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(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो ! इधर हमने अपनी सुरेन्द्र नगर वाली कोठी बेच दी और हम शहर से 5 किलोमीटर दूर ओज़ोन सिटी में एक फ्लैट लेकर रहने के लिए आ गए। अब ये जगह नीरज जी भाई साहब के घर से 5 किलोमीटर दूर थी। इसलिए हमारा उनके घर जाना बहुत कम हो गया, वो ही कभी कभी अपनी स्कूटी से आ जाते थे और बनाओ दो पैग कह कर पीने बैठ जाते। हम लोग पीते खाते और फिर चले जाते थे।

इधर हमारी पत्नी सुधा बीमार रहने लगी, पहले तो बीमारी पकड़ में ही नहीं आई, फिर पीजीआई चंडीगढ़ में डायग्नोस हो पाया कि उसे ‘माइलोफाइव्रोसस‘ नाम की बीमारी हो गई थी। जिसमें शरीर में खून बनाने वाले सेल नष्ट हो जाते हैं और खून बनना बंद हो जाता है।

लगभग ब्लड कैंसर जैसी बीमारी है। फिर हम सुधा को दिल्ली एम्स में ले आए। एम्स के डॉक्टर्स ने कहा कि इसका कोई इलाज नहीं है। हाँ, बोनमैरो ट्रांसप्लांट हो सकता है पर इस उम्र में ठीक होने के चालीस परसेंट ही चांसेज होते हैं और रुपए भी लगभग दस पन्द्रह लाख खर्च हो जाएंगे।

हमने विचार किया, सुधा ने स्पष्ट मना कर दिया, हमारी बेटी कुछ भी तय नहीं कर पाई। हम तो चाहते थे। डॉक्टर्स ने यह भी कहा कि हीमोग्लोबिन बहुत ही कम है, इसलिए इनको ऊपर का ब्लड महीने में दो यूनिट चढ़वाते रहें। हीमोग्लोबिन थोड़ा नॉर्मल आएगा तब बोनमैरो ट्रांसप्लांट के बारे में विचार करेंगे।

हम सुधा को अलीगढ़ ले आए और हर महीने दो यूनिट ब्लड चढ़वाने लगे, पर होता यह कि कुछ दिनों वो नॉर्मल रहती फिर वीकनेस... आगे चलकर हम तीन यूनिट ब्लड चढ़वाने लगे... पर वो ही हाल बना रहा। उसके बाद तो ऊपर के ब्लड ने भी काम करना बंद कर दिया और एक दिन सुधा चल बसी। हमारी तो जैसे दुनियाँ ही उजड़ गई।

नीरज जी भाई साहब भी बेहद दुखी हुए, वो सुधा से बहुत ही स्नेह करते थे। वो लगातार हर रोज़ हमारे घर आते रहे। हम मना भी करते कि भाई साहब आप रोज़ नहीं आया करें। आपकी तवियत भी तो सही नहीं रहती है, पर वो नहीं माने रोज़ ही आते रहे।

जिस दिन सुधा की तेरहवीं थी, उस दिन आए और भोजन करके बोले, ‘ये खाना किसने बनाया है? बहुत ही स्वादिष्ट भोजन है।
मेरी तेरहवीं पर भी इन्हीं से खाना बनवाना।‘ हमने बल्लू भाई से उनका परिचय कराया, उनसे उनका नम्बर लिया और बोले, ‘ये नम्बर मैं अपने बेटे को दे दूँगा, वो मेरी तेरहवीं पर तुमसे ही भोजन बनवाएगा।‘

तेरहवीं वाले दिन ही हमारा राइट हैंड पैरेलाइज़ हो गया, हमारी बेटी उसी समय हमें दिल्ली इलाज के लिए ले गई। दिल्ली में हम काफी कुछ ठीक हो गए और फिर हमारी बेटी हमें भुवनेश्वर ले गई। क्योंकि दामाद की पोस्टिंग भुवनेश्वर में थी। वहाँ उसने एक फिजियोथैरेपिस्ट लगा दिया, जो हमारी फिजियोथैरेपी कराने आने लगे थे। हम काफ़ी कुछ ठीक हो गए पर हम लिख नहीं सकते थे। जो आजतक भी वही हाल है। हम फेसबुक पर भी लैफ्ट हैंड के अगूँठे से ही टाइप करते हैं।

भुवनेश्वर से वापस आकर अलीगढ़ में पता चला कि नीरज जी भाई साहब बहुत ही बीमार हैं। पर हमारा दुर्भाग्य कि हम उन्हें देखने नहीं जा सके और उसके बाद तो हम भाई साहब से मिल ही नहीं पाए। उन्हें एम्स में एडमिट कराया गया पर कुछ भी नहीं हो पाया और भाई साहब चल बसे।

हमें बहुत ही दुःख हुआ पर और भी दुःख की बात ये थी कि उनके सुपुत्र ने उनकी तेरहवीं भी नहीं की। बस तेरह पंडितों को भोजन करा के विदा कर दिया। बेचारे बल्लू भाई को प्रतीक्षा ही बनी रही। हमसे पूछते भी रहे कि नीरज जी की तेरहवीं कब की है? पर वो दिन कभी भी नहीं आया।

नीरज जी और शायर शहरयार की स्मृति में प्रदर्शनी मैदान में में एक पार्क बनाया गया और नाम नीरज शहरयार पार्क रखा गया और उनकी भव्य मूर्ति लगाई गई है। प्रदर्शनी में होने वाले कवि सम्मेलन का नाम महाकवि नीरज स्मृति काव्य महोत्सव रख दिया गया है और प्रति वर्ष उनकी स्मृति में भव्य अखिल भारतीय कवि सम्मेलन होता है।

नीरज जी चले गए और देखते देखते कारवाँ गुज़र गया, गुवार देखते रहे... पर नीरज जी का साहित्य और उनकी स्मृति अक्षुण है और रहेगी।

समाप्त

नोटः सुरेन्द्र सुकुमार 80 के दशक के पूर्वार्ध के उन युवा क्रांतिकारी साहित्यकारों में हैं, जो उस दौर की पत्रिकाओं में सुर्खियां बटोरते थे। ‘सारिका‘ पत्रिका में कहानियों और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता था। "जनादेश" साहित्यकारों से जुड़े उनके संस्मरणों की श्रंखला शुरू कर रहा है। गीतों के चक्रवर्ती सम्राट गोपालदास नीरज से जुड़े संस्मरणों से इस श्रंखला की शुरूआत कर रहे हैं।

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