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(सुरेन्द्र सुकुमार): प्रातःवंदन मित्रो ! दीपावली पर तो जैसे आनंद ही दोगुना हो जाता था। दीपावली के तीन चार दिन नीरज जी के घर में बहुत चहल पहल रहती थी। शाम को ही सब लोग जमा हो जाते थे। हम, आँधीवाल, शहरयार, मित्तल साहब, सुरेश कुमार, और और नीरज जी के छोटे भाई दामोदर भाई साहब और भाई साहब के एकमात्र पुत्र मिलन प्रभात, जिन्हें घर में सब लोग गूँजन कहते हैं। और कभी कभी सीनियर आईएएस पण्डिता जी लखनऊ से आ जाया करते थे, उन दिनों शराब पर कोई प्रतिबंध नहीं होता था। कितनी भी पियो... मीट बनता था... शाम से ही हम सब लोग फ्लैश खेलने बैठ जाते थे। शहरयार साहब हमेशा ही हारते थे। वो ब्लाइंड बहुत खेलते थे।

पूरी रात फ्लैश होती रहती थी। हम क्योंकि ब्लफ खेलते थे, इसलिए हमेशा जीतते थे। नीरज जी भाई साहब और उनके भाई दामोदर भाई साहब भी थोड़ा बहुत जीतते थे क्योंकि ये लोग बहुत ही संभल कर खेलते थे। जब अच्छे ताश आते थे तभी खेलते थे। रात भर सिगरेट बीड़ी शराब के दौर चलते रहते थे... सुबह अपने अपने घर चले जाते थे। शाम को फिर जमा हो जाते थे।

इस तरह से दीपावली के चार दिन बहुत मज़े में कटते थे।

जिन दिनों मुलायम सिंह जी की सरकार थी, उन दिनों की बात ही अलग थी। जिले के लगभग सभी अधिकारी उनकी ड्योढ़ी पर सलाम बजाने आते थे और एक्साइज़ वाले बढ़िया क़िस्म की शराब की पूरी पेटी ख़त्म होने से पहले ही भिजवा देते थे।

यों नीरज जी भाई साहब तो कृपण थे ही भाभी उनसे भी ज्यादा कृपण थीं। शायद कोई विश्वास करे या न करे पर सच यह है कि फ्रिज़ होते हुए भी भाभी इस डर से फ्रिज़ नहीं चलाती थीं कि उन्हें भृम था कि फ्रिज़ में बिजली ज्यादा खर्च होती है। जबकि हमने कई बार उन्हें समझाया था कि ऐसा कुछ नहीं है। पूरी गर्मी अपने ही किराएदार शर्मा जी के घर से ठंडा पानी ले आती थीं।

नीरज जी भाई साहब का यह हाल था कि एक बार ग़लती से उन्होंने हमारी चप्पल पहन लीं, तो बुरी तरह से चौंक कर बोले, "अरे ये क्या ये चप्पल तो बहुत ही आरामदायक हैं।" हमने कहा कि "लिबर्टी की हैं, कूलर्स 1200 ₹ की हैं।" भाई साहब बोले, "इतने में तो 12 जोड़ी चप्पल आएंगी, जो 12 साल चलेंगी।" हमने कहा कि ‘‘भाई साहब पर आराम?‘‘ बोले कि "हाँ वो तो ठीक है।"

जब कभी भी दिन में हम उनके घर जाते और भाभी चाय के लिए पूँछतीं तो कहतीं कि "लला सबेरे से दो बार तो जेई चाय पी चुके हैं और अबै तिवारी जी आए हते तो एक कप उनके लै बनाय दई, अब नेक दूध बचो है लला तुम चाय पियो।" अब ऐसे में कौन कहता कि पिएंगे।

भाभी बहुत ही सीधी महिला थीं, नीरज जी के अन्य महिलाओं के साथ सम्बन्धो को जानते हुए भी बस यही कहतीं थीं कि "लला होन देओ कितनीहु औरतन से सम्बंध होयें... पर परमानेंट पोस्ट पर तो हमी ही बैठी हैं।" हम भी हाँ में हाँ मिला कर कहते कि "सही बात है भाभी आपकी पोस्ट तक तो कोई भी नहीं पहुंच सकता है।" और वो खुश हो जाती थीं ऐसे अवसर पर वो बिना कुछ कहे चाय बना कर ले आती थीं। (क्रमशः)

नोटः सुरेन्द्र सुकुमार 80 के दशक के पूर्वार्ध के उन युवा क्रांतिकारी साहित्यकारों में हैं, जो उस दौर की पत्रिकाओं में सुर्खियां बटोरते थे। ‘सारिका‘ पत्रिका में कहानियों और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता था। "जनादेश" साहित्यकारों से जुड़े उनके संस्मरणों की श्रंखला शुरू कर रहा है। गीतों के चक्रवर्ती सम्राट गोपालदास नीरज से जुड़े संस्मरणों से इस श्रंखला की शुरूआत कर रहे हैं।

 

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