है। और फिर एक उत्सव है, नृत्य है परमात्मा को पाने के बाद। उससे धन्यवाद प्रकट होता है। अनुग्रह प्रकट होता है। संन्यासी परमात्मा को पाने के पहले नाचता है, कि सिद्ध परमात्मा को पाने के बाद नाचता है। मगर संन्यासी ही सिद्ध हो सकता है, कोई दूसरा नहीं। संकलन: स्वामी चैतन्य कीर्ति