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(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो ! इस बीच हमारी एक कविता के कारण जो हमने मुजफ्फरनगर के कवि सम्मेलन मुशायरे में सुनाई थी, उससे एक मुस्लिम विधायक इतने नाराज़ हुए कि कार्यक्रम छोड़ कर चले गए। उसके कुछ समय बाद एक दिन जब हम सुबह अखबार पढ़ रहे थे कि किसी ने हमारा फाटक खटखटाया। हम निकल कर बाहर आए तो देखा दो मुस्लिम युवक खड़े थे। हमने पूछा, क्या है? बोले, "सुरेन्द्र सुकुमार जी यहीं रहते हैं क्या? हमने कहा, "हम ही हैं... कहो?" बोले, "बाइस तारीख में ऊपर कोट पर मुशायरा है, उस सिलसिले में आपसे बात करनी है।" हमने फाटक का एक पल्ला खोला और पीछे मुड़ते हुए कहा कि 'आइए'...।

बस हमारा मुड़ना था कि एक जोरदार आवाज सुनाई दी। साथ ही साथ हमारे कंधे पर ऐसा लगा जैसे किसी ने आग का गोला दाग दिया हो। वो लोग हमें 315 बोर की रायफल की गोली मारकर भाग गए। हमने कमरे में आकर अपनी पत्नी सुधा को आवाज़ दी। जब वो आई तो हमने कहा कि दो लड़के हमारे गोली मारकर भाग गए हैं।

(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो ! अलीगढ़ आने पर सबकुछ पहले की तरह से सामान्य रूप से चलने लगा। भाभी बार बार एक बात अवश्य कहती थीं कि ‘लला गुरुमुखी होइके मरिवै सै स्वर्ग मिलत है।‘ उनकी यह इच्छा भी हमने पूरी कर दी और अपनी गुरू माँ श्री पूर्ण प्रज्ञा जी से उन्हें दीक्षा दिलवा दी।

हम लोग यानि कि हम, नीरज जी भाई साहब, नरेन्द्र तिवारी जी, और आँधीवाल अक्सर गंगा स्नान के लिए नरोरा जाया करते थे। भाई साहब को भी थोड़ा बहुत तैरना आता था। नरेन्द्र तिवारी जी तो कुशल तैराक थे और आँधीवाल भी तैर लेते हैं। पर हमारी तरह कोई भी नहीं तैर सकता था। हमें जलासन लगाना आता है, हम पानी पर पीठ के बल यूँ हीं लेट जाते हैं और घण्टों लेटे रह सकते हैं। ये क्रिया नरेन्द्र तिवारी जी और आँधीवाल ने हमसे सीख ली। पर भाई साहब नहीं सीख पाए। उसके बाद हम लोग रामघाट उड़िया बाबा के आश्रम में आते थे। यदि आम का सीजन होता, तो वहाँ से आम खरीद कर लाते थे। हम सबको ही आम बेहद पसंद हैं।

(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो ! हम लोग पाँच दिन पूना आश्रम में रुके। वहाँ ओशो के सन्यासी स्वामी सुरेन्द्र भारती हमारे मित्र बन गए थे। एक दिन पहले उन्होंने हमसे पूछा कि आपको मालूम है कि बुद्धा हॉल के गेट पर ऊपर क्या लिखा है? हमने कहा पढ़ा है, लिखा है कि "कृपया जूते और मस्तिष्क बाहर छोड़ कर आएँ।" पूछा कि इसका क्या मतलब है? हमने कहा कि ठीक लिखा है, "जो भी व्यक्ति मस्तिष्क लेकर जाएगा, ओशो को सुन कर उसका हाथ अपने जूतों पर ही जाएगा कि ये क्या बकवास कर रहे हैं।" तो वो नाराज़ हो गए।

ओशो के प्रवचन से एक दिन पहले जिनको भी कोई प्रश्न करने होते थे, वो ओशो के पास पहुंचा दिए जाते थे। हमने भी स्वामी सुरेन्द्र भारती के साथ हुए अपनी वार्ता को ज्यों का त्यों लिख कर भेज दिया। उस दिन ओशो ने सबसे पहले हमारा विवरण ही लिया और पढ़ कर बहुत ही जोर से हँसे। फिर बोले, ‘‘सुरेन्द्र ने जो भी लिखा है, सही लिखा है, जो भी व्यक्ति हमारे पास मस्तिष्क लेकर आएगा, उसका हाथ जूते पर ही जाएंगे। इसीलिए तो हम कहते हैं कि खाली होकर आओ... पहले का थोथा ज्ञान लेकर आओगे तो हमारे पास से कुछ भी नहीं लेकर जा पाओगे?"

(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो! नीरज जी भाई साहब ओशो से बहुत ही प्रभावित थे। ओशो को पढ़ते भी थे और उनकी बोलचाल में भी ओशो का ही दर्शन झलकता था। इधर, हम भी ओशो को बहुत ही पसंद करते थे। हमने ओशो का बहुत सारा साहित्य खोज खोज कर पढ़ा था। एक यह भी कारण था, भाई साहब से हमारी नज़दीकी का। पर हमने ओशो के साथ साथ उपनिषद ए रमण महिर्ष ए जे ण् कृष्ण मूर्ति आदि को भी पढ़ा था। एक बार ओशो की एक पुस्तक में हमने पढ़ा कि शिष्य तो अंधा होता है, तो वो गुरू को कैसे पहचान सकता है? गुरू जागृत है, गुरू शिष्य को पहचान लेंगे। जब भी शिष्य की आध्यात्मिक प्यास चरम पर होगी, गुरू या तो शिष्य को अपने पास बुला लेंगे या वो ख़ुद शिष्य के पास पहुंच जाएंगे। बस उस दिन से हमने अपने मन में ये ठान ली कि यदि तुम सच्चे गुरू हो, तो या तो हमारे पास आओ या हमें बुलाओ।

हमने ये बात भाई साहब को भी बता दी थी। एक और बात ओशो की एक और पुस्तक है, 'कहे कबीर दीवाना' इसकी भूमिका बिहार के जनवादी समीक्षक आरसी प्रसाद सिंह ने लिखी है।

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