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मुंबई: शिवसेना ने केंद्र पर निशाना साधते हुए कहा है कि उसने ‘‘नोटबंदी का चाबुक’’ चलाकर कर्ज में दबे किसानों को गहरी निराशा में धकेला और उनके खेतों को बर्बाद हो जाने दिया। एक ऐसे समय में जब उद्योग जगत और सेवा क्षेत्र को विकास के लिए एक के बाद एक प्रोत्साहन मिल रहे हैं। ऐसे में कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार की बेपरवाही पर शिवसेना ने अपने मुखपत्र ‘सामना’ में सवाल उठाया। शिवसेना ने कहा, ‘‘कई साल बाद, पिछले साल का मानसून किसानों के लिए उम्मीदें लेकर आया था और भारी फसल उत्पादन हुआ था। लेकिन नोटबंदी के चाबुक ने उन्हें अपनी फसलों को मिट्टी के मोल बेचने पर विवश कर दिया। उन्हें अपना लगाया धन भी नहीं मिल पाया और नतीजा यह हुआ कि कर्ज में दबे किसान भारी घाटे में डूब गए।’’ शिवसेना ने कहा कि सरकार कृषि क्षेत्र के विकास के वादे के साथ सत्ता में आई थी लेकिन आज वह इस क्षेत्र को कर लगा देने के नाम पर डराती रहती है। संपादकीय में कहा गया, ‘पंचायत से लेकर नगर निगमों तक के चुनाव जीत लेना आसान है। यदि आपके पास पैसा है तो आप चांद पर हो रहा चुनाव भी जीत सकते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि जनता आपकी नौकर है। किसानों की भावनाओं को समझने के लिए जरूरी है कि यह समझ लिया जाए कि वे महज वोटबैंक नहीं हैं।

सामना में लिखा है "हम यह जानना चाहते हैं कि जब भाजपा चुनाव में ‘‘सैंकड़ों करोड़’’ रूपए खर्च सकती है तो फिर वह कर्ज माफी में हिचकिचा क्यों रही है? शिवसेना ने कहा, ‘‘यदि मुख्यमंत्री कहते हैं कि वह केवल असली किसान नेताओं से ही बात करेंगे तो सरकार की ओर से असली किसानों को ही असल किसान नेताओं से बातचीत करनी चाहिए। लेकिन क्या आपकी सरकार में एक भी असली किसान है?’ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सोमवार को कहा था कि सरकार सिर्फ विरोध प्रदर्शन कर रहे, किसानों से ही बात करेगी, अन्य से नहीं। सरकार उन लोगों के साथ बात नहीं करेगी, जो किसानों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। शिवसेना ने कहा कि जो लोग हड़ताल के दौरान खेती की उपज को बर्बाद किए जाने पर सवाल उठा रहे हैं, उन्हें यह जवाब भी देना चाहिए कि जब किसान हड़ताल नहीं कर रहे थे, तब क्या कोई बर्बादी नहीं हो रही थी? शिवसेना ने सवाल उठाया, ‘‘कच्चे तेल की कीमतें अपने निचले स्तर पर आ गईं लेकिन क्या महंगाई कम हुई? पिछले साल अच्छे मानसून के चलते भारी पैदावार हुई लेकिन क्या सब्जियों की कीमतें कम हुईं? तीन साल बीत गए लेकिन क्या ‘अच्छे दिनों’ के वादे पूरे किए गए?’

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