(मनोहर नायक) वह मेरा संयंत्र यानि मेरा ‘राष्ट्रीय ‘ ह्रदय ठीकठाक काम कर रहा है … स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ पर वह सहज ख़ुश था… पर यह उसके ठीकठाक होने का अधूरा लक्षण ही होता अगर वह स्वतंत्रता के आज के हाल-हवाल पर विषाद से भरा न होता… बल्कि हुआ यूँ कि यह विषाद धीरे- धीरे संयंत्र की अधिकाधिक जगह घेरता गया ।आज सुबह उठते ही याद आया कि आज स्वतंत्रता- दिवस है ,अमृत- वर्ष वाला … सहज ही पिता सहित ज्ञात-अज्ञात सेनानियों के प्रति मन सम्मान और कृतज्ञता से भर आया… उस भारत- माता का प्रेममय स्मरण हुआ जिसका बखान करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि भारत-माता का मतलब है इस देश के नदी, पहाड़, जंगल, खेत- खलिहान, धरती , आकाश, समुद्र और यहाँ रहने वाली जनता … इस अवाम के बिना बाक़ी किसी चीज़ का कोई अर्थ नहीँ।
अंतत: लगने लगा कि एक ख़ास अवसर की ख़ुशी अपनी जगह ठीक है पर आज के दारुण समय में हा-हा-हो-हो जश्न का क्या औचित्य! पिछले कुछ सालों में बना- बनाया और बनता हुआ कैसा बिखेर दिया गया है… सब कुछ विपर्यस्त है… आम जीवन अभावों , शोषण और दुश्चिंताओं से आक्रांत है ,ऐसे में यह उजाड़ पर उत्सव जैसा कुछ लगता रहा।
… गाँधीजी नेहरूजी के साथ झुलसती गर्मी में कार से हरिद्वार गये थे। वहाँ शरणार्थी शिविर में बुरा हाल था। भीषण गंदगी , भारी बदबू , मक्खी-मच्छरों का बोलबाला , शरणार्थी बदहाल… कार से उतरते ही दोनों नेताओं को उन्होंने घेर लिया … तभी स्वागतकर्ता माला लेकर आ गये … गाँधीजी ने उन्हें वह डाँट पिलायी कि वे उसे जीवन भर नहीं भूले होंगे।… इतने दुखों के बाद भी जो कुछ ख़ुशी आज के मुबारक मौक़े ने उपलब्ध की वह इसके प्रपंच और तमाशा बन जाने से मिल कर ध्वस्त हो गयी… प्रदर्शन और पाखंड की इस गली में आकर यह ख़ुशी और भी ख़ाक में मिल गयी । आम जन राष्ट्रीय पर्व सहज प्रेरणा से कमोबेश मनाता ही था , पर इस बार कर्तव्यों से हारी , दिखावे की मारी सरकार ने फिर जनता को अपने छद्म से उकसा दिया… पहले ताली -थाली बजवायी और इस बार तिरंगा लगाने की होड़ में लगा दिया । एक इंटरव्यू में गाँधीजी ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि ,’ मैं लोकतंत्रवादी हूँ। मैं जनता में अपने प्रभाव का कभी ग़लत इस्तेमाल नहीं करता ।’ इन लोगों ने सिर्फ़ झंडा फहरा कर देशभक्त बनने का अचूक नुस्ख़ा दिया … सस्ता, सुंदर और टिकाऊ । त्याग, बलिदान, उत्सर्ग, संघर्ष जैसे वाहियात शब्दों से अजनबी और अपरिचित संघ सेवियों ने इसलिए ही स्वतंत्रता संग्राम से दूर का भी नाता नहीं रखा… सेनानियों के बीच माफ़ीवीर सावरकर की फ़ोटो लगाकर उन्हें सेनानी बनाने का आसान कारगर उपाय है इनके पास … इसी तरह ये सब अपने झंडा- आँदोलन से देशभक्त कहलाना चाहते हैं… इन्हें वे सब याद नहीं आते जिनका नाम रटते ये थकते नहीं; गाँधी, भगतसिंह, सुभाष, पटेल कोई भी … जयप्रकाश भी नहीं , जिन्होंने १९४० में अदालत में जज से कहा था कि मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ … आप जो भी कड़ी से कड़ी सजा देंगे उससे मुझे प्रसन्नता होगी। मैंने आपका काम सरल कर दिया है ।
नेहरू के तो ये शत्रु ही हैं, पर ये नादान इतने हैं कि इन्हें लगता है कि इनके झूठों से , सेनानियों की सूची से नाम और तस्वीर हटा देने से नेहरू मिट जाएँगे … उनको मिटाना असम्भव है क्योंकि वे लोगों के दिलों में हैं ।आज़ादी के संघर्ष के ज़माने से लेकर मृत्यु के क़रीब छह दशक बाद भी संघ और उनकी संतानों को अपने हर धत्कर्म, अपने हर विभाजनकारी और नफ़रती विचार व मंसूबों के विरोध में नेहरू अडिग खड़े मिलते हैं । ये कुछ समझते- मानते नहीं। ये भारत को नहीं जानते- बूझते , कि इस महादेश का अर्थ है, विविधता, एकता और निरंतरता… ‘ सरज़मीने हिंद में अक़्वामे आलम के तमाम / क़ाफ़िले बस्ते गये, हिंदोस्ताँ बनता गया ।…. हिंदुत्व की सतही, उथली , इकहरी और संकीर्ण सोच होने के कारण ये किसी भी , उदात्त , भव्य व समावेशी आँदोलन, विचार और कर्म से जुड़ नहीं पाते, चाहे स्वतंत्र संग्राम हो, प्रजातंत्र हो ,संविधान हो , धर्मनिरपेक्षता हो या समाजवाद । टुकड़े - टुकड़े मानसिकता से ग्रस्त ये नहीं जानते कि देश टुकड़ों में नहीं निरंतरता में चलते हैं … मोदीजी को अपने इस सौभाग्य का भान ही नहीं है कि वे जवाहरलाल नेहरु जैसे महानायक की निरंतरता में प्रधानमंत्री हैं , साथ ही एक महान विरासत की निरंतरता भी नेहरू के कारण उससे जुड़ी हुई है। सवाल पर वही है कि घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या … संघ की सेना घृणा , साम्प्रदायिकता और हर तरह की कट्टरता छोड़ दे तो वह करेगी क्या ? स्वामी विवेकानंद का संघ नाम जपता है पर उनके भारतीय उदारतावाद से उसे कोई मतलब नहीं जिसके वे अग्रदूत माने जाते हैं । उसे धर्म से भी कोई निस्बत नहीं , चाहे यह हिंदू धर्म हो, देशधर्म हो, समाजधर्म हो या राजधर्म हो । यह घर-घर तिरंगा अभियान भी कट्टरता का ही विस्तार है । विभाजन बड़ी त्रासदी थी लेकिन इस बार विशेष रूप से उसका फ़ोकस एकपक्षीय है। भारतीय जनता पार्टी ने विभाजन पर जो वीडियो जारी किया वह ख़ुद उनकी इस साज़िश की पोल खोलता है । विभाजन के असली पैरोकार तो सावरकर और जिन्ना थे… डॉक्टर आम्बेडकर ने कहा भी था कि विभाजन को लेकर इनमें कितनी दोस्ती है।
इनकी हिमाक़त देखिये अपनी करतूतों को छिपाकर विभाजन का सारा दोष नेहरू पर मढ़ रहे हैं और गाँधी को भी बख़्श नहीं रहे हैं … भावनाएँ भड़काने में ये और मुस्लिम लगे थे, वातावरण विषाक्त कर दिया था । यह विडम्बना ही है कि विष का कारोबार करने वालों के हाथों में आज अमृत वर्ष है । अब प्रेम , सौहार्द अमृत नहीं, विष ही अमृत है । गाँधीजी की मृत्यु के बाद राजाजी ने कहा था कि हिन्दू- मुस्लिम एका के लिये काम करके गाँधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है… लेकिन इनके बीच संबंधों की हालत क्या कर दी गयी है यह सबके सामने है। उन्हें हाशिय पर धकेला जा रहा है । १९३९ में ऐबटाबाद में ख़ुदाई ख़िदमतगारों के बीच गाँधीजी ने कहा था कि ‘ अगर आप मेरे दिल को चीरकर देख सकें तो आप पायेंगे कि उसमें सोते जागते चौबीसों घंटे, लगातार हिन्दू- मुस्लिम एकता के लिये प्रार्थना और आध्यात्मिक साधना चलती रहती है ‘। विभाजन के समय की हिंसा से वे उद्विग्न थे। स्वतंत्रता मिलने के सुख का लोप हो चुका था… ‘ आज़ादी तो आ गयी, लेकिन मेरे मन में कोई उत्साह नहीं।मैं पुराना पड़ गया हूँ। मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हमारा मार्ग ऊपर से ही अहिंसक था, हमारे ह्रदय हिंसक थे । … एक दिन प्रार्थना- सभा में वे बोले , मुझे साफ़ दिखाई देता है कि आने वाला १५ अगस्त का दिन ख़ुशी मनाने का दिन नहीं होगा ,क्योंकि उस दिन अल्पसंख्यकों का दिल भारी होगा।वह दिन प्रार्थना और गहरे ह्रदय मंथन का दिन होना चाहिए।बँटवारा हो जाने पर भी एक शर्त पर वह दिन सर्वव्यापी उत्सव का दिन हो सकता है यदि अबसे दोनों सच्चे मित्र बनने का प्रयास करें ।’… पंद्रह अगस्त के दिन वे शांति प्रयासों के लिये कलकत्ता में थ। आशीर्वाद लेने आये पश्चिम बंगाल मंत्रिमंडल के सदस्यों से उन्होंने कहा ,आज से काँटों का ताज पहनिये, नम्र बनिये , अब आपकी पूरी परीक्षा होगी।सत्ता से सावधान रहिये। सत्ता मनुष्य को भ्रष्ट करती है। इसकी तड़क-भड़क और आडम्बर में मत फँसिये । … गाँधीजी के निधन के बाद मार्च ४८ में सेवाग्राम में रचनात्मक कार्यकर्ताओं के बीच नेहरूजी ने कहा , देश के दो टुकड़े तो हो गए, आगे चलकर और भी टुकड़े हो जाने का डर है। हम फुटकर बातों में उलझ जाते हैं, अहम बातें पिछड़ जाती हैं । अब डर है कि देश के टुकड़े -टुकड़े होकर भीतरी ग़ुलामी आ जायेगी। हम देखें कि बुनियादी काम क्या है… बापू की मौत चिल्ला-चिल्ला कर कहती हैं कि वह कौन- सा काम है। साम्प्रदायिकता के ज़हर का मुक़ाबला किये बिना हम अपनी आज़ादी को नहीं बचा सकते ।
ये विकट स्थितियाँ मन मसोसती हैं …। स्वतंत्रता के अमृत- वर्ष की भी ख़ुशी देर तक टिकती नहीं । फिर आज़ादियाँ ख़स्ताहाल हैं ,बंद होता लोकतंत्र है , खुलती जाती जेलें हैं, व्याप्त होता भय है, स्थगित- सी नागरिकता है । नेताजी की फ़ाइलों के हो हल्ले में अमर्त्य सेन ने कहा था कि इन लोगों को फ़ाइलों का चक्कर छोड़ सुभाष बाबू क् प्रजातंत्र, स्वाधीनता और धर्मनिरनपेक्षता के विचारों से सीखना चाहिए…. इसी सिलसिले में उन्होंने कहा था कि धर्मनिरपेक्षता को एक बेहूदा शब्द बना दिया गया है और हम प्रजातंत्र व स्वतंत्रता के भी बेहूदा होने का इंतज़ार कर रहे हैं ।…. लाल क़िले की प्राचीर से गिरती गरिमा के साथ बहुत कुछ बेशक़ीमती गिर रहा है … इंतज़ार जल्दी ख़त्म होता लग रहा है … गहन संकटों से घिरी स्वतंत्रता के कारण आज के दिवस की उजास को स्याही डँसती रही… छह दशकों से अधिक समय से ह्रदय में जो तिरंगा लहर- फहर है वह इन आ चुके और आ रहे ख़तरों से निरपेक्ष नहीं रह सका … दुख, शर्म और शोक में आधा झुका रहा ।