ताज़ा खबरें
मणिपुर में कथित कुकी उग्रवादियों के हमले में 2 जवान शहीद, कई घायल

(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो! नीरज जी भाई साहब ओशो से बहुत ही प्रभावित थे। ओशो को पढ़ते भी थे और उनकी बोलचाल में भी ओशो का ही दर्शन झलकता था। इधर, हम भी ओशो को बहुत ही पसंद करते थे। हमने ओशो का बहुत सारा साहित्य खोज खोज कर पढ़ा था। एक यह भी कारण था, भाई साहब से हमारी नज़दीकी का। पर हमने ओशो के साथ साथ उपनिषद ए रमण महिर्ष ए जे ण् कृष्ण मूर्ति आदि को भी पढ़ा था। एक बार ओशो की एक पुस्तक में हमने पढ़ा कि शिष्य तो अंधा होता है, तो वो गुरू को कैसे पहचान सकता है? गुरू जागृत है, गुरू शिष्य को पहचान लेंगे। जब भी शिष्य की आध्यात्मिक प्यास चरम पर होगी, गुरू या तो शिष्य को अपने पास बुला लेंगे या वो ख़ुद शिष्य के पास पहुंच जाएंगे। बस उस दिन से हमने अपने मन में ये ठान ली कि यदि तुम सच्चे गुरू हो, तो या तो हमारे पास आओ या हमें बुलाओ।

हमने ये बात भाई साहब को भी बता दी थी। एक और बात ओशो की एक और पुस्तक है, 'कहे कबीर दीवाना' इसकी भूमिका बिहार के जनवादी समीक्षक आरसी प्रसाद सिंह ने लिखी है।

तो हम यह जानना चाहते थे कि एक कम्युनिस्ट व्यक्ति ओशो के बारे में क्या सोचता है? पर उक्त पुस्तक बहुत खोजने पर भी हमें नहीं मिल पाई। आश्रम से तो हमने सारे सम्बंध तोड़ रखे थे। इसी बीच ओशो अमेरिका चले गए। अब भाई साहब ने हमसे कहा, ‘अब क्या करोगे? ओशो तो अमेरिका गए, अब वो क्या तुम्हें अमेरिका बुलाएंगे या वापस आएंगे?‘
हमने कहा कि ‘कुछ भी हो सकता है।‘ और सच में हुआ भी यही ओशो को अमेरिका से वापस आना पड़ा। यह बात सन 1989 की है। हमारी प्यास और प्रतीक्षा दोनों ही तीब्र हो गई थी। फिर एक दिन ऐसा आया कि ओशो ने पूना आश्रम में पहली बार कवि सम्मेलन का आयोजन रखा। नीरज जी भाई साहब के साथ साथ हमारे पास भी निमंत्रण आया।

अब तो हम खुशी से झूम उठे, इस कवि सम्मेलन में अलीगढ़ से हम दोनों के अतिरिक्त डॉक्टर नरेन्द्र तिवारी, सुरेश कुमार, कानपुर से शतदल मुंबई से इंदीवर, आस करण अटल और कल्यान जी भोपाल से नरेन्द्र दीपक जबलपुर से ओशो के बचपन के मित्र राजेन्द्र अनुरागी शामिल हुए।

पूना पहुंच कर पता चला कि आश्रम में प्रवेश के लिए ऐड्स का टैस्ट अनिवार्य है। यदि नगेटिव आया तो ही प्रवेश हो सकता है अन्यथा नहीं। नीरज जी ने भी शर्त रख दी कि हम लोग ये टैस्ट नहीं कराएंगे, नहीं तो वापस चले जाएंगे और उन्होंने वर्षों पुराना ये नियम तोड़ दिया और हम लोग बिना ऐड्स के टैस्ट के आश्रम में आ गए।

आश्रम की सुंदरता देखते ही बनती थी। इतना खूबसूरत स्थान हमने इससे पहले नहीं देखा था। ओशो के सन्यासी, पेड़ पौधे, फूल, पत्ती को अपने हाथों से साफ कर रहे थे सब ही लोग मैरून रंग के रॉब में थे। भारतीय तो बहुत कम थे... अधिकतर विदेशी सन्यासी ही थे। सुंदर सुंदर महिलाएँ, पुरुष और मज़ा यह कि ये लोग कहीं आँखें बंद किए आलिंगन बद्ध बैठे या खड़े या लेटे होते थे।

उस दिन शाम को जिस समय ओशो प्रवचन देने आए, तो बहुत ही जोर से आंधी तूफान आने लगा। ओशो ने अपने प्रवचन में कहा कि आज हमारे एक मित्र का बहुत ही बड़ा अहंकार टूटा है। ये आंधी तूफान इसीलिए आया है। हम समझ गए कि उनका संकेत हमारी ओर है।

उस दिन ओशो ने अपने प्रवचन में बुद्ध की एक वो कथा सुनाई जिसे पढ़ कर हम पहली बार बहुत रोए थे। दूसरे दिन बुद्धा हॉल ; वो हॉल जहाँ ओशो प्रवचन देते थे द्ध में ओशो के साथ ही डायनेमिक मेडिटेशन किया गया। डाइनेमिक मेडिटेशन ओशो की अपनी ईजाद है। हम भी इसमें शामिल हुए। तीसरे चरण में आते ही हमारे मूलाधारचक्र से एक बहुत ही बड़ा गोला सा उठा और धीरे धीरे ऊपर की ओर बढ़ने लगा। जैसे ही वो गोला ह्र्दय के पास पहुंचा, हम बहुत ही डर गए और हमने अपनी आँखें खोल लीं और हम लेट कर रोने लगे।

शाम को ओशो की उपस्थिति में कवि सम्मेलन शुरू हुआ। कवि सम्मेलन से पहले ओशो ने कहा कि हमारे इन मेहमान कवियों को ऐसे सुनें जैसे हम बोल रहे हैं, चाहे किसी की समझ में आए या नहीं आए।

सबने अपनी अपनी श्रेष्ठ कविताएँ सुनाईं। नीरज जी भाई साहब ने माइक पर बार बार यह घोषणा कर रहे थे कि ‘आई एम द टेंथ कार्बन कॉपी ऑफ भगवान श्री रजनीश‘ उस दिन उन्होंने झूम झूम कर गीत सुनाया।

‘ये रिंदों की प्रेम सभा है, यहाँ संभल कर आना जी,

जो भी आए यहाँ किसी का हो जाए दीवाना जी।

फिर खाना खाने चले गए खाने की टेविल पर दुनियाँ भर की डिशेज़ थीं। हमने पहली बार वहाँ पीज़ा खाया, खाया क्या मुँह में डालते ही थूक दिया। इतना गंदा स्वाद लगा कि कहा नहीं जा सकता है। उस दिन के बाद से हमने आजतक पीज़ा नहीं खाया। नरेन्द्र दीपक आसपास खाना परोसने वाली सन्यासिनों की कमर में तो कभी जाघों में हाथ डाल रहे थे। नीरज जी भाई साहब भी ऐसे ही कुछ करने में सलंग्न थे। खाना खाकर हम लोग अपने स्थान पर चले आए।

दूसरा दिन तो बिल्कुल खाली था, बस केवल मज़ा ही करना था। दोपहर को खाना खाने के बाद हम लोग आश्रम में ही घूंमते रहे। आश्रम क्या है एक जीवंत बाग है। हर कौना सुंदरता की मिसाल है। आश्रम के ही एक छोटे से भाग को स्मोकिंग टैम्पिल का नाम दिया गया है। जिस किसी को भी धूमपान करना हो, वो वहीं जाकर कर सकता है। वो स्थान भी एक छोटा सा बगीचा ही है। हम और नीरज जी भाई साहब दोनों ही सिगरेट पीने के लिए वहाँ चले गए। वहाँ भी कई जोड़े आलिंगन बद्ध थे। हमारे मन में निरंतर एक प्रश्न चलता रहा कि ये लोग बिना सैक्स के कैसे चुपटे हो सकते हैं? उस जगह भी भीड़ थी। कहीं बैठने की जगह नहीं थी। एक छोटे से पेड़ के नीचे एक कटा हुआ तना रखा था। स्टूल जैसा हम उसी पर बैठ कर सिगरेट पीने लगे। थोड़ी देर बाद पता नहीं हमें क्या सूझा हमने वो पेड़ जोर से हिला दिया। उस पर से फूल झरने लगे और साथ ही वातावरण में एक अलग सी उमंग छा गई कोई मृदंग बजाने लगा, तो कोई ढपली, थोड़ी देर तक यही वातावरण रहा। फिर सब थम गया। हमने झुक कर देखा तो पाया कि हमारी जगह कोई और बैठ गया है।

कहीं कोई खाली जगह नहीं थी। बस सामने फव्वारे की सीमेंट की रेलिंग पर एक विदेशी लड़की के पास थोड़ी सी जगह थी। हम वही जाकर बैठ गए। फिर हमारा उससे वार्तालाप शुरू हुआ। वो वेस्ट जर्मनी की थी और उसका नाम फ्रूचूरिया था। बातचीत के दौरान उसने पूछा कि आप अपनी इनर्जी कहाँ अनुभव करते हैं।
हमने बताया कि आज्ञाचक्र पर और अपनी उंगली आँखों के बीच में भौंओं के मध्य रख दी। फिर हमने पूछा और तुम? तो उसने अपनी उंगली अपने ह्रदय पर रख कर कहा कि ह्रदयचक्र पर। हमने हल्के से अपनी उंगली उसके स्तनों के मध्य रख कर थोड़ा सा कुरेदा... पूछा कि यहाँ? बस फिर क्या था वो हमसे एकदम चुपट गई? उसका चुपटना हमें याद है। उसके बाद जब हम अलग हुए तो पूरा एक घण्टा गुज़र गया था। उसका चुपटना हमें याद है और अलग होना बाकी का इतना समय कहाँ गया हमें आजतक याद नहीं। हम जब भाई साहब के पास आए, तो भाई साहब बोले, वाह... ‘सुरेन्द्र सौ सुनार की एक लोहार की। हम तो ऊपर ऊपर ही मज़ा लेते रहे, तुमने तो पूरा ही ले लिया।‘
पर हम चुप थे हमें लगा कि ओशो ने हमारा संदेह दूर करने के लिए यह अवसर दिया है कि है कि देख लो ये लोग सेक्स नहीं ध्यान से चुपटे हुए हैं और सच में हमारा संदेह पल भर में समाप्त हो गया। (क्रमशः)

नोटः सुरेन्द्र सुकुमार 80 के दशक के पूर्वार्ध के उन युवा क्रांतिकारी साहित्यकारों में हैं, जो उस दौर की पत्रिकाओं में सुर्खियां बटोरते थे। ‘सारिका‘ पत्रिका में कहानियों और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता था। "जनादेश" साहित्यकारों से जुड़े उनके संस्मरणों की श्रंखला शुरू कर रहा है। गीतों के चक्रवर्ती सम्राट गोपालदास नीरज से जुड़े संस्मरणों से इस श्रंखला की शुरूआत कर रहे हैं।

  • देश
  • प्रदेश
  • आलेख