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(आशु सक्सेना): उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी (सपा) के संरक्षक मुलायम सिंह यादव का निधन हो गया है। मुलायम सिंह यादव ने काफी लंबी राजनीतिक पारी खेली है। अपने पूरे राजनीतिक जीवन में उन्होंने अपने धर्म निरपेक्ष राजनीति के उसूलों से कभी समझौता नहीं किया। अपने राजनीतिक कौशल से उन्होंने अयोध्या, काशी और मथुरा वाले उत्तर प्रदेश में 1993 से लेकर 2012 तक कई बार भाजपा को पराजित करने में सफलता हासिल की। हालांकि पिछले कई वर्षों से वे उम्र की वजह से राजनीति में बहुत सक्रिय नहीं थे।

साल 2012 में अपनी सक्रिय राजनीति की आखिरी लड़ाई लड़ते हुए सपा अध्यक्ष के तौर पर मुलायम सिंह ने पार्टी को भारी जीत दिलाई थी और अपने बेटे अखिलेश यादव को सत्ता की कमान सौंपी थी। लेकिन उनके जीवन में एक ऐसा वक्त भी आया जब उन्होंने बेटे अखिलेश यादव और भाई रामगोपाल यादव को सपा से निकालने का एलान कर डाला था। इसके बाद अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह यादव के बीच टकराव का एक पूरा दौर चला, जो आज भी जारी है।

मुलायम सिंह की राजनीति दशक साठ के दौर में परवान चढ़ी थी। 1967 में जब लोहिया के नेतृत्व में 9 राज्यों में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकारें बनी थीं, तब मुलायम संसोपा के टिकट पर यूपी विधानसभा के लिए चुने गए थे। मुलायम सिंह यादव 1989 में पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री बने थे। वह तीन बार मुख्यमंत्री बने, तीसरी बार वो 2003 से 2007 तक इस पद पर बनें रहे।

90 का दशक मुलायम सिंह यादव का सबसे चुनौती भरा दौर था। राम मंदिर से जुड़ी सांप्रदायिक राजनीति की लड़ाई यूपी की ज़मीन पर लड़ी जा रही थी। 1990 में अयोध्या में गुंबदों पर चढ़ रहे कारसेवकों पर चली गोली ने उनके राजनीति सफर पर असर डाला। सीएम मुलायम सिंह ने कहा था कि परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा और वह अपनी बात पर अड़िग रहे। इस गोलीकांड में 6 कार्यसेवक मारे गये थे। उसके बाद भगवा पार्टी ने मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम कहना शुरू किया था, लेकिन मुलायम ने यूपी में सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ अपना संघर्ष जारी रखा।

1991 में वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के पतन के बाद जनतादल विभाजित हो गया और नतीजतन यूपी की मुलायम सिंह सरकार का भी पतन हो गया। 1991 के विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी के बैनरतले बतौर प्रदेश अध्यक्ष चुनाव लड़ा। इस चुनाव में सजपा ने प्रदेश की 35 विधानसभा सीट और पांच लोकसभा सीटों पर जीत का परचम फहराया था। जबकि भाजपा ने पहली बार प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार का गठन किया था।

भाजपा की पहली बहुमत वाली सरकार के कार्यकाल में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई और कल्याण सिंह सरकार बर्ख़ास्त कर दी गई। उत्तर प्रदेश में जब भगवा पार्टी काफी मजबूत नज़र आ रही थी, तब मुलायम सिंह यादव ने 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया और 1993 में कांशीराम की बसपा के साथ मिलकर उन्होंने दलितों और पिछड़ों की जो ऐतिहासिक गोलबंदी की, उसका असर ये हुआ कि यूपी में बाबारी मसजिद विध्वंस के बावजूद भाजपा सत्ता से बेदखल हो गयी। 1993 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा-बसपा की सरकार का गठन हुआ। लेकिन बसपा से उनका गठबंधन ज़्यादा नहीं टिक सका। इस सरकार के दौरान बसपा में सुश्री मायावती का कद बढ़ने लगा था और वह सरकार के कामकाज में कांशीराम से ज्यादा दखल देने लगी थी। मायावती के साथ बढ़ते विवादों के बीच लखनऊ में मायावती के साथ हुए गेस्ट हाउस कांड़ के बाद सपा-बसपा सरकार का पतन हो गया। इसके बाद मायावती ने बीजेपी के समर्थन से पहली बार प्रदेश की बागड़ोर संभाली और पिछले लोकसभा चुनाव को छोड़कर हर बार वह भाजपा से साथ ही हाथ मिलाती और सरकार बनाती नज़र आई।

मायावती की भाजपा समर्पित पहली सरकार ज्यादा दिन तक नहीं टिकी रह सकी। नतीजतन 1996 में लोकसभा चुनावों के साथ सूबे में मध्यावधि विधानसभा चुनाव भी हुए। लेकिन लोकसभा और विधानसभा दोनों जगह किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा ने विधानसभा की 110 और लोकसभा की 17 सीट पर जीत का परचम लहराया। इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने पहली बार मैनपुरी से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। यहां से उन्होंने अपनी राष्ट्रीय पारी की शुरूआत की थी। वह देवगौड़ा सरकार में रक्षा मंत्री रहे।

देश की राजनीति में भाजपा पहली बार 161 लोकसभा सीटें जीत कर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। सबसे बड़ा दल होने के नाते भाजपा से सरकार बनाने का दावा पेश किया और तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी बाजपेयी को सरकार बनाने का न्यौता भी दिया। लेकिन सदन में बहुमत नहीं होने के चलते भाजपा की पहली सरकार का 13 दिन में पतन हो गया। इसके बाद वामपंथी दलों और क्षेत्रीय दलों के गठजोड़ से राष्ट्रीय मोर्चा का गठन हुआ और 190 सांसदों के इस मोर्चे ने कांग्रेस के 140 सांसदों के समर्थन से कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनायी। लेकिन देवगौड़ा सरकार का 11 महीने में पतन हो गया। इसके बाद राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को समर्थन दे रही कांग्रेस ने नेतृत्व परिवर्तन की शर्त रखी। तब रामो में समंवय कायम करने वाले माकपा महासचिव हरकिशन सिंंह सुरजीत ने मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन लालू यादव और शरद यादव के विरोध के चलते यह मुहिम परवान नहीं चढ़ सकी। हांलाकि आईके गुजराल के नेतृत्व में रामो सरकार ने अपना दूसरा कार्यकाल शुरू किया। लेकिन कुछ ही महीने में इस सरकार का भी पतन हो गया।

1998 में लोकसभा मध्यावधि चुनाव में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा ने उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव के मुकाबले तीन सीटों का इजाफा करते हुए 20 सीट पर जीत दर्ज की। वहीं संयुक्त मोर्चे में बिखराव का फायदा भाजपा को मिला। रामो के कई क्षेत्रीय दलों ने 182 सांसदों वाली भाजपा को समर्थन की घोषणा की। अटल बिहारी बाजपेयी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री पद संभाला। लेकिन जयाललिता के नेतृत्व वाले एआईडीएमके के सरकार से नाता तोड़ने के कारण 13 महीने बाद ही इस सरकार का भी पतन हो गया।

1999 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन में एक महत्वपूर्ण परीक्षा थी। अयोध्या, काशी और मथुरा वाले उत्तर प्रदेश में भगवा पार्टी अटल बिहारी बाजपेयी के प्रति सहानुभूति लहर के दम पर चुनाव लड़ रही थी। वहीं मुलायम सिंह यादव सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से बेदखल करने की मुहिम के तहत चुनाव लड़ रहे थे। सपा ने इस चुनाव में अपनी सीटों मेें बढ़ोत्तरी करते हुए जीत का आंकड़ा 26 तक पहुंचाया, तो वहीं भाजपा 58 से 29 सीटों पर सिमट गयी थी। लेकिन लोकसभा में भाजपा का आंकड़ा 182 बरकरार रहने के चलते अटल बिहारी बाजपेयी ने तीसरी बार देश की बागड़ोर संभाली थी।

इसके बाद मुलायम सिंह यादव ने 2002 में चुनाव का सामना किया। जब केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी और उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार विधानसभा चुनाव का सामना कर रही थी। इस चुनाव में मुलायम सिंह के नेतृत्व में सपा ना सिर्फ 143 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी बल्कि भाजपा को उसके गढ़ उत्तर प्रदेश में 88 सीट पर पहुंचाने में भी सफल रही। हालांकि त्रिशंकु विधानसभा के चलते प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया था। लेकिन बाद बसपा में विभाजन के चलते 2003 में मुलायम सिंह यादव ने तीसरी बार प्रदेश की बागड़ोर संभाली थी और विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने तक सत्ता बरकरार रखी थी।

इस दौरान 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने चमत्कार करके दिखाया। उनके नेतृत्व में सपा 36 सीटों पर जीत दर्ज करके लोकसभा में चौंथी सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा हासिल करने में कामयाब रही। उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को समर्थन की घोषणा की, लेकिन कांग्रेस ने सपा को यूपीए सरकार में शामिल नहीं किया। इसके बावजूद सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ संघर्षरत मुलायम सिंह यादव ने यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन जारी रखा।

सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को 2007 के विधानसभा चुनाव में जबरदस्त झटका लगा था। इस चुनाव में बसपा सोशल इंजीनियरिंग करने में सफल रही। संवर्णों की बसपा के साथ गोलबंदी के चलते बसपा 206 सीट जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रही। वहीं सपा पहली बार 100 के आंकड़े से नीचे 97 सीट पर सिमट गयी। संवर्णों की गोलबंदी को असर भाजपा पर भी पड़ा और वह 51 सीट ही जीत सकी। 2009 के लोकसभा चुनाव में भी मुलायम सिंह को झटका लगा और सपा 36 से 23 सीट पर आ गयी। इस दौरान मुलायम सिंह यादव विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे।

यूपी में 2012 के विधानसभा चुनाव को मुलायम सिंह यादव की सक्रिया राजनीति का आखिरी चुनाव कहा जा सकता है। इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा ने 225 सीट जीत कर पूर्ण बहुमत हासिल किया। लेकिन विधायक दल की बैठक में मुख्यमंत्री को लेकर बहस छिड़ गयी। पार्टी महासचिव रामगोपाल यादव का तर्क था कि सत्ता की बागड़ोर पार्टी के युवा नेता अखिलेश यादव को सौंपी जानी चाहिए। जबकि शिवपाल यादव का तर्क था कि फिलहाल मुलायम सिंह को ही चौंथी बार मुख्यमंत्री बनना चाहिए, नेतृत्व परिवर्तन कुछ दिन बाद​ किया जा सकता है। बहरहाल इस मुद्दे पर लंबी बहस के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता की कमान अपने वारिस अखिलेश यादव को सौंप दी। हालांकि उसके बाद वह दो लोकसभा चुनाव लड़े। 2014 में वह आज़मगढ़ और मैनपुरी दोनों संसदीय क्षेत्रों से चुनाव जीते, बाद में उन्होंने मैनपुरी सीट छोड़ दी थी। वहीं 2019 में उन्होंने मैनपुरी सीट से चुनाव जीता था और इस वक्त उसी सीट से संसदीय राजनीति मेंं सक्रिय नज़र आ रहे थे। लेकिन जमीनी राजनीति में वह पहले की तरह सक्रिय नज़र नहीं आए।

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