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(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो ! अलीगढ़ आने पर सबकुछ पहले की तरह से सामान्य रूप से चलने लगा। भाभी बार बार एक बात अवश्य कहती थीं कि ‘लला गुरुमुखी होइके मरिवै सै स्वर्ग मिलत है।‘ उनकी यह इच्छा भी हमने पूरी कर दी और अपनी गुरू माँ श्री पूर्ण प्रज्ञा जी से उन्हें दीक्षा दिलवा दी।

हम लोग यानि कि हम, नीरज जी भाई साहब, नरेन्द्र तिवारी जी, और आँधीवाल अक्सर गंगा स्नान के लिए नरोरा जाया करते थे। भाई साहब को भी थोड़ा बहुत तैरना आता था। नरेन्द्र तिवारी जी तो कुशल तैराक थे और आँधीवाल भी तैर लेते हैं। पर हमारी तरह कोई भी नहीं तैर सकता था। हमें जलासन लगाना आता है, हम पानी पर पीठ के बल यूँ हीं लेट जाते हैं और घण्टों लेटे रह सकते हैं। ये क्रिया नरेन्द्र तिवारी जी और आँधीवाल ने हमसे सीख ली। पर भाई साहब नहीं सीख पाए। उसके बाद हम लोग रामघाट उड़िया बाबा के आश्रम में आते थे। यदि आम का सीजन होता, तो वहाँ से आम खरीद कर लाते थे। हम सबको ही आम बेहद पसंद हैं।

इस बीच भाभी थोड़ा बीमार होने लग गईं और चल बसीं। आप लोग आश्चर्य करेंगे कि भाभी के साथ शवयात्रा में उनके रिश्तदारों के अतिरिक्त शहर से केवल हम ही थे, जो शामिल हुए थे। राजघाट गंगा किनारे उनका दाहसंस्कार किया गया, शाम तीन बजे तक वापस आए तो देखा कि घर की महिलाएँ और बच्चे भूखे बैठे हैं। भाई साहब ने कहा कि ‘क्या हुआ कहीं से कुछ खाने पीने के लिए नहीं आया।‘ हमारे मुँह से बेसाख़्ता निकल गया कि 'भाई साहब आपने ऐसे अवसर पर कभी किसी के घर कुछ भिजवाया है? ये तो आदान प्रदान है।' फिर हमने सुधा को फोन किया कि बीस लोगों के लिए पूड़ी आलू की सूखी सब्जी बना के रखे, हम लेने आ रहे हैं। फिर हम अपने घर से खाना लेकर आए। असल में भाई साहब बिल्कुल भी व्यवहारिक नहीं थे। किसी के दुःख सुख में कम ही शामिल होते थे।

दूसरे दिन से ही फिर पपलू की महफ़िल जमने लगी, शहर से कोई मातमपुर्सी करने के लिए आता, तो उसकी ओर देखते भी नहीं थे। वो कहता कि नीरज जी भाभी जी के जाने का बहुत दुःख हुआ तो तत्काल कहते कि ‘कैसा दुःख जो आया है वो जाएगा, इसी का नाम दुनियाँ है।‘ अपने पत्ते देख कर कहते कि साला एक भी माल नहीं आया है, अब क्या ख़ाख खेलेंगे और पत्ते पटक देते।

तीसरे दिन तो दिल्ली का एक कवि सम्मेलन भी कर आ ‘मैं मृत्युभोज के बहुत ख़िलाफ़ हूँ, एक तो इंसान मरे ऊपर से लोगों को बुला कर भोज दो।‘ बस तेरह ब्राह्मणों को बुला कर भोजन करा दिया।

भाभी के जाने का उन्हें कोई ख़ास दुःख नहीं था। हाँ ये अवश्य कहते थे कि ‘मैं सावित्री के साथ न्याय नहीं कर पाया।‘ इतना पश्चाताप बहुत था। कम से कम भाभी के जाने के बाद उन्हें यह अहसास तो हुआ। फिर उन्होंने अपने एक पुराने पहाड़ी सेवक को अपने पास रख लिया। वो उनके घर का सारा काम करता था। फिर रघुवीर सहाय इंटर कॉलेज में उसकी नोकरी भी लगवा दी, उसकी शादी भी करवा दी। फिर उसके बच्चे हुए, सब उनके ही साथ रहने लगे। बच्चों को बहुत ही प्यार करते थे। वो लड़का जिसका घर का नाम सिंग सिंग है, को एक प्लॉट भी दिलवा दिया। मरते दम तक उसने भाई साहब की बड़ी सेवा की।

फिर भाई साहब की तबियत खराब रहने लगी। यों उनकी तवियत तो कभी भी ठीक नहीं रही, लेकिन अब आकर ज्यादा खराब रहने लग। पर तवियत खराब रहने के बाबजूद उन्होंने कवि सम्मेलन में जाना नहीं छोड़ा, बल्कि इसका भी उन्होंने लाभ उठाया। संयोजकों से कहते कि बीमारी में बहुत खर्चा हो रहा है वैसे तो मैं आता ही नहीं पर तुम्हारे कारण आ रहा हूँ। मुझे कुछ रुपये बढ़ा कर देना।‘

एक बार तो ऐसा हुआ कि भाई साहब दिल्ली एम्स में भर्ती थे। एक दिन डीसीएम का कवि सम्मेलन था। भाई साहब भी उसमें आमंत्रित थे, तो किसी से कहे वगैर चुपचाप कवि सम्मेलन में चले गए। वहाँ जाकर भी वही पुराना नाटक आख़िरकार उन लोगों ने पचास हजार रुपये तो तय वाले और पचास हजार रुपये अलग से दिए। इस तरह से एक लाख रुपए लेकर आए। आकर फिर बैड पर लेट गए। इतने जीवट के थे, हमारे नीरज जी भाई साहब। क्रमशः

नोटः सुरेन्द्र सुकुमार 80 के दशक के पूर्वार्ध के उन युवा क्रांतिकारी साहित्यकारों में हैं, जो उस दौर की पत्रिकाओं में सुर्खियां बटोरते थे। ‘सारिका‘ पत्रिका में कहानियों और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता था। "जनादेश" साहित्यकारों से जुड़े उनके संस्मरणों की श्रंखला शुरू कर रहा है। गीतों के चक्रवर्ती सम्राट गोपालदास नीरज से जुड़े संस्मरणों से इस श्रंखला की शुरूआत कर रहे हैं।

 

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