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भोपाल: मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमान कमलनाथ को सौंपे जाने के बाद 20 जिलों और शहरों के अध्यक्ष बदले गए। मगर शहडोल जिला अध्यक्ष सुभाष गुप्ता को महज एक पखवाड़े में ही हटाना पड़ा। इससे कांग्रेस के भीतर और बाहर लगातार एक सवाल उठ रहा है कि क्या कमलनाथ की स्थिति भी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्षों जैसी ही है, जो बड़े नेताओं के दवाब से अपने को बाहर नहीं निकाल पाए और पद से रुखसत हो गए। राज्य में कांग्रेस बीते तीन दशकों से गुटों में बंटी हुई है, इसे कोई नकार नहीं सकता। इलाकाई क्षत्रपों के आगे कांग्रेस की स्थिति ठीक वैसी ही रही है, जैसी समाज में गरीबों की है। कई नेता तो ऐसे हैं, जो भोपाल आते थे, होटल या कॉफी हाउस में बैठकें करके चले जाते थे, वे सालों प्रदेश कार्यालय तक नहीं आए।

राजनीति के जानकारों की मानें तो कमलनाथ के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद लगा था कि कांग्रेस में अब दबाव और गुटबाजी कम हो जाएगी। पार्टी के संगठन महासचिव अशोक गहलोत की सहमति से कमलनाथ ने 20 जिला और शहर अध्यक्षों की 22 मई को घोषणा की। इसमें शहडोल के अध्यक्ष सुभाष गुप्ता को महज एक पखवाड़े के भीतर हटाना पड़ा, क्योंकि एक दिग्गज नेता ने इसे प्रतिष्ठा से जोड़ लिया था और कमलनाथ पर गुप्ता को हटाने का दवाब बनाया।

पार्टी के मीडिया विभाग के प्रमुख मानक अग्रवाल ने कहा, "गुप्ता दूसरे दल से कांग्रेस में आए थे, उनका स्थानीय स्तर पर विरोध था, वे नहीं चाहते थे कि कमलनाथ पर किसी तरह का प्रभाव पड़े, लिहाजा उन्होंने स्वयं पद से इस्तीफा दिया है। उन पर किसी का दवाब नहीं था।" वहीं, गुप्ता का कहना है कि एक विधायक जो बड़े नेता हैं, उनकी इच्छा नहीं थी कि वे अध्यक्ष रहें। उन्होंने कहा कि उनके (गुप्ता) नेता कमलनाथ हैं, और वे पूरी तरह कमलनाथ के लिए काम करते हैं, लिहाजा उन्होंने पद छोड़ दिया।

इससे पूर्व के अध्यक्ष अरुण यादव के साढ़े चार साल के कार्यकाल पर नजर दौड़ाएं तो एक बात साफ हो जाती है कि वे राज्य के 26 जिला और शहर अध्यक्षों को बदलना चाहते थे, मगर बड़े नेताओं के दखल के चलते वे तमाम कोशिशों के बाद भी अपने अनुरूप कांग्रेस को नहीं चला पाए। संगठन की मजबूती के लिए कई प्रस्ताव बनाए, हाईकमान को भेजे मगर बड़े नेताओं ने वहां भी पेंच फंसाया। वर्तमान हालात को देखकर यही लगता है कि अरुण यादव की पार्टी में जो स्थिति थी, उससे बहुत बेहतर स्थिति कमलनाथ की नहीं लगती है। यही कारण है कि अपनी पसंद के जिलाध्यक्ष को सिर्फ इसलिए हटाना पड़ा, क्योंकि कांग्रेस के एक दिग्गज नेता को गुप्ता पसंद नहीं।

यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि जिसे जिम्मेदारी सौंपी गई है, वह भी कभी कांग्रेस से बगावत कर तिवारी कांग्रेस से विधानसभा का चुनाव लड़े थे। कमलनाथ को अध्यक्ष बने लगभग दो माह का वक्त गुजर चुका है, मगर अब तक न तो प्रदेश कार्यकारिणी बन पाई है और न ही विकासखंड अध्यक्षों की नियुक्ति हो पाई है। कमलनाथ का पक्ष जानने की कई कोशिश की गई, मगर उनसे संपर्क नहीं हो पाया।

राज्य में चुनाव महज पांच-छह माह दूर है और कांग्रेस अब भी गुटबाजी के भंवरजाल में उलझी हुई है। जिस दल की कार्यकारिणी, निचले स्तर पर अध्यक्षों के चयन में दिक्कत आ रही है, वह दल चुनाव में कितनी ताकत दिखा पाएगा, यह सवाल उठना लाजिमी है। कार्यकर्ता और दक्ष पदाधिकारी ही पार्टी की ताकत होते हैं, मगर कांग्रेस अबतक ऐसे लोगों को खोजने में नाकाम रही है।

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