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(आशु सक्सेना) गुजरात विधानसभा चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इत्तफाक से अपना एक चुनावी नारा याद आ ही गया "बहुत हुई मंहगाई की मार, अपकी बार मोदी सरकार"। दरअसल भाजपा के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का एहसास हो गया है कि मंहगाई और रोजगार की बात किये बगैर गुजरात में पार्टी की वापसी असंभव है।

साल के शुरू में हुए उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव नोटबंदी के बाद की उहापोह की स्थिति में शमशान और कब्रिस्तान के चुनावी नारेबाजी से जीता जा सकता था। लेकिन गुजरात चुनाव में अब सिर्फ हिंदु मुसलिम कार्ड नही चलेगा।

सूबे में भाजपा सरकार की वापसी के लिए केंद्र सरकार के कामकाज में पीएम मोदी का खुद को खरा साबित करना बेहद जरूरी है। आपको याद दिलवा दूँ कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने (2002) सूबे में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति हासिल सांप्रदायिक दंगों के बाद उभरे भावनात्मक उन्माद में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव का नेतृत्व किया था। उस चुनाव में मोदी ने अब तक की सबसे कामयाब पारी खेली थी। चुनाव में भाजपा को प्रदेश की 182 सीट वाली विधानसभा में 127 सीट पर कामयाबी मिली। नरेंद्र मोदी ने दूसरी बार सूबे की बागड़ोर संभाली थी।

उसके बाद 2007 का चुनाव मोदी ने विकास माडल के नारे पर लड़ा। सूबे में कमजोर विपक्षी के बावजूद भाजपा को दस सीट का नुकसान हुआ। पिछला चुनाव पीएम मोदी ने देश के भावी प्रधानमंत्री की चर्चा के बीच लड़ा था। इसके बावजूद भाजपा को मात्र 115 सीट मिली थीं। जो कि पिछले चुनाव से दो कम थीं। लिहाजा सूबे का अगला चुनाव पीएम मोदी के कामकाज पर सूबे की जनता का फैसला माना जाएगा।

पिछले साल दिवाली के बाद अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के विवादित फैसला किया था। उस वक्त उत्तर प्रदेश का चुनाव सामने था और सरकार को कुछ ऐसा फैसला लेना था जिससे नज़र आये कि सरकार कालेधन के खिलाफ है और ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई के लिए नोटबंदी की गई है। यूपी का चुनाव जीतने में यह रणनीति कामयाब रही और उसमें शमशान और कब्रिस्तान के छौंक के साथ जातिगत समीकरणों में तालमेल बैठाकर भाजपा ने जीत को आसान बना लिया। लेकिन गुजरात और हिमाचल प्रदेश का चुनाव केंद्र की जनविरोधी छवि के चलते आसानी से नही जीती जा सकती है।

नोटबंदी और फिर जीएसटी के फैसलों के बाद देश की अर्थ व्यवस्था का आम आदमी पर बुरा प्रभाव पड़ा है। मंहगाई ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। लिहाजा पीएाम मोदी ने सबसे पहले आम आदमी को राहत देते हुए पेट्रोल और डीज़ल पर दो रूपये एक्ससाईस डियूटी कम करने की घोषणा के साथ की। साथ ही केंद्र सरकार की तरफ से राज्य सरकार से अनुरोध किया गया कि वह वैट में कटौती करके लोगों को राहत पहुंचाए।

गुजरात चुनाव से पहले यह जरूरी था कि जीएसटी के मुद्दे पर भी व्यापारियों के सामने आ रही समस्याओं का तत्काल निदान किया जाए। सूबे के छोटें व्यापारी जीएसटी से सबसे ज्यादा प्रभावित थे। लिहाजा सरकार ने सालाना टर्न ओवर की सीमा 75 लाख से बढ़ाकर एक करोड़ की है। इसके अलावा आम आदमी को राहत देते हुए 37 आइटम में जीएसटी रेट कम करने का फैसला किया है।

नोटबंदी और जीएसटी के अर्थ व्यवस्था पर विपरित प्रभाव की आशंका शुरू से ही थी। लेकिन अब अचानक अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश को युद्ध स्तर पर अंजाम तक पहुचाया गया।

अपने गृह प्रदेश में विघानसभा चुनाव से ठीक पहले पीएम मोदी का इस बात का एहसास हो गया है कि अगर अर्थ व्यवस्था के स्तर पर लोगों को संतुष्ट नही किया गया, तो गुजरात विधानसभा चुनाव में इस बार पहले से ज्यादा नुकसान हो सकता है। पीएम मोदी ने पार्टी के भीतर से उठे विरोध के बाद आम लोगों को राहत देने की दिशा में काम करना शुरू किया है।

पीएम मोदी यूँ तो पिछले एक साल से गुजरात पर घ्यान केंद्रीत किये हुए हैं। हर माह उनका गुजरात दौरा हो रहा है। हर दौरे के दौरान वह सूबे को कुछ योजनाएं भी दे रहे हैं। इसके बावजूद सूबे के बदले राजनीतिक समीकरणों के मद्देनजर भाजपा को केंद्र की जनविरोधी नीतियों का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

दरअसल पीएम मोदी की चिंता का बड़ा कारण यह है कि सूबे में भाजपा का गढ़ माना जाने वाला सौराष्ट्र क्या इस बार भी पार्टी का साथ देगा। गुजरात का यह वह इलाका है जो आज भी पिछड़ा माना जाता है। इस क्षे़त्र में पाटीदारों का बहुमत बताया जाता है। इसके अलावा आदिवासियों की भी बहुत बड़ी आबादी इस क्षेत्र में रहती है। पिछले दिनों राज्यसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार के हार के बाद सूबे में चुनावी माहौल गरमा गया था।

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के तीन दिवसीय गुजरात प्रवास के बाद भाजपा के रणनीतिकारों की चिंता बढ़ी नज़र आ रही है। राहुल ने सूबे के सौराष्ट्र इलाके में तीन दिन जनसंपर्क अभियान चलाया। उन्होंने मंदिरों में पूजा अर्चना की और मुसलिम समाज के साथ चौपाल में संवाद भी किया। जाहिरनातौर पर राहुल के प्रति लोंगों के आकर्षण ने भाजपा खासकर पीएम मोदी की चिंता बढ़ा दी है।

पीएम मोदी को 15 अक्टूबर को भाजपा की गुजरात गौरव यात्रा के समापन के मौके पर सूबे में एक जनसभा को संबोधित करना है। संभव है कि पीएम मोदी की सूबे में प्रस्तावित अगली जनसभा से पहले सूबे के विधानसभा चुनाव का घोषणा हो जाए। 2012 में गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी ने 26 दिसंबर को मुख्यमंत्री की शपथ ली थी।

अगला चुनाव भाजपा के स्टार प्रचारक पीएम मोदी का सबसे बड़ा इम्तिहान है। मोदी को एहसास है कि सूबे का चुनाव हिंदु मुसलिम से नही जीता जा सकता। लिहाजा उन्होंने पेट्रोल डीज़ल और अब जीएसटी में व्यपारियों और उपभोक्ता को थोड़ी राहत देकर जन विरोध को शांत करने का प्रयास किया है।

गुजरात से 1990 में कांग्रेस की विदाई हुई थी। जनतादल की चिमनभाई पटेल सरकार में भाजपा ने सत्ता सुख भोगना शुरू किया था । जनतादल के सूबे से लुप्त होने के बाद अगला चुनाव भाजपा ने अपने बूते पर लड़ा और प्रदेश में सरकार का गठन किया। तब से अब तक वहां भाजपा सत्ता पर काबिज है। 2002 में प्रदेश में भाजपा की खस्ता हालत के दौरान नरेंद्र मोदी को भाजपा ने संगठन से हटाकर सूबे के नेतृत्व की बागड़ोर सौंपी।

मोदी के सत्ता संभालने के बाद अचानक गोधरा कांड हुआ। उसके बाद के चुनाव में भाजपा ने मजबूती से वापसी की। लेकिन इस बार भावनात्मक मुद्दा भाजपा को जीत नही दिला सकता है।

हालांकि फिलहाल विपक्ष खासकर कांग्रेस जीत की स्थिति में नज़र नही आ रही है। शंकर सिंह बघेला जैसे दिग्गज नेताओं के पार्टी छोड़ने का कांग्रेस को चुनावी नुकसान की ओर ही इशारा करता है। यूँ तो आम आदमी पार्टी समेत कुछ अन्य दल भी किस्मत आजमा रहे है। लेकिन चुनाव में खास मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही माना जा रहा है।

पाटीदारों के युवा नेता हार्दिक पटेल ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के दौरे का स्वागत करके भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। ऐसे में मंहगाई पर काबू पाने की दिशा में कदम उठाना जरूरी था। लिहाजा पीएम मोदी को फिर याद आया कि "बहुत हुई मंहगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार" वाला नारा पार्टी के खिलाफ जा सकता है।

सवाल ये है कि पीएम मोदी के गुजरात चुनाव से ठीक पहले मंहगाई पर काबू पाने की कोशिश क्या गुजरात में भाजपा को सफलता दिला सकेगी, यह तो दिसंबर में चुनाव नतीजों के बाद ही तय होगा। फिलहाल यह कहा जा सकता है कि गुजरात चुनाव से पहले पीएम मोदी को एहसास हो गया हैै कि पिछले तीन साल में आम आदमी की परेशानियां बढ़ी हैं।

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