(आशु सक्सेना) अमरनाथ यात्रा से करीब एक सप्ताह पहले जम्मू कश्मीर की मेहबूबा सरकार का पतन राजनीतिक दृष्टि से भाजपा के हित में हो सकता है। लेकिन तीर्थयात्रियों की सुरक्षा के लिहाज से भाजपा का यह फैसला काफी जोखिम भरा नजर आता है। अमरनाथ यात्रा के दौरान आतंकवाद के खात्मे का अभियान निश्चित ही आतंकियों के लिए चुनौती है। इस दौरान आतंकी सुरक्षाबलों के साथ साथ श्रद्धालुओं को निशाना बनाने की फिराक में रहेंगे। लिहाजा तीर्थयात्रियों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार को अतिरिक्त चौकसी करनी होगी। ऐसे में देश के चौकीदार पीएम मोदी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उन्हें देशवासियों को विश्वास दिलाना होगा कि हिंदुओं की धार्मिक आस्था से जुड़ी इस तीर्थयात्रा के दौरान किसी भी श्रद्धालु को जानमाल का कोई खतरा नही है।
यूं तो इतिहास साक्षी है कि अमरनाथ यात्रा के दौरान आतंकवादी हर साल ही किसी न किसी वारदात को अंजाम देने में सफल होते आए हैं। लेकिन वर्ष 2000 की अमरनाथ यात्रा के दौरान हुए नरसंहार को इस धार्मिक यात्रा के इतिहास में अभी तक का सबसे बड़ा हादसा माना जाता है। उस साल आतंकवादियों ने अनंतनाग और डोड़ा जिले में श्रद्धालुओं के कैंपों पर घात लगाकर हमला किया था। जिसमें काफी तादाद में हिदु श्रद्धालुओं के अलावा मुसलिम दुकानदार, सेना के जवान और स्थानीय नागरिकों जान गई थी, जबकि 62 लोगों के ज़ख्मी होने की खबर थी।
उस वक्त प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने पहलगाम जाकर इस नरसंहार के लिए लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) को जिम्मेदार ठहराया था।
इस बात को झूठलाया नही जा सकता कि भाजपा ने 2014 से लगातार जम्मू कश्मीर की सत्ता पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से काबिज है। इस दौरान सूबे में तीन बार राज्यपाल शासन भी लागू किया गया। उस दौरान भी सूबे की प्रशासनिक कमान केंद्र की मोदी सरकार के पास ही रही है। लिहाजा पीडीपी से समर्थन वापस लेने मात्र से सूबे के मौजूदा हालात की जिम्मेदारी से भाजपा खुद को अलग नही कर सकती है।
आपको याद दिला दें कि विधानसभा चुनाव के बाद जब कोई भी दल या गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में नही था। तब पहली बार राज्यपाल शासन लगाया गया और सूबे की बागड़ौर अप्रत्यक्षतौर पर मोदी सरकार के हाथ मे आ गई थी। दरअसल, इस चुनाव की अंकगणित ने दो विपरित ध्रुव भाजपा और पीडीपी को मजबूरी मे नजदीक ला दिया था। सूबे की 87 सीट वाली विधानसभा में जहां घाटी में पीडीपी का कब्जा रहा, वहीं जम्मू क्षेत्र में भाजपा ने अप्रत्याशित सफलता हासिल की थी। पीडीपी 28 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी, वहीं भाजपा ने मोदी लहर में जबरदस्त सफलता हासिल करते हुए जम्मू में 25 सीटों पर कब्जा किया।
देश की आज़ादी के इतिहास में यह पहला मौका था। जब पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के बाद जम्मू कश्मीर में भाजपा ने सत्ता की दावेदारी की थी। पार्टी के स्टार प्रचारक पीएम मोदी ने धुंआधार चुनाव प्रचार किया था। मोदी ने सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की अपील के साथ साथ बाप बेटी की सरकार से बचने की हिदायत भी दी थी। लेकिन चुनाव नतीज़ों के बाद विधानसभा की अंकगणित कुछ ऐसी बनी कि विचारधारा में विपरित पीडीपी के साथ समझौता करके ही भाजपा सत्तासुख चख सकती थी।
उस वक्त आरएसएस और भाजपा के रणनीतिकार सत्ता हासिल करने के इस मौेके को किसी भी कीमत पर खोना नही चाहते थे। लिहाजा काफी मंथन के बाद मजबूरी में भाजपा और पीडीपी ने साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर सरकार गठन पर सहमति व्यक्त की थी। दिलचस्प पहलू यह है कि सत्ता पर काबिज रहते हुए दोनों ही पार्टियां अपने अपने रूख पर कायम रहीं। जहां भाजपा संविधान के अनुक्ष्छेद 370 को खत्म करने और समान नागरिक संहिता की पक्षधर है, वहीं पीडीपी का रूख साफ है कि 370 से छेड़छाड़ बर्दाश्त नही है। इसके अलावा जहां भाजपा शांति की स्थापना तक बातचीत गलत मानती है, वहीं पीडीपी का मत साफ है कि समस्या के समाधान के लिए अलगाववादियों के साथ साथ पाकिस्तान के साथ भी बातचीत होनी चाहिए।
विपरित विचारधारा धारा वाली पार्टियों को इस दौरान पीडीपी प्रमुख और सीएम मुफ्ती मोहम्मद सईद के इंतकाल के बाद एक बार फिर अथ से प्रारंभ करना पड़ा था। इस बार भाजपा को उनकी बेटी के साथ सत्ता में भागीदारी की रणनीति को अंजाम देना था। दूसरी बार राज्यपाल शासन के बाद मेहबूबा सरकार अस्तित्व में आयी। दूसरी बार सरकार के गठन को भाजपा और पीडीपी दोनों ने कश्मीरियों के हित में बताया था। इस वक्त अचानक ऐसी कोई घटना नही घटी थी, जिसे संबंध विच्छेद का बड़ा कारण माना जाए।
मोदी सरकार के अस्तित्व में आने से पहले जम्मू कश्मीर और सीमा पार से आतंकवाद भाजपा का आक्रामक मुद्दा रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के स्टार प्रचारक मोदी ने दो के बदले 20 सिर लाने की बात कही थी। ऐसे में अब पीडीपी के साथ सत्तासुख भोगने का लोकसभा चुनाव में भाजपा को खामियाजा भुगतना पड़ सकता था। लिहाजा इसे भाजपा का बेहतर राजनीतिक मूव कहा जाएगा। लेकिन जो वक्त उसने चुना है, वह बहुत जोखिम भरा है।
बहरहाल, भाजपा ने देश के संसदीय इतिहास में यह अध्याय जोड़ दिया कि उसने करीब तीन साल सूबे की बागड़ौर संभाली है। लेकिन अब चुनावी साल में अचानक हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं से जुड़ी अमरनाथ यात्रा से करीब एक सप्ताह पहले पीडीपी से नाता तोड़ना सैद्धांतिक फैसला कम राजनीतिक ज्यादा प्रतीत होता है। देश के चौकीदार पीएम मोदी ने पिछले करीब साढे तीन साल के दौरान सूबे के कई दौरे किये है। इस दौरान उन्होंने सीएम मेहबूबा मुफ्ती के कामकाज की दिल खोकर सराहना की है। सूबे के विकास को गति प्रदान करने के लिए उनकी भूरि भूरि प्रशंसा भी की।
पीएम मोदी ने हांलाकि अपनी जम्मू कश्मीर यात्राओं के दौरान आतंकवाद को बड़ी चुनौती माना और उससे निपटने की बात कही। लेकिन इन हालात के लिए राज्य सरकार को कभी जिम्मेदार नही ठहराया। लिहाजा साफ है कि भाजपा का खुद को सत्ता से अचानक अलग करने का फैसला 2019 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश मात्र है। चूंकि सूबे में अब राज्यपाल शासन है। लिहाजा अमरनाथ यात्रा के दौरान केंद्र सरकार को सुरक्षा के विशेष इंतजाम करने होंगे।
इस बार अमरनाथ यात्रा का समय बढ़ाकर 60 दिन किया गया है। श्रद्धालु 28 जून से 26 अगस्त 2018 के दौरान तीर्थयात्रा करेंगे। अगर इस दौरान सुरक्षा में कोई चूक हो गई, तो सर्जिकल स्ट्राइक की तरह किसी बड़े आॅपरेशन को अंजाम देकर भाजपा इसका चुनावी लाभ हासिल कर सकती है। लेकिन अगर इस दौरान वर्ष 2000 जैसी किसी बड़ी आतंकवादी घटना की पुर्नावृत्ति हो गई, तो उस कलंक से भी भाजपा कभी अपने माथे से धो नही पाएगी।