(जलीस अहसन) महिलाओं के अधिकारों को लेकर देश के दो प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा बरसों से कोरी और बेशर्म राजनीति करते आ रहे हैं। लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने को लेकर भाजपा और कांग्रेस की अगुवाई वाली केन्द्रीय सरकारों के दौरान 1996, 1998, 1999 और 2008 में महिला आरक्षण विधेयक लाए गए हैं लेकिन हर बार बिना पारित कराए ये सभी संबंधित लोकसभाओं का कार्यकाल समाप्त होने के साथ ही खुद भी समाप्त हो गए।
हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राजनीति का तीर छोड़ते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पेशकश की है कि वे इस विधेयक को पारित कराने के लिए नए सिरे से संसद को दोनों सदनों में लाए तो कांग्रेस उसका बिना शर्त समर्थन करेगी। इस राजनीतिक तीर का पलटवार भी सियासी होना ही था। मोदी सरकार की ओर से राहुल को जवाब आया कि वह सहर्ष ऐसा करने को तैयार है बशर्ते कांग्रेस पार्टी महिला आरक्षण विधेयक के साथ ही ट्रिपल तलाक़, बहु-विवाह और निकाह हलाला विधेयकों को भी पारित कराने में सहयोग करे। मामला साफ है। दोनों राष्ट्रीय दलों को महिला अधिकारों से नहीं, केवल राजनीति से मतलब है।
जिस तरह महिला आरक्षण विधेयक पर कांग्रेस ने सैद्धांतिक रूख नहीं अपना कर ढुल-मुल रवैया अपनाया, उसी तरह भाजपा भी ट्रिपल तलाक़ और निकाह हलाला पर किसी खास मकसद की राजनीति कर रही है। ट्रिपल तलाक़ से एक ऐसी पार्टी परेशान है, जिसके खुद के एक बड़े नेता अपनी पत्नी को बिना तलाक के ही छोड़े बैठे हैं।
मुस्लिम पर्सलन लॉ बोर्ड जाने अनजाने इसका हिस्सा
खैर, ट्रिपल तलाक़ और निकाह हलाला से एक खास राजनीतिक लाभ कमाने का मौका खुद आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने ही मोदी सरकार को थाली में सजा कर दिया है। आज ज्यादातर मुस्लिम देश एक बार में तीन बार तलाक कह कर तलाक देने की व्यवस्था को खत्म कर चुके हैं लेकिन भारत में मुसलमानों की दुकान चला रहे एआईएमपीएलबी ने ऐसा करने से मना कर दिया। यही नहीं उच्चतम न्यायालय ने जब यह महिला विरोधी और गैर-इस्लामी चलन को समाप्त करने की बात कही तो एआईएमपीएलबी ने अदालत में रोंगटे खड़े कर देने वाला हल्फनामा दिया जिसमें कहा गया, ‘‘अगर एक बार में तीन बार तलाक कह कर तलाक देने की व्यवस्था को खत्म कर दिया गया तो जो शौहर अपनी बीवी को साथ रखने को हरगिज़ तैयार नहीं है, वह कानूनी बाधा और कानूनी खर्चे के चलते अपनी बीवी की हत्या कर सकता है या उसे ज़िन्दा जला देने जैसे गैर कानूनी काम कर सकता है।‘‘ आज के युग में, वह भी देश की शीर्ष अदालत में किसी धर्म के हितों की कथित रक्षा करने वाली संस्था ऐसा आदिम युगीन हल्फनामा दे सकती है, यह सोच कर भी झुर-झुरी आ जाती है।
एआईएमपीएलबी को यह मालूम होना चाहिए कि मुसलमानों का अलग देश बनाने के नाम पर हमसे अलग हुए पाकिस्तान और उससे टूटे बांग्लादेश सहित अधिकतर देशों में एक बार में तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कह कर तलाक देने की व्यवस्था बहुत पहले समाप्त की जा चुकी है। इसे गैर-इस्लामी माना गया है। इन सारे मुस्लिम देशों में तलाक देने वाले को वहां की इस काम के लिए बनी निश्चित अदालत या शरिया अदालत में जाकर तलाक की अर्ज़ी देनी होती है। वह अदालत सुलह की कोशिश करती है और बात नहीं बनने पर तलाक को कानूनी मंजूरी देती है। इतना बड़ा फैसले को एक मर्द के एकतरफा ‘‘तलाक तलाक तलाक‘‘ कहने पर नहीं छोड़ा जाता है।
निकाह हलाला के बारे में भी कुरान ने साफ कहा है कि अगर कोई तलाक शुदा महिला अपने पूर्व पति से दोबार शादी करने के इरादे से अन्य मर्द से निकाह हलाला करती है तो वह निकाह नहीं जुर्म माना जाएगा। एक से ज्यादा शादी करने के बारे में भी कुरान ने स्पष्ट कहा है कि अगर तुम सब बीवियों से बराबर हा सुलूक कर सको, जो कि तुम नहीं कर सकते, तभी एक से अधिक औरत से विवाह कर सकते हो। ‘‘ जो कि तुम नहीं कर सकते ‘‘ कह कर कुरान ने एक तरह से बहु-विवाह की मनाही ही की है। इसके साथ ही एक शर्त यह भी है कि पहली बीवी की इजाज़त मिलने पर ही दूसरा विवाह किया जा सकता है।
ऐसे में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को कुरान की रोशनी और बदलते समय के मुताबिक महिलाओं और मुस्लिम कौम की बेहतरी के लिए फैसले करने चाहिए न कि ऐसा रूख अपनाए जिससे सियासतदानों को राजनीति करने का आसान मौका मिले। आज भाजपा एक खास ध्रुविकरण की राजनीति के इरादे से मुस्लिम औरतों की स्थिति पर घड़ियाली आंसू बहा रही है, जबकि एक हक़ीकत यह भी है कि भारत में मुस्लिम वर्ग वह समुदाय है जिसमें सबसे कम तलाक होते हैं और निकाह हलाला के मामले भी ढूंढने पर बा-मुश्किल ही मिलेंगे। इसके बावजूद, ये गैर इस्लामी प्रचलन खत्म होने ही चाहिए, चाहे उनकी संख्या कितनी भी कम क्यों न हो।
भाजपा की इस ध्रुवीकरण की राजनीति की तरह कांग्रेस ने अपनी तुष्टिकरण की राजनीति के तहत शाहबानो नामक एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता मिलने के उच्चतम न्यायालय के 1985 के फैसले को 1986 में संसद में विधेयक पारित करके खारिज करवा दिया था। उस समय राजीव गांधी जैसे युवा और प्रगतिशील नेता देश के प्रधानमंत्री थे।