(आशु सक्सेना) 16 वीं लोकसभा का आखिरी बजट में मोदी सरकार ने एक बार फिर पहली बार मतदान करने वाले युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश की है। लोक लुभावन बजट में समाज के लगभग सभी वर्गों को खुश करने के लिए सरकारी खजाने से मामूली आर्थिक मदद देकर नये मतदाताओं को बार फिर ख्याब दिखाए गये हैं। सरकार सबका साथ सबका विकास नारे को बुलंद करके अपनी उपलब्धियों का बखान कर रही है। भाजपा के स्टर प्रचारक पीएम मोदी ने 17 वीं लोकसभा के लिए चुनावी बिगुल फूंक दिया है। 2019 में मोदी की निगाह दक्षिण के राज्यों के अलावा बंगाल पर खासतौर से टिकी हुई हैं। वहीं विपक्ष की कोशिश है कि अधिकांश राज्यों में भाजपा विरोधी वोट के बिखराव को कम किया जाए।
पीएम मोदी की लोकप्रियता में आई गिरावट के मद्देनजर भाजपा का बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल करने की कोई संभावना नहीं है। वहीं राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस बहुमत हासिल करेगी। इसकी संभावना न के बराबर ही है। हां क्षेत्रिय दलों के संभावित संघीय मोर्चे की सरकार बनने की सबसे ज्यादा उम्मीद की जा सकती है।
अच्छे दिन के इंतजार में 2014 में मोदी को पहली वोट करने वाले कितने फीसदी युवा मोदी से छिटके होगें और कितने नये वोटर पीएम मोदी के साथ आएंगे। यह तो चुनाव नतीजों के बाद ही तय होगा। फिलहाल एक बार फिर त्रिशंकु लोकसभा संभावना प्रवल हो गई है। मोदी का आखिरी चुनावी बजट एक दिन अखबारों की हैड लाइन बन सकते हैं। यह मतों में तब्दील होगे। ऐसी कोई संभावना फिलहाल नजर नही आ रही है।
चुनावी सर्वे भी त्रिशंकु लोकसभा की तस्वीर पेश कर रहे हैं। ऐसे में अगला पीएम कौन होगा यह अभी कहना उचिैत नही होगा। लेकिन एक बात साफ नज़र आ रही है कि भाजपा के स्टार प्रचार इस बार बहुमत का जादुई आंकड़ा छूएंगे, इसकी संभावना फिलहाल नज़र नही आ रही है। पिछले चुनाव में टू जी को भ्रष्टाचार का चुनावी मुद्दा बनाने वाले मोदी आज राफेल रक्षा सौदे में विवादों के घेरे में हैं। सीबीआई बनाम सीबीआई के विवाद ने पीएम मोदी की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। 60 बनाम 60 महिने का वादा करके आये मोदी के पास 57 महिने के बाद रिर्पोट कार्ड पेश करने पर निराशा ही हाथ लगेगी।
बहुत हुई मंहगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार का नारा देकर सत्ता में आये मोदी मंहगाई को काबू करने में पूरी तरह विफल रहे। मोदी के कार्यकाल में आजादी के सत्तर साल में पहली बार चने की दाल ने 200 रूपये किलो तक मंहगी हुई। 2014 में 25 से 35 रूपये प्रति किलो बिकने वाली चने की दाल आज 70 और 75 रूपये किलो पर आकर रूकी है।
रोजगार का वादा तरह पूरी तरह फ्लॉप रहा हैं। सरकार के पांचवीं साल में रोजगार के आंकड़े 45 साल के निम्न स्तर पर बताये जाते है। यह मोदी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल बनाने में अहम मुद्दा है। पीएम मोदी टैक्स में मामूली छूट देकर वोट खरीदना चाहा रहे हैं। साथ ही मोदी राम मंदिर मुद्दे और ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का ज़िक्र करके सांप्रदायिक ध्रुव्रीकरण की कोशिश कर रहे हैं। इसके बावजूद इस बात की संभावना कतई नज़र नही आ रही कि मोदी बहुमत का जादुई आंकड़ा छू सकेंगे।
आपको याद दिला दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी को देश के अगले प्रधानमंत्री का प्रवल घोषित किया गया। मोदी ने 2012 में गुजरात विधानसभा चुनाव देश के भावी प्रधानमंत्री के नारे पर लड़ा। मोदी तीसरी बार भाजपा को बहुमत दिलाने में सफल रहे। लेकिन वह पिछले चुनाव के आंकड़े को इस बार भी नही छू सके। मोदी को दो सीट के नुकसान के साथ 115 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
2013 में भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में गुजरात के सीएम मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारी पर अधिकृत रूप से मोहर लगी। इस बैठक में मोदी ने अपने संबोधन में खुद को पिछड़ों का प्रतिनिधि बताया। उत्तर भारत में चुनाव प्रचार के दौरान खुद को नीच जाति का प्रतिनिधि बताया। निसंदेह 2014 के आम चुनाव से पहले भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की जनसभाओं में अपार जनसमूह नजर आ रहा था। चुनावी सभाओं में मोदी अच्छे दिन आने वाले हैं के नारे के साथ सीएजी की रिर्पोट का हवाला देकर टूजी मामले को उठाते हुए यूपीए 2 सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कठघरे मे खड़ा करते थे। साथ ही पाकिस्तान का ज़िक्र करते हुए चुनाव को सांप्रदायिक रंग देते हुए एक सिर के बदले दस सिर लाने का जोशिला भाषण देते थे। तब जनसमूह मोदी मोदी के नारे लगाकर उनका उत्सहवर्धन करता था।
भाजपा के स्टार प्रचारक मोदी ने अन्ना हजारे के लोकपाल के मुद्दे पर दिल्ली के रामलीला मैदान में आंदोलन के दौरान भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल को अपने समर्थन में एकजुट करने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की थी। युवाओं के सबसे भरोदेमंद नेता बन के उभरे थे मोदी। चुनाव नतीजों ने राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया था। भाजपा ने 283 सीट जीत कर देश के संसदीय इतिहास में पहली बार किसी गैर कांग्रेस पार्टी को यह गौरव हासिल किया था। भाजपा की इस उपलब्धी के नायक नरेंद्र मोदी ने 26 मई 2014 को राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में आयोजित भव्य समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ ली।
भाजपा ने बहुमत का आंकड़ा पाते ही अपने घटक दलों के साथ रिश्ते बिगाड़ने शुरु कर दिये। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव आते ही अपने सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना से दूरी बना ली। दोनों दलों ने एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। भाजपा के स्टार प्रचारक पीएम मोदी अपनी चुनावी सभाओं में अपने सहयोगी दल को निशाना बनाते थे। शिवसेना को मोदी ने हफ्ता बसूल पार्टी करार देते हुए मतदाताओं से सबक सिखाने की अपील की। सूबे में भाजपा सबसे बड़े दल के रुप में उभरी। लेकिन बहुमत से काफी पीछे रह गई। विधानसभा के पहली बैठक में शिवसेना सदन में प्रमुख विपक्ष की भूमिका में थी। उस वक्त भाजपा नीत देवेंद्र फडनवीस सरकार को शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी राकांपा ने विश्वास मत की साबित करने में सहयोग देकर राजनीतिक संकट को टाल दिया था। उसके बाद बेहद नाटकीय ढ़ंग से दोनों दल सत्ता में भागीदारी के फार्मुले पर सहमति देकर खट्टे मिठ्ठे रिश्तों के साथ केंद्र और प्रदेश की सत्ता में भागीदार हैं।
शिवसेना पीएम मोदी की कार्यशैली की प्रबल आलोचक है। नोटबंदी, जीएसटी और अब राफेल घोटाले में शिवसेना की राय भाजपा से भिन्न है। राफेल मुद्दे पर शिवसेना जेपीसी के पक्ष में हैं। वहीं नोटबंदी और जीएसटी को भी वह आम आदमी के खिलाफ किया गया फैसला मानती है। लोकसभा चुनाव शिवसेना ने अपने बूते पर लड़ने की घोषणा कर दी है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 26 और शिवसेना ने 22 सीट पर चुनाव लड़ा था। भाजपा ने 23 और शिवसेना ने 18 सीट जीतीं थी। 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हिस्सेदारी को लेकर अभी दोनों के बीच तनाव बना हुआ है। इस बार शिवसेना लेनदेन को लेकर सतर्क है। वह चुनाव से पहले इस बात पर सहमति चाहती है कि मुख्यमंत्री का पद उसको मिलना चाहिए। जबकि लोकसभा चुनाव बराबर सीट बांटकर लड़ा जाए। बिहार की तरह इस प्रदेश में भी भाजपा अपनी जीती हुई सीट घटक दल को देने के लिए मजबूर होगी। वहीं सूबे में सत्तारूढ़ गठबंधन को चुनौती देने के लिए कांग्रेस राकांपा गठबंधन तय हो चुका है।
देश के राजनीतिक परिदृश्य में फिलहाल पीएम मोदी अपने बूते पर बहुमत का आंकड़ा छूते नजर नही आ रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा विरोधी रूझान साफ नजर आया। पीएम मोदी को अपने गृह प्रदेश में जीत के लिए डेरा डालना पड़ा। इसके बावजूद पीएम मोदी पार्टी को सौ का आंकड़ा हासिल नही करवा पाये। उस वक्त उस शर्मनाक जीत को भक्तों ने जो जीता वह सिंकंदर वाले जुमले से रफा दफा किया।
दक्षिण में कर्नाटक अकेला ऐसा राज्य है, जहां भाजपा का खासा जनाधार है। इस प्रदेश में पार्टी सत्तारूढ़ रह चुकी है। पिछली साल हुए विधानसभा चुनाव में तिकोने मुकाबले में भी भाजपा बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल नही कर सकी। सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते राज्यपाल ने पहले भाजपा की सरकार को शपथ दिलवाई। लेकिन सदन में बहुमत साबित नही कर सकी। सूबे में तीसरे नंबर की पार्टी जेडीएस को सीएम की कुर्सी देकर कांग्रेस ने सुझबुझ की राजनीति का परिचय दिया है। सत्तारूढ़ गठबंधन के बीच लोकसभा चुनाव में सीट बंटवारे को लेकर खिंचतान मची हुई है। संभावना है कि सूबे की 28 सीट में कांग्रेस 16 और जेड़ीएस 12 सीट पर चुनाव लड़ सकते हैं। प्रदेश से भाजपा के 18 सांसद हैं। इस प्रदेश में भी फिलहाल भाजपा कमजोर नज़र आ रही है। यहां भी भाजपा को नुकसान की संभावना ही ज्यादा है।
पिछले दिनों हुए पांच सूबों के चुनाव नतीजों के बाद यह साफ हो गया कि भाजपा विरोधी वोट गोलबंद हो गया है। हिंदी भाषी प्रदेश छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीन सरकारों से भाजपा को हाथ धोना पड़ा है। वहीं दक्षिण के राज्य तेलंगाना और पूर्वोत्तर के राज्य सिक्किम में भी भाजपा कुछ खास प्रदर्शन नही कर सकी। जबकि पार्टी के स्टार प्रचारक पीएम मोदी समेत योगी जैसे फायर ब्रांड पार्टी के तमाम नेताओं ने एडी से चोटी तक का जोर लगाया। लेकिन पार्टी को सफलता नही मिली।
उत्तर प्रदेश और बिहार में विपक्ष ने भाजपा को घेरना शुरु कर दिया है। उत्तर प्रदेश में चुनाव की तस्वीर पूरी तरह साफ हो चुकी है। इस सूबे में मोटे तौर पर तिकोना मुकाबला होगा। फिलहाल इस मुकाबले में सपा, बसपा और रालोद गठबंधन सबसे मजबूत नजर आ रहा है। कांग्रेस ने जहां सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान किया है। वहीं सत्तारूढ़ भाजपा इस सूबे में भी सहयोगी दलों के दबाव को झेल रही है। अपना दल जहां चार सीट मांग रहा है। वहीं योगी सरकार में केबिनेट मंत्री ओम प्रकाश राजभर की पार्टी अपना हिस्सा मांग रही है। राजभर ने 24 फरवरी तक की समयसीमा तय कर दी है। इस तारीख तक मांगे नही मानी गई तो वह प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी विधानसभा चुनाव के वक्त भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें एनडीए में शामिल किया था। भाजपा ने बहुमत के बावजूद अपने घटक दलों को सत्ता में हिंस्सेदारी दी है। 2014 में भाजपा ने यूपी की 80 में से 71 सीट जीतीं थी। जबकि उसके घटक अपना दल ने दो सीट पर चुनाव लड़ा और दोनों जीतीं। यूपी में भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।
बिहार में विधानसभा चुनाव में भाजपा के स्टार प्रचारक पीएम मोदी का जादू नही चला था। एनडीए को चुनाव में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था। महागठबंधन का पहला प्रयोग बिहार मेंं सफल हुआ था। राजद, जदयू और कांग्रेस के महागठबंधन ने एनडीए करारी शिकस्त दी। राजद ने दूसरे नंबर की पार्टी जदयू के नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। राजद अध्यक्षा लालू यादव ने अपने बेटे तेजस्वी यादव को उप मुख्यमंत्री का दर्जा दिलवाया। लेकिन जल्द ही महागठबंधन बिखर गया। जदयू अध्यक्ष एवं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अचानक पद से इस्तीफा दे दिया और अगले दिन भाजपा के समर्थन से पुन: मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। लोकसभा चुनाव के लिए एनडीए में सबसे पहले सीटों का बंटवारा हो गया है। बिहार में भाजपा और जदयू 17 17 सीट पर चुनाव लड़ेंगे। जबकि बाकी 6 सीट पर रामविलास पासवान की पार्टी के हिस्से मे आयी हैं। भाजपा ने रामविलास पासवान को राज्यसभा भेजने का आश्वासन भी दिया है। पासवान किस सूबे से चुनाव लड़े्ंगे। अभी यह तय नही है। इस सूबे में भाजपा ने पिछले चुनाव में 22 सीट जीतीं थी। लेकिन अब भाजपा जीती हुई पांच सीट छोड़ने पर राजी है। इससे पार्टी की हताशा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता हे।
देश के राजनीतिक परिदृश्य से साफ है कि इस बार किसी भी पार्टी को बहुमत मिलता नजर नही आ रहा। राजनीतिक पंडित जहां मोदी सरकार की विदाई तय मान रहे हैं। वहीं कांग्रेस बहुमत का आंकड़ा छूएगी। ऐसा कोई चमत्कार होता नही दिख रहा है। ऐसे में जो तस्वीर उभर रही है, उसमें सत्ता की बागड़ोर क्षेत्रीय दलों के हाथों में जाती नजर आ रही है। 1996 जैसे चुनाव नतीजों की स्थिति में इस बार क्षेत्रीय दल कांग्रेस को सत्ता नही सौंपेगे। नतीजतन भाजपा रोकने के लिए चुनाव के बाद बनने वाले संघीय मोर्चे की सरकार को समर्थन देने के अलावा कांग्रेस के पास अन्य कोई विकल्प नही होगा। अपना अस्तित्व बचाने के लिए पिछली बार की तरह इस बार कांग्रेस गैर भाजपा सरकार गिराने का जोखिम भी नही उठाएगी। इन हालात मे कांग्रेस का 44 से 4 पर सिमटना तय हो जाएगा। वहीं भाजपा की सत्ता में वापसी रास्ता भी साफ हो जाएगा।