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(आशु सक्सेना): 18 वीं लोकसभा के लिए छठे चरण का मतदान आज संपन्न हो जाएगा। इसके साथ ही लोकसभा की 543 सीटोंं में से 486 सीटों पर मतदान प्रक्रिया संपन्न हो जाएगी। उसके बाद एक जून को सांतवें और अंतिम चरण की 56 सीटों पर मतदान होना शेष रहा जाएगा। अंतिम चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट वाराणसी पर सब की निगाह टिकी होंगी।

पीएम मोदी ने 15 अगस्त 2023 को लाल किले की प्रचीर से यह दावा किया था कि अगले साल 2024 में वहीं यहां तिरंगा फहराने आएंगे। लेकिन 80 लोकसभा सीटों वाले देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में छह दौर की वोटिंग के बाद एक बात साफ उभर कर आयी कि दलित, पिछड़ा और अल्प संख्यकों की गोलबंदी ने पीएम मोदी के दावे पर सवालिया निशान लगा दिया है। अयोध्या, काशी और मथुरा वाले उत्तर प्रदेश में पश्चिम से लेकर पूर्वाचल तक इन वर्गों की गोलबंदी साफ नज़र आयी। जिसका चुनाव नतीजों पर असर पडना तय है। पूर्वाचल का प्रवेश द्वार आजमगढ़ 'इंडिया' गठबंधन के घटक समाजवादी पार्टी (एसपी) का गढ़ माना जाता है। यह लोकसभा सीट 2022 के उपचुनाव में बीजेपी ने सपा से छीन ली थी।

बीजेपी ने अपने वर्तमान सांसद भोजपुरी फिल्मों के स्टार दिनेश कुमार यादव 'निरहुआ' को ही मौका दिया है। वहीं सपा ने उपचुनाव में पराजित होने वाले धर्मेंद्र यादव पर दाव खेला है। इस सीट पर पीएम मोदी ने अपनी पूरी ताकत झौंक दी है। पीएम मोदी की चुनावी रैली के बाद कई दिग्गजों ने यहां चुनाव प्रचार किया। चुनाव प्रचार के अंतिम दिन बीजेपी प्रत्याशी के पक्ष में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव, मुलायम सिंह यादव की दत्तक पुत्र बधु अर्पणा यादव ने रोड़ शो किया। वहीं पार्टी के पूर्व अध्यक्ष एवं केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी अंतिम दिन जन सभा की।

वहीं दूसरी और इंडिया गठबंधन की संयुक्त रैली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ शिरक्त की। इसके अलावा चुनाव प्रचार के एक दिन पहले अखिलेश ने दो विधान सभा क्षेत्रों में जनसभा की और चुनाव प्रचार के अंतिम दिन सपा प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव ने रोड शो किया। धर्मेंद्र यादव के रोड़ शो में लोगों के उत्साह को देखकर साफ झलक रहा था कि जनता अपने ​विजयी प्रत्याशी को शुभकामनाएं दे रही हो।

दरअसल, इस संसदीय क्षेत्र में पिछड़े, दलितों और अल्प संख्यकों की गोलबंदी का खुलासा एक तिपहिया स्कूटर के चालक ने किया। राजनीतिक दलों के रोड़ शो वाले दिन शहर की यातायात व्यवस्था अस्त व्यस्त हो जाती है। ऐसे में स्कूटर चालक ने बीजेपी के रोड़ शो की तरफ जाने से इंकार कर दिया। लेकिन मेरे इस अग्राह पर वह मुझे स्कूटर में बैठाने को राजी हो गया कि जहां तक स्कूटर जाने दिया जाएगा, वहां तक वह मुझे छोड़ दे। स्कूटर चालक से जब मैंने पूछा कि माहौल किसके पक्ष में है, उसने ​तपाक से जबाव दिया कि धर्मेंद्र यादव जीत रहे हैं। जब मैंने उससे इस दावे के समीकरण जानना चाहा, तब उसने कहा कि इस चुनाव में दलित इंडिया गठबंधन के साथ खड़े हैं। स्कूटर चालक का कहना था कि पीएम मोदी के 400 पार के नारे ने दलितों को इंडिया गठबंधन के साथ खड़े होने के लिए मजबूर कर दिया है। उसका कहना था कि पीएम मोदी भले ही संविधान बदलने की बात नहीं कर रहे हैं। लेकिन उनके चार पांच लोग यह दावा कर चुके हैं कि 400 पार के बाद संविधान बदला जाएगा। भीम राव अंबेडकर के संविधान को बदला जाना दलित बर्दाश्त नहीं कर सकते। जब अंत में मैंने उससे उसकी जात जानना चाहा, तब उसने कहा कि मैं बीजेपी प्रत्याशी का नाम राशि दिनेश कुमार हूॅं और दलित वर्ग का हूॅं।

दरअसल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 26 लोकसभा सीटों को "जाट-लैंड" माना जाता है। सहारनपुर से आगरा तक की इन सीटों में दलितों का काफी प्रभाव माना जाता है। दलित खासकर जाटव बाहुल्य आगरा लोकसभा सीट पर मतदान के दौरान जाटवों का सपा प्रत्याशी के पक्ष में गोलबंदी देखकर यह एहसास तो हो गया था कि मुकाबला कांटे का है। केंद्रीय मंत्री और बीजेपी प्रत्याशी एसपी सिंह बघेल अपने संसदीय क्षेत्र में काफी लोकप्रिय माने जाते हैं। लिहाजा उनकी जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी। लेकिन दलितों का बीएसपी से मोहभंग होना और इस वर्ग का इंडिया गठबंधन के साथ आने से मुकाबला कड़ा हो गया है। वहीं चुनाव से पहले किसान नेता चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न से नवाजे जाने का फायदा बीजेपी मिलता नज़र नहीं आ रहा है। जाटों में पीएम मोदी के खिलाफ खासी नाराज़गी देखने को मिली। आरएलडी के जयंत चौधरी को साथ जोड़ने से चुनावी फायदा पीएम मोदी को मिलता नज़र नहीं आ रहा है। पश्चिम में खासकर बुलंदशहर में ब्राह्मणोंं में भी पीएम मोदी के प्रति नाराज़गी देखने को मिली। पश्चिम की जिन सीटों पर कांग्रेस मुकाबले में है, वहां ब्राह्मणोंं ने खुलकर कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया है। जिसका खमियाजा बीजेपी को भुगतना पड़ सकता है।

उत्तर प्रदेश में चौथे चरण का मतदान सपा के प्रभाव वाले क्षेत्र मेंं था। पिछड़ा, दलित और अल्प संख्यकों की गोलबंदी से का फायदा इंडिया गठबंधन को मिलना तय है। पांचवें चरण में प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सबसे कम मतदान हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की संसदीय सीट से पार्टी के पूर्व अध्यक्ष, प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह चुनाव मैदान में है। लखनऊ में मतदान के दिन मतदान केंद्रों का जायजा लेने के बाद एक बात साफ नज़र आ रही थी कि परिवर्तन की चाहा रखने वाले लोगों में मतदान केंद्र तक पहुंचने की काफी उत्सुकता थी।  इस सीट पर सबसे कम मतदान दर्ज किया गया। यानि वह लोग घर बैठ गये, जिनका पीएम मोदी से मोह भंग हो चुका है। बदले जातिगत समीकरणोंं ने राजनाथ सिंह के लिए मुकाबला कड़ा कर दिया है।

दरअसल, उत्तर प्रदेश में 2024 के आम चुनाव में पिछड़ा, दलित और अल्प संख्यक (पीडीए) की एकजुटता का जो नज़रा देखने को मिल रहा है। इसकी नींव समाजवादी पार्टी (सपा) के संस्थापक संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने 1991 में रखी थी। मुलायम सिंह ने 1991 का यह मध्यावधि चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी (एसजेपी) के प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से लड़ा था। मुलायम सिंह के नेतृत्व में हुए चुनाव में एसजेपी ने लोकसभा और विधानसभा दोनों जगह उपस्थिति दर्ज की थी। 1991 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख कांशीराम को अपने प्रभाव वाली इटावा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का न्यौता दिया। मुलायम सिंह यादव के न्यौते पर कांशीराम ने इटावा से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। इटावा से निर्वाचित कांशीराम पहली बार संसद पहुंचे थे।

उसके बाद 1992 में मुलायम सिंह यादव ने एसजेपी से नाता तोड़ लिया और समाजवादी पार्टी का गठन किया। बाबरी विध्यंस के बाद 1993 में विधानसभा चुनाव के दौरान मुलायम सिंह यादव की कांशीराम के साथ दोस्ती परवान चढ़ी और दोनों ने पहली बार सपा-बसपा गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा और बीजेपी को सत्ता पर काबिज होने से रोक दिया। इस चुनाव में बीजेपी ने 177 सीट जीती थीं। इतनी ही सीट सपा-बसपा गठबंधन ने भी जीती थीं। जनतादल अध्यक्ष एवं पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपने 30 विधायकों का सपा-बसपा सरकार को समर्थन की चिठ्ठी राज्यपाल को भेज दी। जद के अलावा वामपंथी दलों ने भी सपा-बसपा के समर्थन का एलान किया था। मुलायम सिंह यादव ने दूसरी बार प्रदेश की बागड़ोर संभाली थी। लेकिन बसपा में मायावती का प्रभाव बढ़ने के चलते 1995 मेंं सपा-बसपा सरकार का पतन हो गया और मायावती ने बीजेपी के साथ सत्तासुख भोगना शुरू कर दिया। जो छह-छह महीने सत्ता पर काबिज रहने का समझौता तोड़ने तक मायावती के साथ बरकरार रहा।  

मुलायम सिंह ने जब कांशीराम को इटावा से लोकसभा चुनाव लड़ने का न्यौता दिया था। इस न्यौते के बारे में मुलायम सिंह से पूछे जानने पर उन्होंने मुझसे कहा था कि भाई साहब मूवमेंट के लोग है। मुलायम सिंंह यादव कांशी राम को भाई साहब कहकर संबोधित किया करते ​थे। मुलायम सिंह ने सपा-बसपा गठबंधन को लोहिया जी इच्छा पूरा होना बताया था। उन्होंने कहा था कि लोहिया जी का कहना था कि पिछड़ों और दलितों की एकजुटता ही वंचितों को उनका अधिकार दिला सकती हैं। इत्तेफाक से मुलायम सिंह यादव ने अपने जीवन का अंतिम लोकसभा चुनाव सपा-बसपा गठबंधन के तहत लड़ा। गठबंधन की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने मुलायम सिंह यादव के समर्थन में मैनपुरी में रैली को संबोधित किया और सपा के साथ बेहतर रिश्तों की बात कहीं। लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद मायावती ने पाला बदला और सपा से नाता तोड़ते हुए, विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा कर दी। इस पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कभी आक्रामक रूख अख्तियार नहीं किया। इस मुद्दे को वह यह कह कर टाल देते थे कि नाता तोड़ने का कारण आप ही बुआ से पूछें, हमने तो अपने वादे को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बसपा शून्य से दस सीट तक पहुंची, गठबंधन का असर तो हुआ, लेकिन अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिल सकी। जिसकी हम समीक्षा कर रहे हैं, लेकिन गठबंधन ने प्रदेश में भाजपा की दस सीट कम की हैं।

लेकिन अब 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा का सूरज एक बार फिर अस्त होता नज़र आ रहा है। इस चुनाव में इंडिया गठबंधन यानि कांग्रेस और सपा गठबंधन के पक्ष में पिछड़ा, दलित और अल्प संख्यक (पीडीए) मतदाता एकजुट होकर खड़ा नज़र आ रहा है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव अपने पीडीए की जीत नारे को सार्थक करते नज़र आ रहे हैं। इस बार उनकी सफलता किस आंकड़े तक पहुंचती है, यह तो 4 जून को मतगणना के बाद ही सामने आएगा। लेकिन फिलहाल माहौल को देखकर यह टिप्पणी की जा सकती है कि अगर अखिलेश यादव इस नारे पर पार्टी का विस्तार करने में सफल रहे, तो 2027 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की विदाई तय है।

अंतिम चरण में पीएम मोदी तीसरी बार वाराणसी से किस्मत आजमा रहे हैं। चुनाव प्रचार के दौरान मां गंगा को लेकर पीएम मोदी काफी भावुक दिखे। पीएम मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र की महिलाओं को एक इ​वेंट दे दिया है। पीएम मोदी ने महिला सम्मेलन में सुझाव दिया कि 20-25 महिलाओं के  20-25 समूह "थाली और ढौल" बजाते हुए मतदान केंद्र तक जाएं, ताकि मतदान के प्रतिशत को बढ़ाया जा सके। उत्तर प्रदेश देश की राजनीति में हमेशा अहम भूमिका अदा करता हैं। पीएम मोदी समेत अधिकांश प्रधानमंत्री इसी प्रदेश ने दिये है। इस प्रदेश ने जिसको समर्थन दिया, उसने केंद्र में सरकार का गठन किया है। लेकिन एक मौका ऐसा भी आया, जब इस सूबे ने प्रधानमंत्री को हराया था। पीएम मोदी के खिलाफ लोगों की नाराज़गी को देखकर 1977 जैसी स्थिति उत्पन्न होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

पिछड़ा और दलित, पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ लामबंद

उत्तर प्रदेश के युवाओं में रोज़गार को लेकर खासी नाराज़गी है। पेपर लीक होने की घटनाओं ने बेरोजगार युवाओं की नाराजगी को चरम पर पहुंचा दिया है। इसके अलावा केंद्र सरकार की अग्निवीर योजना ने युवाओं को पीएम मोदी के खिलाफ लामबंद होने को मजबूर किया है। महिलाओं में रोजगार और मंहगाई सबसे बड़ा मुद्दा है। इन तमाम मुद्दों पर विपक्ष यानि इंडिया गठबंधन के नेता राहुल गांधी और अखिलेश यादव सिलसिलेवार अपनी बात रखते हैं। साथ ही इन समस्याओं के समाधान का आश्वासन भी देते हैं। वहीं दूसरी ओर पीएम मोदी समेत भाजपा के तमाम बड़े नेता 'पीएम मोदी की गारंटी' के नारे और हिंदू मुसलिम की राजनीति तक सीमित है।

उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र से पूर्वांचल तक 'पीएम मोदी की गारंटी' के विरोध में पिछड़ा, दलित और अल्प संख्यक लामबंद नज़र आया। इन वर्गों को बेरोजगारी, मंहगाई और अन्य जनसमस्याओं से ज्यादा संविधान मेंं बदलाव के प्रचार के प्रति ज्यादा सजग पाया। सूबे का दलित मतदाता मोदी के 400 पार के नारे के खिलाफ इंडिया गठबंधन के पक्ष में लामबंद हुआ है।

दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव यानि 2019 में सपा-बसपा गठबंधन के चलते बसपा पुर्नजीवित हो गयी थी। बसपा शून्य से लोकसभा में दस सीट वाली पार्टी बन गयी थी। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने अपना जनाधार पूरी तरह खो दिया है। उसका कौर वोटर जाटव मतदाता इस चुनाव में उससे पूरी तरह किनारा कर चुका है। सूबे की राजनीति में करीब तीन दशक बाद दलित मतदाता एक बार फिर कांग्रेस के साथ गोलबंद नज़र आया है। बदली हुई राजनीति का दिलचस्प पहलू यह है कि आश्चर्य जनक तरीके से इस बार संभवत: पहली बार पिछड़ा और दलित एक साथ पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ लामबंद हुआ है। इसका चुनाव परिणाम पर कितना असर हुआ है, यह चार जून को चुनाव नतीज़ों के बाद तय हो सकेगा।

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