(जलीस अहसन) नरेन्द्र मोदी के चार साल के शासन के दौरान पंजाब को छोड़ कर एक के बाद एक सभी राज्यों में भाजपा के हाथों सत्ता गंवाने वाली कांग्रेस हाल में हुए कर्नाटक को भी लगभग गवां चुकी थी। लेकिन ऐन वक्त पर उसने, कुछ दिन पहले तक भाजपा की बी टीम बताने वाली, जेडीएस को सत्ता की कमान सौंप कर, 2019 के लोकसभा चुनाव की ओर बढ़ते मोदी के रथ के रास्ते में कुछ रोड़ा ज़रूर डाल दिया है। कर्नाटक में संख्या में जेडीएस से दोगुनी होने के बावजूद भाजपा को सरकार बनाने से रोकने के लिए उसने एच डी कुमारस्वामी की अगुवाई में सरकार बनाना मंजूर किया। अगर चुनाव से पहले वह अपने ‘‘बिग ब्रदर‘‘ वाली हैकड़ी छोड़ कर उससे पहले ही समझौता कर लेती तो उसे शायद आज यह दिन नहीं देखना पड़ता।
कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना कर उसने अपनी कमज़ोर हो चुकी स्थिति को जगज़ाहिर कर दिया है। अब 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के खिलाफ हो रही विपक्षी लामबंदी में कांग्रेस का मुख्य भूमिका में बने रहना असंभव हो चुका है। सरकार बनाने में सिर्फ आठ सीट से पीछे रह गई भाजपा की मोदी और अमित शाह की जोड़ी लोकसभा चुनाव से पहले इस दक्षिणी राज्य में जेडीएस-कांग्रेस सरकार को गिराने का हर अवसर तलाशती रहेगी।
इस बात की पूरी संभावना है कि आगामी लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले कर्नाटक सरकार गिर जाए और प्रधानमंत्री कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव कराने की रणनीति बना लें। याद रहे कि मोदी विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव कराने की हिमायत रह रह कर अक्सर करते रहते हैं। ऐसा करके वह एक तीर से दो निशाने साधेगें। एक तो वह लोकसभा के साथ इतने सारे राज्यों के एक साथ चुनाव कराके इस बात की वाह वाही लूटेंगे कि उन्होंने अपने इस सपने को सच कर दिखाया। लेकिन इससे भी ज़्यादा उन्हें बड़ा राजनीतिक लाभ यह मिलेगा कि वह उक्त राज्यों में भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल हो काफी हद तक कम करने में भी कामयाब होंगे। ऐसा होने से कांग्रेस को सबसे बड़ा नुकसान होगा, क्योंकि फिर से राजनीतिक धुरी में अपने को लाने की उसकी आस मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों पर ही टिकी हुई है। ज़ाहिर है, नरेन्द्र मोदी ऐसा होने से रोकने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहेंगे।
इस बीच नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने चार साल के कार्यकाल को पूरा करने के साथ ही 2019 के लोकसभा चुनाव का बिगुल भी फूंक दिया है। आगामी लोकसभा का चुनावी नारा भी उन्होंने उछाल दिया है : ‘‘ देश का बढ़ता जाता विश्वास..... साफ नीयत, सही विकास ‘‘ अपने चार साल की उपलब्धियां बताते हुए मोदी सरकार हालांकि 2014 के चुनाव में किए गए उन नारों के बारे में कुछ कहने से एकदम चुप्पी साध गई जिनका उस ऐतिहासिक जीत में बहुत बड़ा हाथ था। उन नारों में हर साल दो करोड़ नए रोज़गार देने और विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन को वापस लाकर उसमें से हर देशवासी को पंद्रह पंद्रह लाख रूपए देने की बात कही गई थी।
मोदी सरकार ने अपने चार साल की जो उपलब्धताएं गिनाई हैं वे बड़ी अस्पष्ट हैं। जैसे, बदलता जीवन, संवरता कल , विकास की नयी गति नया आयाम, नारी शक्ति देश की तरक्की, युवा उर्जा से बदता देश, पिछड़े वर्गों की अपनी सरकार, दुनिया देख रही है एक न्यू इंडिया वैगरहा वैगरहा....। गंगा मैया को चार साल के भीतर स्वच्छ और निर्मल बनाने के बारे में भी सरकार मौन साधे हुए है। आम जनता, किसानों, मजदूरों, बेरोज़गारों की स्थिति में सुधार कर पाने में नाकाम प्रधानमंत्री जुमला छोड़ते हैं कि पकोड़ा बेचना भी रोजगार हैं। लेकिन इसमें उनकी क्या देन है। जिसको रोज़गार नहीं मिलेगा वह पकोड़े, छोले, चाय बेचने पर मजबूर होता आया है और होता रहेगा। आखिर उसे जिंदा रहना है।
मोदी सरकार के अपने 2014 के वायदों पर खरा नहीं उतर पाने के बावजूद विपक्ष में अभी इतना दम नहीं दिख रहा है कि 2019 के चुनाव में वह मिल कर उनकी अच्छे से घेराबंदी कर पाए। भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार की मुख्य भूमिका होगी। पहले नीतीश, लालू और राहुल ने साथ आकर मोदी लहर में बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को धूल चटा कर विपक्षी एकता की अहमियत जता दी थी। लेकिन नीतीश के पाला पलट लेने से उस विपक्षी एकता की पोल भी खुल चुकी है।
उसी तरह उत्तर प्रदेश में हाल में लोकसभा की दो सीटों पर हुए उप चुनाव में सपा और बसपा ने साथ आकर दिखा दिया है कि भाजपा को किस आसानी से मात दी जा सकती है। लेकिन इसके साथ ही अब हर क्षत्रप नेता में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा बढ़ती जा रही हैं। मजबूरी यह है कि प्रधानमंत्री की सीट केवल एक ही है। बसपा प्रमुख ने साफ कर दिया है वह विपक्षी एकता में तभी शामिल होंगी, जब उन्हें ‘‘सम्मानित सीटें ‘‘ दी जाएं। ज़ाहिर है, सम्मानित सीटों से उनका मतलब यही है कि वे उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने लायक हों। टीडीपी के नेता चंद्र बाबू नायडू ने भी कह दिया है कि उनकी पार्टी के बिना केन्द्र में कोई सरकार नहीं बन पाएगी। तृण मूल कांग्रेस की तुनक मिजाज़ नेता भी ऐसा ही मानती हैं।
दूसरी तरफ कांग्रेस अखिल भारतीय पार्टी का अपना रूतबा खो चुकी है और सोनिया गांधी के अध्यक्ष पद से हटने के बाद नए अध्यक्ष राहुल गांधी को अपने को एक घाघ नेता मनवाने में अभी लंबा सफर तय करना पड़ेगा। अधिकतर क्षेत्रों, खासकर, बेरोज़गार नौजवानों , किसानों और श्रमिकों की भयावह स्थिति को बदलने के अपने वादों को पूरा करने के मामले में यह सरकार लगभग पूरी तरह नाकाम रही है। ऐसे में विपक्ष के नेता अगर अपनी अपनी महत्वकांक्षाओं को फिलहाल एक तरफ रख कर एकजुट हो जाए तो भाजपा सरकार को सत्ता से हटाना कोई मुश्किल काम नहीं होगा। लेकिन जब हर क्षत्रप नेता प्रधानमंत्री बनने के लिए एकजुटता चाहता हो तो यह राह आगे कैसे बढ़ेगी ।