(आशु सक्सेना) कर्नाटक विधानसभा चुनाव नतीजों ने अगले साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की धूंधली तस्वीर को काफी हद तक साफ कर दिया है। चुनाव नतीजों मेंं जहां भाजपा के स्टार प्रचारक पीएम मोदी की लोकप्रियता में जबरदस्त गिरावट झलकी, वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन नही कर सके। दक्षिण के इस सूबे में त्रिकोने संघर्ष में क्षेत्रीय दल ने अहम भूमिका अदा की। पूर्व प्रधानमंत्री एचड़ी देवगोंड़ा की पार्टी ने अपने प्रभाव क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन किया। चुनाव नतीजों में इसका फायदा काफी हद तक भाजपा को मिला है। जबकि इस इलाके में कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव की अपेक्षा नुकसान हुआ है।
इस परिदृश्य से एक बात साफ हो गई कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा अपने बूत पर बहुमत का जादुई आंकड़ा छूने की स्थिति में नही है। वहीं कांग्रेस की मजबूरी है कि वह समान विचारधारा वाले क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी तालमेल करे, ताकि अपने अस्तित्व को बरकरार रखते हुए भाजपा को सत्ता से दूर रखने में अहम भूमिका निभा सके। देश के राजनीतिक परिदृश्य में दो दशक बाद एक बार फिर ऐसी लोकसभा की तस्वीर उभरती नजर आ रही है। जहां भाजपा को सत्ता पर काबिज होने से रोकने के लिए तमाम क्षेत्रीय दल एक छाते के नीचे खड़े हों ओर कांग्रेस इस संघीय मोर्चे को बिना शर्त समर्थन की पेशकश करे।
कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद एकबात साफ है कि सरकार के नेतृत्व के सवाल पर क्षेत्रीय दल कांग्रेस की शर्तों पर आंख मिचकर सहमति व्यक्त नही करेंगे। जहां तक कांग्रेस के इतिहास का सवाल है, तो गांधी-नेहरू परिवार ने अभी तक किसी भी अल्पमत सरकार का नेतृत्व नही किया है। चूंकि कांग्रेस अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के नाम की घोषणा कर चुकी है। राहुल गांधी ने भी कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान के दौरान एक पत्रकार वार्ता में खुद को पीएम उम्मीदवार बताया है।
आपको याद दिला दें कि 1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पहली बार सबसे बड़ा दल बन कर उभरी थी। इस चुनाव में भाजपा ने 543 सदस्यों के लिए हुए चुनाव में 162 सीटों पर कब्जा किया था। जबकि 137 सीट पर कांग्रेस को जीत मिली थी। तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने सबसे बड़ा दल होने के नाते अटल बिहारी वाजपेई को सरकार बनाने का मौका दे दिया। देश के इतिहास में पहली बार भाजपा ने केंद्र की सता पर कब्जा किया था। वाजपेई सरकार ने बहुमत की जुगाड़ के लिए क्षेत्रीय दलों से संपर्क किया, लेकिन इसमें उसको कामयाबी नही मिली। इस दौरान क्षेत्रीय दलों ने 190 सांसदों के समर्थन से राष्ट्रीय मोर्चा का गठन कर लिया और कांंग्रेस पर इस बात के लिए दबाव बनाया कि वह समर्थन की चिठ्ठी राष्ट्रपति को सौंपे।
नतीजतन 13 दिन बाद अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में बनी भाजपा की पहली केंद्र सरकार का पतन हो गया और उस वक्त कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचड़ी देवगौंड़ा के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का गठन हो गया। देश के संसदीय इतिहास में तीसरी बार कांग्रेस ने देश की सत्ता पर काबिज तथाकथित समाजवादियों और वामपंथियों की सरकार को सांप्रदायिक माने जाने वाली भाजपा के साथ खड़े होकर गिरा दिया। हांलाकि इस बार भाजपा का डर देखकर कांग्रेस और राष्ट्रीय मोर्चा के बीच इस बात पर सहमति बनी कि प्रधानमंत्री बदला जाए। नतीजतन एचड़ी देवगौंड़ा को हटाकर इंद्र कुमार गुजराल को पीएम पद की शपथ दिलवा दी गई। मंत्रिमंड़ल में भी एक परिवर्तन के अलावा अन्य सभी को शामिल किया गया था। लेकिन कांग्रेस ने इस सरकार को भी कार्यकाल पूरा नही करने दिया। इस बार भाजपा विरोधी सरकार से समर्थन वापसी का फैसला गांधी-नेहरू परिवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने नही किया था। राजीव गांधी की हत्या के बाद गांधी नेहरू परिवार राजनीति में सक्रिय नही था।
आपको बताते चलें कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा को करीब सात फीसदी मतों का नुकसान हुआ था। भाजपा के स्टार प्रचारक पीएम मोदी की देश में चल रही आंधी के वक्त भाजपा को 43 फीसदी मत मिले थे, वहीं अब विधानसभा चुनाव में वह घटकर 36.2 फीसदी रह गया है। जबकि पीएम मोदी ने चुनाव प्रचार में कोई कमी नही छोड़ी थी। उन्होंने पहले से निर्धारित 15 चुनावी रैलियों की संख्या बढ़ाकर 21 की। कहा जा रहा है कि भाजपा की जीत में पीएम मोदी ने अहम भूमिका निभाई है। लेकिन पार्टी को मिले मतप्रतिशत के लिहाज से साफ है कि पीएम मोदी की लोकप्रियता में काफी गिरावट आयी है। चुनाव नतीजों के बाद पीएम मोदी के सामने दक्षिण में भाजपा के जनाधार वाले इस सूबे में 28 में से 2014 में मिली 17 सीटों को बचाने की चुनौती है।
वहीं सूबे की राजनीति में उभरे नये राजनीतिक समीकरणों ने भाजपा की चिंता और बढ़ा दी है। कांग्रेस को इस चुनाव में करीब दो फीसदी नुकसान के साथ 38 फीसदी मत मिले हैं। जबकि जेडीएस के मतों में 7 फीसदी से ज्यादा हिजाफा हुआ है। जेड़ीएस को 18.2 फीसदी मत मिले है। कांग्रेस और जेड़ीएस के मतों को जोड़ दिया जाए, तो यह आंकड़ा 56 फीसदी से ज्यादा हो जाता है। लोकसभा चुनाव में आमने-सामने के मुकाबले में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस-जेड़ीएस गठबंधन काफी मजबूत नजर आ रहा है। लिहाजा इस राज्य में भी भाजपा को नुकसान की ज्यादा संभावना है।
बहरहाल कर्नाटक चुनाव नतीज़ों ने काफी हद तक साफ कर दिया है कि 2019 में सरकार के गठन में क्षेत्रीय दलों की एक बार फिर अहम भूमिका होने वाली है। अब सवाल यह है कि भाजपा सबसे बड़ा दल होने के बावजूद बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल करने के लिए क्षेत्रीय दलों को पीएम मोदी के नाम पर राजी कर लेंगे? फिलहाल के राजनीति परिदृश्य में पीएम मोदी के नेतृत्व से सत्तारूढ़ एनडीए के घटक दलों की नाराजगी साफ नजर आ रही है। महाराष्ट्र की क्षेत्रीय पार्टी शिवसेना लगातार पीएम मोदी पर हमले कर रही है। वहीं आंध्र प्रदेश की टीडीपी प्रमुख एवं सूबे के सीएम चंद्रबाबू नायडु ने एनडीए से नाता तोड़ लिया है। अन्य घटक दल जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार, लोजपा प्रमुख केंद्रीय मंत्री रामबिलास पासवान पहले से ही मोदी विरोधी रहे हैं। उनके पाला बदलने की पूरी संभावना है। इन हालात में जो तस्वीर उभर रही है। उसमें आरएसएस 2024 संगठन के सौ साल पूरे होने के जश्न को ध्यान में रखते हुए मोदी को चेहरा बदले पर अपनी सहमति दे देगा। गौरतलब है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद भाजपा जहां जीत का श्रेय मोदी को दे रही थी, वहीं पार्टी महासचिव राम माधव ने बयान जारी किया कि कर्नाटक की जीत में आरएसएस ने अहम भूमिका अदा की है।
वहीं, दूसरी और राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल करती नजर आ नही रही है। हां मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल करके देश की राजनीति में अपने अस्तित्व को बचाने की स्थिति में ज़रूर है। साथ गांधी नेहरू परिवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी को कांग्रेस की परंपरा के विपरित गैर कांग्रेसी सरकार के पतन की जिम्मेदारी लेने से बचना होगा। क्योंकि इस बार सत्ता की उम्मीद में भाजपा विरोधी सरकार का पतन कांग्रेस पार्टी के अस्तित्व को खत्म करने करने में अहम भूमिका अदा करेगा। लिहाजा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की जिम्मेदारी होगी कि पार्टी् के अस्तित्व को बचाने के लिए गैर भाजपा सरकार के पतन न होने दें, ताकि आरएसएस यानि भाजपा को सत्ता में वापसी से रोका जा सके। वहीं दूसरी और अगर 1996 की तरह कोई गैर भाजपा सरकार 2019 में अस्तित्व में आयी, तो आरएसएस की कोशिश होगी कि कांग्रेस के समर्थन से अस्तित्व में आई भाजपा विरोधी सरकार का कार्यकाल पूरा ना होने दे। ताकि मध्यावधि चुनाव के बाद केंद्रीय राजनीति से कांग्रेस को एक बार फिर बेदखल करके संगठन के सौ साल पूरे होने से पहले केंद्र की सत्ता पर पुन: काबिज हो सके, ताकि आरएसएस के सौ साल पूरे होने का जश्न धूमधाम से मनाया जा सके।
आपको याद दिला दें कि राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के पतन के बाद हुए मध्यवधि चुनाव मे सत्तारूढ़ मोर्चा 94 लोकसभा सीट पर सिमट गया। जबकि भाजपा अपने सांसदों की संख्या में हिजाफा करने में सफल हुई थी। भाजपा को 182 सीट मिली थी। तब मोर्चा संयोजक और टीडीपी प्रमुख आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु ने राष्ट्रीय मोर्चा से नाता तोड़कर अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त किया था। यहीं से भाजपा ने एनडीए के गठन के साथ गठबंधन राजनीति को नया अंजाम दिया। वहीं पीएम मोदी के नेतृत्व में एनडीए में बिखराव नजर आ रहा है। जिसका खामियाजा भाजपा को 2019 के चुनाव के बाद भुगतना पड़ सकता है।