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(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो ! हम लोग पाँच दिन पूना आश्रम में रुके। वहाँ ओशो के सन्यासी स्वामी सुरेन्द्र भारती हमारे मित्र बन गए थे। एक दिन पहले उन्होंने हमसे पूछा कि आपको मालूम है कि बुद्धा हॉल के गेट पर ऊपर क्या लिखा है? हमने कहा पढ़ा है, लिखा है कि "कृपया जूते और मस्तिष्क बाहर छोड़ कर आएँ।" पूछा कि इसका क्या मतलब है? हमने कहा कि ठीक लिखा है, "जो भी व्यक्ति मस्तिष्क लेकर जाएगा, ओशो को सुन कर उसका हाथ अपने जूतों पर ही जाएगा कि ये क्या बकवास कर रहे हैं।" तो वो नाराज़ हो गए।

ओशो के प्रवचन से एक दिन पहले जिनको भी कोई प्रश्न करने होते थे, वो ओशो के पास पहुंचा दिए जाते थे। हमने भी स्वामी सुरेन्द्र भारती के साथ हुए अपनी वार्ता को ज्यों का त्यों लिख कर भेज दिया। उस दिन ओशो ने सबसे पहले हमारा विवरण ही लिया और पढ़ कर बहुत ही जोर से हँसे। फिर बोले, ‘‘सुरेन्द्र ने जो भी लिखा है, सही लिखा है, जो भी व्यक्ति हमारे पास मस्तिष्क लेकर आएगा, उसका हाथ जूते पर ही जाएंगे। इसीलिए तो हम कहते हैं कि खाली होकर आओ... पहले का थोथा ज्ञान लेकर आओगे तो हमारे पास से कुछ भी नहीं लेकर जा पाओगे?"

आगे बोले, क्योंकि जो तुम्हारा पहले का अधकचरा ज्ञान, जो कि ज्ञान नहीं है, सिर्फ विद्वता है। जो तुमने पुस्तकों से पढ़ कर जमा कर लिया है। ये जब तक खाली नहीं होगा, तब तक कुछ भी नया नहीं प्रवेश कर पाएगा और जूते तो स्वक्षता के कारण से लिखा है।‘‘

उसी दिन स्वामी सुरेन्द्र भारती ने हमसे कहा कि "आप सन्यास ले लें।" हमने कहा, "ठीक है ले लेंगे, पर हमारी एक शर्त है कि यदि ओशो हमें सन्यास दें, तो हम ले सकते हैं।" अमेरिका से वापस आने के बाद ओशो ने सन्यास देना बंद कर दिया था, कोई और सन्यासी दीक्षा देने लगे थे। सुरेन्द्र भारती ने कहा, "पूछ कर बताता हूँ।"

अब वो दिन आ गया जिस दिन हमें पूना से वापस आना था, उसी दिन ओशो से व्यक्तिगत मुलाकात होनी थी। हम लोग ओशो के आवास पर गए, ओशो निकल कर बाहर आए, सबने अपना अपना परिचय दिया। जबकि वो इतना तो जान ही चुके थे। उन्होंने सबसे अपना हाथ मिलाया। जब उनका हाथ हमारे हाथ में आया, तो हम चौंक गए। सच मानिए इतना कोमल स्पर्श हमने कभी भी नहीं किया था। नवजात शिशु के गाल को स्पर्श करें, तो वो भी कठोर होगा। अचानक हमारे मन में आया कि इस व्यक्ति ने हमारा मस्तिष्क तो पराजित कर ही दिया है, तो क्यों अब इनके समक्ष ये सर उठाना? बस फिर क्या था हम उनके चरणों में शाष्टांग लेट गए। उन्होंने हमें उठाया और अपने सीने से लगा लिया। हम हिचकियों से रोने लगे, वो हमें चुपाते रहे और हम रोते रहे। उस दिन हमने मन ही मन उनको अपना मानसिक गुरू मान लिया था। फिर ओशो ने अपने हस्ताक्षर युक्त एक एक अपनी पुस्तक भेंट की। हम बहुत ही आश्चर्य में भर गए जब हमने देखा कि हमारे हिस्से में वो ही पुस्तक आई, जिसकी हमें वर्षों से तलाश थी। ‘‘कहें कबीर दीवाना‘‘ यह भी हमारे लिए चौंकाने वाली घटना थी।

फिर तो हमें जाना ही था, वहाँ से बाहर आकर जब हमने स्वामी सुरेन्द्र भारती से पूछा कि क्या हुआ आपने ओशो से पूछा? तो वो बोले? ‘‘पूछा था तो ओशो ने कहा कि उसे सन्यास की क्या आवश्यकता है, वो तो पहले से ही सन्यस्थ है।‘‘ बस इसके बाद से हम ध्यान साधना में रत हो गए, जो अबतक चल रहा है। पर वो पूना आश्रम की यात्रा हमारे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण यात्रा रही जिसको हम कभी भी नहीं भूल सकते हैं। इस पूरी यात्रा में नीरज जी भाई साहब का विशेष योगदान रहा क्योंकि ओशो भी नीरज जी के प्रशंषकों में से एक थे। क्रमशः

नोटः सुरेन्द्र सुकुमार 80 के दशक के पूर्वार्ध के उन युवा क्रांतिकारी साहित्यकारों में हैं, जो उस दौर की पत्रिकाओं में सुर्खियां बटोरते थे। ‘सारिका‘ पत्रिका में कहानियों और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता था। "जनादेश" साहित्यकारों से जुड़े उनके संस्मरणों की श्रंखला शुरू कर रहा है। गीतों के चक्रवर्ती सम्राट गोपालदास नीरज से जुड़े संस्मरणों से इस श्रंखला की शुरूआत कर रहे हैं।

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