नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने ‘गतिरोध’ पैदा करने वाले बीसीसीआई को आज बैकफुट पर भेजते हुए कहा कि लोढा समिति की सिफारिशें और शीर्ष अदालत के निर्देशों को लागू करना क्रिकेट बार्ड के संचालन में सरकारी हस्तक्षेप के बराबर है यह बोलने के लिए आईसीसी को कहने के आरोपों पर इसके अध्यक्ष अनुराग ठाकुर और वरिष्ठ अधिकारी रत्नाकर शेट्टी के बीच ‘विरोधाभास’ हैं। प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने कहा, ‘ठाकुर ने स्वीकार किया है कि उन्होंने आईसीसी चेयरमैन (शशांक मनोहर) से पत्र लिखने के लिए कहा जबकि रत्नाकर शेट्टी का हलफनामा कहता है कि ऐसा नहीं कहा गया। पहले दाखिल किए गए शेट्टी के हलफनामे में अनुराग ठाकुर के हलफनामे से विरोधाभास है।’ लोढा समिति की सिफारिशों को लागू करने पर बीसीसीआई को निर्देश देने को लेकर अपना फैसला सुरक्षित रखने वाले उच्चतम न्यायालय ने ठाकुर और शेट्टी के विरोधाभासी रवैये पर कड़ा रवैया अपनाया है। शेट्टी बीसीसीआई के क्रिकेट संचालन महाप्रबंधक हैं और उन्हें सात अक्तूबर को निजी हलफनामा दयर करने को कहा गया था। इन्हें इन आरोपों पर स्पष्टीकरण देने को कहा गया था कि आईसीसी के सीईओ डेव रिचर्डसन से बीसीसीआई ने यह पत्र जारी करने को कहा था कि लोढा समिति के निर्देश सरकारी हस्तक्षेप के समान हैं।
दोनों क्रिकेट प्रशासकों की मुश्किल बढ़ाते हुए पीठ ने हैरानी जताई कि क्या आईसीसी से यह पत्र हासिल करने का प्रयास किया गया जिसमें कहा जाए कि कैग के नामित की शीर्ष परिषद में मौजूदगी बीसीसीआई संचालन में सरकारी हस्तक्षेप के समान होगी। पीठ ने कहा, ‘क्या हम जांच की तह तक जाएं। प्रत्येक चरण में उनका रवैया बाधा पहुंचने वाला प्रतीत होता है।’ इन दोनों क्रिकेट प्रशासकों का बचाव करते हुए सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा, ‘बीसीसीआई को खलनायक की तरह पेश किया जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि जैसे सभी गलत चीजे बीसीसीआई की वजह से हो रही है।’ उन्होंने कहा, ‘न्यायमित्र ने जो उपचार सुझाया है वह तो बीमारी से बदतर होगा।’ शीर्ष अदालत ने कहा कि लोढा सिफारिशों पर बीसीसीआई का पत्र मांगने संबंधी मसले पर आईसीसी सीईओ का साक्षात्कार वेबसाइट पर है। अदालत ने कहा, ‘डेव रिचर्डसन आईसीसी सीईओ एक वरिष्ठ व्यक्ति हैं और आप उन पर झूठा बयान देने का आरोप लगा रहे हैं।’ पीठ ने पाया कि ठाकुर ने अपने हलफनामे में जिक्र किया है कि मनोहर ने अपने विचार व्यक्त किये थे कि शीर्ष परिषद में कैग नामित की नियुक्ति को सरकारी हस्तक्षेप माना जाएगा। शीर्ष अदालत ने 18 जुलाई के फैसले में इसे नामंजूर कर दिया था।