(जलीस अहसन) हक़ीक़त से आंखे मूंदे, ख़्याली पुलाव बनाने वाली कांग्रेस पार्टी ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मुंह की खाकर ‘कांग्रेस मुक्त भारत‘ केे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के सपने को वास्तविकता की तरफ ले जाने में भारी मदद की है। त्रिशंकू नतीजों को देखते हुए इस बात के पूरे आसार हैं कि राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें। एक बार ऐसा हो जाने पर भाजपा के लिए कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को तोड़ कर बहुमत सिद्ध करना आसान हो जाएगा। देश की राजनीति में यह आम बात है। जिस समय केन्द्र में जिसकी सरकार होती है, उसके लिए ऐसा मैनेज करना बहुत ही आसान बात है। विपक्षी विधायक टूटेंगे, उनकी विधानसभा सदस्यता खारिज होगी और दोबारा चुनाव होने पर वे भाजपा टिकट पर जीत कर वापसी कर लेंगे। भाजपा यह नुस्खा पहले भी अपना चुकी है।
कांग्रेस और जेेडीएस को मिले वोट प्रतिशत को मिला दें तो वह 56 प्रतिशत तक है, जो भाजपा से कहीं ज्यादा है। लेकिन क्योंकि दोनों ने चुनाव बाद गठबंधन किया है, इसलिए राज्यपाल इन दोनों दलोें से पहले, अकेली सबसे बड़ी पार्टी बन के उभरी भाजपा को सरकार बनाने का निमंत्रण दे सकते हैं, जो परंपरा विरूद्ध नहीं है।
कनार्टक हारने के साथ ही अब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव जीतने के कांग्रेस के सपने भी चूर चूर होने की पूरी संभावना है। इस बात के पूरे इमकान हैं कि अब सिर्फ पंजाब और मिज़ोरम तक सिमट कर रह गई कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने के लिए राजनीति के शातिर खिलाड़ी नरेन्द्र मोदी, उक्त तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ ही लोकसभा चुनाव भी करादें। इससे कांग्रेस की इन राज्यों में सत्ता वापसी की उम्मीदें धरी की धरी रह जाएंगी। ऐसा करके एक तीर से दो निशाने सधेंगे। इन तीन राज्यों से अपने को पुनर्जीवित करने की कांग्रेस की उम्मीदें धूल में मिल जाएंगी और मोदी के नेतृत्व में भाजपा लगातार दूसरे लोकसभा चुनाव में विजयी होगी।
कांग्रेस की कर्नाटक में हार ने आगामी लोकसभा चुनाव में देश की इस सबसे पुरानी पार्टी और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी दोनों ने विपक्ष का नेतृत्व करने का अपना नैतिक आधार ही खो दिया है। अगर वह जेडीएस से कुछ झुक कर चुनावी समझौता कर लेती तो उसे शायद आज यह दिन नहीं देखने पड़ते। कर्नाटक नतीजों के बाद कांग्रेस के पास अब ऐसा कोई चेहरा नहीं रह गया है, जिसे चुनाव जिताने वाले नेता के रूप में स्वीकार किया जा सके। अब उसके सामने यही एक रास्ता बचा है कि वह अपने दल के और अन्य दलों के क्षेत्रीय नेताओं को पूरा सम्मान देकर आगे आने दे। वर्ना 2019 में मोदी और शाह की जोड़ी को मात देने का उसका सपना कभी पूरा नहीं हो सकेगा।
इसके विपरीत नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ‘‘ कांग्रेस मुक्त भारत ‘‘ के अपने सपने को साकार करने के एकदम क़रीब पहुंच जाएंगे। कांगे्रस ने एक परिवार को ही पार्टी के नेतृत्व का पर्याय और हक़दार बना कर बहुत बड़ी ग़लती की है। 70 साल तो एक सल्तनत भी नहीं चलती। फिर लोकतंत्र में एक ही परिवार की नेतागिरी कैसे चलेगी, जबकि जिस नेता को आगे बढ़ाया जा रहा है, उसे उसमें कुछ ख़ास मज़ा भी नहीं आता हो। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जनवरी, 2019 तक विधानसभा चुनाव होने हैं और मोदी सरकार का कार्यकाल उसी साल अप्रैल में समाप्त हो रहा है।
अब लगभग यह बात तय है कि मोदी इन तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ ही लोकसभा चुनाव कराने के अवसर को हाथ से गंवाने नहीं देंगे। इससे इन राज्यों में भाजपा के खिलाफ चल रही सत्ता विरोधी लहर को उल्ट कर कांग्रेस को ही धूल चटाने में मदद मिलेगी। अटल बिहार वाजपयी जैसी शख़्सियत के प्रधानमंत्री रहते, ‘‘शाईनिंग इंडिया ‘‘ के माहौल में कांगे्रस नेतृत्व ने 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में अपने दंभ को एक तरफ करते हुए देश की महत्वपूर्ण पार्टियों को एकजुट करके चुनाव लड़ा और हैरतअंगेज़ जीत भी हासिल की। लेकिन, सबको साथ लेकर कर कामयाबी हासिल करने के इस सबक को कांग्रेस आगे नहीं बढ़ा सकी।
कर्नाटक में जेडीएस से मिल कर भाजपा को आसानी से हराया जा सकता था। हां, इसके लिए कांग्रेस को देवेगौड़ा के आगे काफी झुकना होता। राजनीति में आपका सियासी वजूद खत्म करने की रणनीति पर चल रहे मुख्य प्रतिद्वन्द्वी की लगाम पकड़ने के लिए कुछ झुकना कहीं बेहतर होता है। कर्नाटक हार चुके और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान विधानसभा के साथ लोकसभा चुनाव होने की प्रबल संभावनाओं के बीच राहुल गांधी के विपक्ष का नेतृत्व संभालने की सारी संभावनाएं फिलहाल समाप्त हो चुकी हैं। अभी कुछ समय पहले तक लग रहा था कि अगले लोकसभा चुनाव में मोदी की सत्ता वापसी मुश्किल हो सकती है लेकिन पलक झपकते ही वह अब आसान सी लगने लगी है। कांग्रेस के राजनीतिक दंभ और अपरिपक्वता के चलते ऐसा हुआ है। अगर कर्नाटक में उसने लोच दिखाते हुए अन्य दलों से ताल मेल करके चुनाव लड़ा होता तो राजनीतिक हालात अचानक से ऐसे नहीं बदल जाते।
अगले लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चन्द्र बाबू नायडू , के चन्द्रशेखर राव जैसे अपने अपने क्षेत्र के क़द्दावर नेताओं के सामने राहुल गांधी बौने ही नजर आएंगे। सिर्फ पंजाब, मिज़ोरम और केन्द्रीय प्रशासित पडुचेरी तक सीमित रही गई ‘‘ग्रैन्ड कांग्रेस पार्टी ‘‘ के नेता राहुल गांधी की कमान में भला कोई क्यों चुनाव लड़ना चाहेगा। कनार्टक में कांग्रेस की एक गलती से पूरे विपक्ष के एकजुट होने की संभावनएं मुश्किल में पड़ गई हैं। अगर ये सब पार्टियां एकजुट होकर मोदी के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ती भी हैं तो राजनीति के इस शातिर खिलाड़ी को इंदिरा गांधी का वह चुनावी नारा उधार लेने में ज़रा भी ग़ुरेज़ नहीं होगा जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘ वो कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं ग़रीबी हटाओ‘‘।
मोदी और शाह ने ऐसा माहौल बना दिया है कि अब कांग्रेस और उसके नेता राहुल, मुसलमान की बात करने और मस्जिद की ओर देखने से भी डरने लगे हैं । इफ्तार पार्टी देना और टोपी पहनना तो दूर की बात है। गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांगे्रस के युवा नेता मुस्लिम मुहल्लों के कन्नी काटते रहे। वहीं दूसरी तरफ टोपी पहनने से साफ इंकार करने वाले मोदी में इतना आत्म विश्वास आ चुका है कि पिछली बार जापान के प्रधानमंत्री को वह गुजरात की एक प्राचीन मस्जिद घुमाने ले गए और उस मस्जिद के इतिहास और बारीकियों के बारे में उन्हें जानकारियां दी। इसलिए उस दिन से इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी ख़ास राजनीति की वजह से जिन मोदी ने टोपी पहनने से इंकार कर दिया था वह अगले लोकसभा चुनाव के बाद शायद कभी टोपी भी पहन लें और राहुल अपना सिर खुजाते रहें ।
कर्नाटक जीतने के बाद रजनीकांत की मदद से तमिल नाडु जैसे दक्षिण भारत के दूसरे राज्य के द्वारा भी भाजपा के लिए खुल सकते हैं। मोदी और शाह की जोड़ी इस पर गंभीरता से काम कर रही है। दक्षिण भारत के इस महत्वपूर्ण राज्य में विजयी होने के बाद देश की राजनीति के समीकरण में काफी हेरे फेर होगा। अपने अपने राज्यों के छत्रप नेता, राहुल और उनकी पार्टी कांग्रेस से दूरी बनाने की कोशिश करेंगे, क्योंकि उससे उन्हें कोई फायदा होने वाला नहीं है। यही नहीं, मोदी नेतृत्व के इस उछाल को देखते हुए कुछ क्षेत्रीय नेता भी भाजपा के प्रति नरम रूख अपना सकते हैं।